Tuesday, March 19, 2024

छत्तीसगढ़: ‘मीडियाकर्मी सुरक्षा कानून’ पत्रकारों की नहीं, प्रताड़ित करने वालों की सुरक्षा करेगा

पत्रकारों की सुरक्षा के नाम पर छत्तीसगढ़ सरकार ने ‘छत्तीसगढ़ राज्य मीडिया कर्मी सुरक्षा अधिनियम 2023’ के नाम से जो विधेयक लाया है वो पत्रकारों के साथ सीधा-सीधा छलावा है। दरअसल छत्तीसगढ़ के पत्रकारों ने लंबे समय के आंदोलन के बाद छत्तीसगढ़ पीयूसीएल की मदद से जो ड्राफ्ट तैयार किया था उसके कोई भी प्रावधान इसमें नहीं लिये गये हैं। यही नहीं खुद सरकार द्वारा गठित जस्टिस आफताब आलम की कमेटी द्वारा प्रस्तुत ड्राफ्ट को भी इसमें पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है।

बता दें कि पिछली सरकार के समय पूरे छत्तीसगढ़ और खासकर बस्तर में पुलिस प्रताड़ना और फर्जी गिरफ्तारियों से आक्रोशित पत्रकारों ने पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग को लेकर प्रदेश व्यापी आंदोलन किया था। इस आंदोलन के बाद प्रदेश सरकार ने एक राज्य स्तर कमेटी गठित की थी। वहीं तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव ने तब सदन में इस विषय पर निजी विधेयक लाने का वादा किया था। चुनावी घोषणा पत्र में भी कांग्रेस ने पत्रकार सुरक्षा कानून विधेयक लाने की घोषणा की थी।

पत्रकारों के आंदोलन के दबाव में छत्तीसगढ़ सरकार ने एक प्रारूप कमेटी का गठन किया था। सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस आफताब आलम की अध्यक्षता में रिटायर्ड जस्टिस अंजना प्रकाश, वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन, ललित सुरजन, प्रकाश दुबे, महाधिवक्ता छत्तीसगढ़, पुलिस महानिदेशक और मुख्यमंत्री के सलाहकार भूतपूर्व पत्रकार रुचिर गर्ग इस कमेटी में शामिल थे।

इस कमेटी ने एक वर्ष से अधिक समय तक प्रदेश भर के बुद्धिजीवियों और पत्रकारों से प्रारूप के लिए सलाह मांगी और इसके लिए अंबिकापुर, रायपुर और जगदलपुर में बैठकें भी कीं। इस कमेटी को तब पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे ‘छत्तीसगढ़ राज्य पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति’ ने देशभर के विद्वानों, कानून विशेषज्ञों और वरिष्ठ पत्रकारों की सलाह लेकर पीयूसीएल द्वारा तैयार ड्राफ्ट की कॉपी भी सौंपी थी। जस्टिस आफताब आलम की कमेटी ने तीन वर्ष पूर्व ही इस सरकार को इस कानून के प्रारूप की काफी सौंप दी थी।

जस्टिस आफताब आलम की कमेटी ने पत्रकारों की आपत्ति पर दो बार अपने प्रारूप में संशोधन किए। कमेटी के अंतिम ड्राफ्ट में 71 धारायें थीं। मगर जो ड्राप्ट विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया गया उसमें मात्र 23 धाराए हैं। सुरक्षा देने वाली सारी प्रक्रियाएं तो उड़ा दी गई हैं। यह बिल केवल मीडिया कर्मियों के पंजीकरण को रद्द करने के लिये ही रह गया है।

पत्रकारों की सुरक्षा की रणनीति तय करने का अधिकार जब प्रदेश के आईएएस अफसरों को ही दिया जाना था तो फिर जस्टिस आफ्ताब आलम की कमेटी को यह काम सौंपने का ढोंग क्यों रचा गया। अगर उस कमेटी की कोई बात नहीं माननी थी और ड्राफ्ट को पूरी तरह से बदलना ही था तो जनता से सुझाव मंगाकर उनका समय क्यों बर्बाद किया गया?

जस्टिस आफताब आलम द्वारा सौंपे ड्राफ्ट बिल में एक राज्य स्तरीय पत्रकार पंजीयन प्राधिकरण और अलग से एक राज्य स्तरीय पत्रकार सुरक्षा कमेटी बनाने की बात थी। जबकि नये कानून में केवल राज्य स्तरीय प्राधिकरण और कमेटी की बात कही गई है। इसके अलावा ज़िले स्तर पर जोखिम प्रबंधन इकाइयां (Risk management units) बनाने की भी बात थी।

हालांकि तब पत्रकारों ने जिला स्तर के जोखिम प्रबंधन इकाई में जिला पुलिस अधिकारी और कलेक्टर को शामिल किए जाने का विरोध किया था। पत्रकारों का मानना था कि पत्रकारों की प्रताड़ना के पीछे इन्हीं दोनों अधिकारियों का हाथ या निर्देश रहता है।

3 साल तक सरकार इस ड्राफ्ट को किसी अंधेरे कमरे में बंद रखा और पत्रकारों की जगह अधिकारियों की सुरक्षा के लिए इसे विधेयक के रूप में तब पारित किया, जब बहस और विरोध की गुंजाइश ही न बची रहे।

ड्राफ्ट में जहां कमेटी खुद जांच कर सकती थी, वहां अब कमेटी बस पुलिस अधीक्षक को जांच करने के लिये कह सकती है। अब जिस जिले के प्रशासन या पुलिस प्रशासन द्वारा पत्रकार प्रताड़ित हुआ है उसकी जांच उसी जिले के पुलिस अधिकारी द्वारा किए जाने पर क्या परिणाम आएंगे यह सर्वविदित है। जहां पत्रकारों को प्रताड़ित करने पर सज़ा हो सकती थी, वहां अब सिर्फ अर्थ दंड है।

पत्रकारों को प्रताड़ित करने का दोष सिद्ध होने पर आफताब आलम कमेटी में एक वर्ष के कारावास की सजा निर्धारित थी जिसे अब केवल 25,000 रुपये के जुर्माना में सीमित कर दिया गया है। जबकि किसी कॉरपोरेट या कंपनी के दोषी होने पर सजा को मात्र 10,000 रु के जुर्माना में समेट दिया गया है।

इस तरह यह कानून पत्रकारों को प्रताड़ित करने के लिए उत्साहित करने वाला है जबकि शिकायत झूठी पाए जाने पर उल्टे उस पत्रकार या शिकायतकर्ता को 10,000 रुपये के जुर्माने से दंडित करने का प्रावधान भी इस कानून में किया गया है। इसका सीधा मतलब है कि पत्रकार अपनी पीड़ा बताने का साहस ही नहीं कर सकेगा। यह तय है कि सत्ता किसी की भी रहे पत्रकार की शिकायत झूठी पाई जाने के आसार बहुत ज्यादा रहना ही है।

कुल मिलाकर यह कानून पत्रकारों की सुरक्षा के लिए नहीं बल्कि उन पर नियंत्रण रखने के लिए बनाया गया लगता है। जैसे कि छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा कानून जनता की रक्षा के लिए नहीं, जनता के लिए लड़ने वालों पर नियंत्रण करने के लिए प्रयोग हुआ। वैसे ही पत्रकार सुरक्षा कानून का भी यही हाल होना है।

प्रदेश सरकार के मीडिया सलाहकार रुचिर गर्ग भी इस कमेटी में सदस्य थे। आश्चर्य है कि वह खुद पूर्व में पत्रकार रह चुके हैं और पत्रकारों के दर्द और पीड़ा से वाकिफ हैं, लेकिन आफताब आलम कमेटी की रिपोर्ट को अधिकारियों द्वारा उलट-पुलट देने का विरोध नहीं कर उन्होंने जता दिया है कि वह पत्रकारों के साथ नहीं बल्कि प्रदेश की सत्ता के साथ ही बने रहने के लिए पत्रकारिता छोड़ा है।

विधेयक को पेश करते समय प्रदेश के मुख्यमंत्री का चेहरा दंभ से लबालब था। वो ऐसे जता रहे थे कि उन्होंने प्रदेश के पत्रकारों पर बहुत बड़ा एहसान कर दिया है। लेकिन उन्होंने कांग्रेस के मौजूदा कार्यकाल में फर्जी मामलों में जेल भेजे गए और प्रताड़ित किए गए सैकड़ों पत्रकारों के बारे में कुछ भी नहीं कहा।

इधर प्रदेश भर के दर्जनों ऐसे पत्रकार संघ जिन्होंने पत्रकार सुरक्षा कानून की लड़ाई में सहयोग भी नहीं किया, वह अपने आप को बड़ा चाटुकार साबित करने की प्रतिस्पर्धा में आकर, बिना विधेयक के प्रारूप को पढ़े, सीधे मुख्यमंत्री का ताली बजाकर स्वागत करने वाले कार्यक्रम को आयोजित करने में जुट गए हैं। इन कार्यक्रमों के लिए प्रदेश के जनसंपर्क विभाग ने अपना खजाना खोल दिया है।

आश्चर्य है की प्रदेश में प्रतिपक्ष की भूमिका निभा रहे भाजपा विधायकों ने इस मुद्दे पर किसी भी प्रकार अपने विचार ही नहीं व्यक्त किए। उन्हें चर्चा में भाग लेकर पत्रकारों के हित में संशोधन कराना था। अब भी मौका है राज्यपाल से मिलें और पत्रकारों के साथ होने का सबूत दें। फिलहाल इस कानून के खिलाफ पिछले 10 वर्षों से संघर्ष कर रहे पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति छत्तीसगढ़ ने राज्यपाल से अपील करने का फैसला लिया है।

(कमल शुक्ला पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति के संयोजक हैं।)

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