Tuesday, March 19, 2024

स्मृतिवासी बसवा: भोला मन जाने अमर मेरी काया!

आज की ज़मीन से उड़ान भर कर विलुप्त कल की यादों के आंगन में पहूंचा हूं। बसवा… जी, बसवा। इसी क़स्बा में बचपन बीता, एक हिस्सा किशोर काल का भी। स्कूल का घंटा बजता, सुनते ही दौड़ता और प्रार्थना में शामिल हो जाता। चार-पांच कोठरियों का घर था। बैठक थी, बाड़ा था, जिसमें कुआं भी था और बबूल का झाड़। दो शौचालय हुआ करते थे। आंगन के एक कोने में गाय और बकरी थी। कभी-कभी चरवाहे के पास दोनों को छोड़ने जाता। यादों का कारवां गुजरी सदी के 1950 से शुरू होता है और अगले दशक के मध्य तक चलता है।

अब संयुक्त जोशी परिवार का यह घर खंडहर में जीवित है; बाड़ा, चबूतरा, कोठरियां यानी कमरे विलुप्त हो चुके हैं। बस! एक बैठक भर अपना अस्तित्व बचाये हुए है। यह बैठक मेरा अध्ययन कक्ष थी।। गणेशचतुर्थी की पूजा कराता था। गांव भर के लोग आते और अपने बच्चे को दीक्षा दिलवाते। तख्तीपूजन करवाते। पहला अक्षर लिखवाते। साथ में थाली में सजा कर सीधा यानी चढ़ावा लाते। रटा-रटाया मंत्र बोल कर आशीर्वाद देता, चरण पुजवाता, पुरोहित जो ठहरा हमारा घराना।

यादों का रेला उमड़ रहा है। पड़ोस में कुआं हुआ करता था। मोहल्ले भर की पनीहारिन आया करतीं, पानी भरती न्यारी-न्यारी, पर न कुआं घटता, और न ही क्यारियां सूखतीं। अब सब विलुप्त है। कुआं को बंद कर दिया गया है। नल जो आ गए। दिनों में पानी आता है। बाहरी वाटर टैंकों से खरीद कर सासों की सिंचाई होती है। हैंडपंप भी हंसी के पात्र बने हुए हैं। बिजली से कुछ राहत ज़रूर है, पर नियमित नहीं। इसलिए इन्वर्टर से काम चलाया जाता है ताकि बल्ब जल सके, इंटरनेट चल सके। मुझे अपनी लालटेनें और मिट्टी के दीपक याद आ रहे हैं। उनका टिमटिमाना याद आ रहा है। याद आ रहा है लालटेनों में मिट्टी का तेल भरना।

विगत को याद करते और वर्तमान के विकास पर तरस खाते हुए हम दोनों झाझूरामपुरा की ओर मुड़ते हैं। सड़क पक्की है, यादों में कच्चा-बालू भरा रास्ता बसा हुआ है। यहां वर्तमान पर धौल ज़माने को जी चाहता है। पर यह क्या! रामपुरा के गऊ मुख से पानी तो अविरल गति से प्रवाहित हो रहा है, लेकिन कपड़े धोये जा रहे हैं। कुण्ड में साबुन का पानी भरा हुआ है। यादों ने थाप दी; इसी कुण्ड में मैं नहाया करता, निर्मल जल-निर्मल काया; ऋतु प्रिय-सर्दी में गर्म और गर्मी में शीतल; बारहमासी अविरलधारा, पहाड़ों के सीने से निकलती हुई। अब साबुन के झागों से भरा है कुण्ड।

पूछने पर बताया गया ‘अब इस स्थान को पर्यटकों के लिए तैयार किया जा रहा है। पक्के द्वार बनाये जा रहे है।’यादें साक्षी हैं कि यहां ‘गोट’हुआ करती, चूरमा-दाल बाटी बना करती, मावा की गूंजी उड़ाते, बैल गाड़ियां बंधी रहतीं। अब मोटर बाइकों का जमावड़ा है। चाय की थड़ियां हैं। इक्के- दुक्के साधू संत हैं। धर्मशाला है। कभी बाबा जयजयराम हुआ करते थे। पहुंचे सिद्ध महात्मा थे। परिवार में आना-जाना था। अब खण्डहर ही उनकी याद दिलाता है।

लगे हाथ हम अपने हाई स्कूल भी पहुंच गए। तबकी दो तोपों ने हमारा स्वागत किया। तोपें सामंती और औपनिवेशिक काल की याद दिलाती हैं। तब से ही स्थिर हैं जब से मैंने देखा था सात दशक पहले। स्कूल चमक रहा है, बच्चियां पढ़ रही हैं। करीब 800 -900 विद्यार्थी हैं। तब इसके आधे हुआ करते थे।

प्रिंसिपल बैरवा जी ने स्वागत किया। चाय पिलाई। जागरूक युवक शिक्षक प्रकाश चतुर्वेदी ने परिसर की यात्रा कराई। हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस के सम्पादकीय पढ़ने की लत है, यह सुन कर अच्छा लगा। कुछ तसल्ली हुई कल को लेकर। अपने मोहल्ले में लौटा तो सहपाठी मनोहरलाल शर्मा से मुठभेड़ हो गई। दशकों का याराना कलियों सा खिलने लगा।

वापस दिल्ली की ओर रवानगी। अब स्टेशन के पास आज में राणा सांगा की मूर्ति दिखाई दी। मेरे कल में नहीं थी। कहते हैं दिल्ली के शासकों से लड़ते और लौटते हुए रेल मार्ग के आस-पास उनका निधन हुआ था। समाधि भी है। किसका यथार्थ चुनूं : आज़ का या गुजरे कल का? शायद दोनों के ही यथार्थ से मेरा वजूद है, बसवा का और देश समाज का भी। कानों में कुमार गंधर्व के स्वर गूंजने लगे हैं : भोला मन जाने अमर मेरी काया…!

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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