2 अक्टूबर 2017 को दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी. रोहिणी के नेतृत्व में भारत सरकार ने चार सदस्यों के आयोग का गठन किया था। इस आयोग का मुख्य काम था अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच आरक्षण लाभों के अधिक न्याय संगत वितरण को सुनिश्चित करना। अन्य पिछड़ा वर्ग में उप वर्गीकरण के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तंत्र, मानदंड और पैरामीटर को तैयार करना था। आयोग को अत्यंत पिछड़ा वर्ग के सामाजिक अधिकार को सुनिश्चित करवाना था। 14 बार विस्तार और 6 साल बाद 31 जुलाई 2023 में रोहिणी आयोग ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को सौंप दी।
अत्यंत पिछड़ा वर्ग के सामाजिक अधिकार का सवाल आजादी के बाद से ही उठ रहा है। 1953 में बने काका कालेलकर आयोग ने भी अन्य पिछड़ा वर्ग को दो भागों में विभाजित करने की संस्तुति दी थी। इस पहले पिछड़ा वर्ग आयोग ने दो समूहों में उपवर्गीकरण करते हुए ओबीसी को पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा वर्ग में बांटने का सुझाव दिया था। इसके बाद बने मंडल कमीशन में भी अन्य पिछड़ा वर्ग में उपवर्गीकरण की बात उठी थी।
मण्डल आयोग के सदस्य एल.आर. नायक ने कहा था कि जनता का यह अभागा यानी ’पद दलित पिछड़ा वर्ग’ जो की भारी पिछड़ेपन से ग्रस्त है, के ज्ञानार्जन और उत्थान में तब तक समय लगेगा जब तक कि राष्ट्रीय स्तर पर उनके सुरक्षात्मक उपाय और लाभ के लिए व्यापक स्तर पर संगठित प्रयास नहीं किये जाते है। अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि सचेत ढंग से सामान्य सूची से अलग कर उनके लिए पृथक श्रेणी बना दी जाय, जिससे की वह अपने समान लोगों के साथ स्वथ्य प्रतियोगिता कर सकें, ताकि सुरक्षात्मक उपायों का लाभ उन्हें मिल सके। सामान्य सूची के शेष समुदायों के लिए भी इसी वजह से अलग श्रेणी बना दी जाय ताकि उनमें भी स्वस्थ प्रतियोगिता लायक माहौल बन सके। यह तरीका समूचे राष्ट्र के हित में जरूरी है।
नायक ने कहा था कि ‘मध्यवर्ती पिछड़ा वर्ग’ वह है जिनका परंपरागत पेशा खेती, बागवानी, पान उत्पादक, दर्जी, जुलाहा, लघु कृषि आधारित व्यापारिक गतिविधि, मंदिर सेवा, ग्रामीण उद्यम जैसे ताड़ी व्यापार, तेल व्यापार, ज्योतिष आदि था, जो अति प्राचीन काल से ही उच्च जातियों के साथ सह-अस्तित्व में रहे है, इस लिए बेहतर साहचर्य को आत्मसात करने का कुछ अवसर उनके पास था। इसके बजाय तमाम अभागे ‘पद दलित पिछड़ा वर्ग’ के लोग, जिन्हें भारतीय समाज के साथ घुलने-मिलने से या तो रोका गया या निषिद्ध किया गया और यहाँ तक कि सीधे-सीधे बहिष्कृत रखा गया। उनके परंपरागत पेशों, जरायम और खानाबदोशी के साथ सामाजिक कलंक जुड़ा होने के फलस्वरूप वह अथाह रूप से निम्न सामाजिक स्तर पर बने रहे।
समान्यतया वे थे, पूर्व जरामयपेशा जनजातियाँ, खानाबदोश एवं घुमंतू जनजातियां, बेलदार, मछुवारे, नाविक, पालकी कहार, नोनिया, धोबी, गड़रिया, नाई, जमादार, टोरी साज, खाल और चर्मशोधक, भूमिहीन खेत मजदूर, पनिहारा, ताड़ी लगाने वाले, ऊंट चरवाहे, सुअर पालक, बैलगाड़ी चलाने वाले, जंगली सामान संग्रह करने वाले, शिकारी एवं बहेलिया, भूड़भूजे, आदिम जनजातियां (अनु. जनजाति में वर्गीकृत नहीं) बाहरी वर्ग (अनु. जाति में वर्गीकृत नहीं) और भिक्षुक समुदाय आदि।
नायक कहते हैं कि यहाँ यह देखने वाली बात है कि ‘पद दलित पिछड़ा वर्ग’ की आबादी 25.56 प्रतिशत और ‘मध्यवर्ती पिछड़ा वर्ग’ की 26. 44 प्रतिशत है। बेशक यह मानने योग्य बात है कि आबादी के लिहाज से दोनों श्रेणियाँ एक-दूसरे के बराबर है। विस्तृत विचार-विमर्श, जिसमें मैं पूर्ण सहमत हूँ, के बाद आयोग ने केन्द्र सरकार के अधीन सभी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की है। आगे इसने सिफारिश की है कि सभी वैज्ञानिक, तकनीकी, व्यवसायिक संस्थाओं, जो केन्द्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा संचालित है, में सीटों को आरक्षित करना चाहिए और आरक्षण की मात्रा सरकारी नौकरियों में वही यानी 27 प्रतिशत होना चाहिए।
सभी औचित्य और तथ्यों के लिहाज से ‘पद दलित पिछड़ा वर्ग’ पिछड़ेपन के मामले में अनुसूचित जनजातियों एवं अनुसूचित जातियों के समान ही है। एल. आर. नायक ने 27 प्रतिशत आरक्षण में से 15 प्रतिशत आरक्षण अत्यंत पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में ही देने की सिफारिश की थी। उन्होनें अनु. जाति/अनु. जनजाति की तरह ही अन्य सभी रियायतें भी देने के लिए कहा था।
उच्चतम न्यायालय द्वारा 1992 में इन्द्रा साहनी बनाम भारत सरकार मुकदमे में ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ के अन्दर श्रेणीकरण करने के संबंध में दिए गए फैसले के अंश-पैरा 850 में कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के लक्ष्यों के लिए पिछड़ावर्ग के अंदर अतिपिछड़ा वर्ग जैसा वर्गीकरण करने में कोई संवैधानिक रोक नही है। यह फर्क सामाजिक पिछड़ेपन की मात्रा पर आधारित होना चाहिए। इस तरह के वर्गीकरण के मामले में यह जरूरी है कि तमाम पिछड़े वर्गों में आरक्षण का बंटवारा उचित ढंग से किया जाय, कही ऐसा न हो कि एक या दो वर्ग ही बाकी पिछड़े वर्गों को निःसहाय छोड़कर समूचा कोटा चट कर जाय। इसी आदेश में कहा गया कि राज्यों द्वारा पिछड़े वर्ग को पिछड़े और अति पिछड़े में विभक्त करने में कोई संवैधानिक और कानूनी बाध्यता नहीं है।
आइए देखें कि उत्तर प्रदेश में अत्यंत पिछड़ा वर्ग की सरकारी नौकरियों में स्थिति क्या है। अत्यंत पिछड़े वर्ग की उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी के सवाल पर 2003 में हुए एक सरकारी सर्वे के अनुसार अत्यंत पिछड़ी जाति कहार, कश्यप की पिछड़े वर्ग में संख्या 3.31 प्रतिशत है पर सरकारी नौकरियों में मात्र 2.50 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इसी प्रकार केवट, मल्लाह, निषाद की संख्या 4.33 प्रतिशत और हिस्सेदारी 1.36 प्रतिशत, विश्वकर्मा, बढ़ई की संख्या 2.37 प्रतिशत और हिस्सेदारी 1.73 प्रतिशत, बिन्द की संख्या 0.87 प्रतिशत और हिस्सेदारी 0.22 प्रतिशत, बियार की संख्या 0.14 प्रतिशत और हिस्सेदारी 0.01 प्रतिशत, राजभर की संख्या 2.44 प्रतिशत और हिस्सेदारी 0.59 प्रतिशत, कुम्हार प्रजापति की संख्या 3. 42 प्रतिशत और हिस्सेदारी 2.34 प्रतिशत, पाल, गड़ेरिया की संख्या 4.43 प्रतिशत और हिस्सेदारी 3.78 प्रतिशत, भुजा, भड़भुजा की संख्या 1.43 प्रतिशत और हिस्सेदारी 0.54 प्रतिशत, मौर्या, कोईरी, कुशवाहा की संख्या 6.91 प्रतिशत और हिस्सेदारी 5.81 प्रतिशत, लोहार की संख्या 1.81 प्रतिशत और हिस्सेदारी 1 प्रतिशत, लोनिया, चैहान की संख्या 2.33 प्रतिशत और हिस्सेदारी 0.78 प्रतिशत, आरख की संख्या 0.41 प्रतिशत और हिस्सेदारी 0.12 प्रतिशत, हज्जाम, नाई, सविता, सलमानी की संख्या 3.01 प्रतिशत और हिस्सेदारी 2.92 प्रतिशत है।
यही स्थिति अन्य अत्यंत पिछड़ी जातियों की भी है। यदि हम प्रथम व द्वितीय श्रेणी की नौकरियों के आकड़ों को देखें तो यह हिस्सेदारी और भी कम हो जायेगी। यही हाल उच्च शिक्षा, मेडिकल और इंजीनियरिंग की शिक्षा का भी है जहां इनकी संख्या आबादी के अनुपात में बेहद कम है।
उत्तर प्रदेश में अत्यंत पिछड़े समाज के सामाजिक अधिकारों के लिए समय-समय पर आयोग भी बनते रहे हैं लेकिन उनकी सिफारिशें ठंडे बस्ते के हवाले कर दी गई। 31 अक्टूबर 1975 को बने छेदीलाल साथी आयोग ने 17 मई 1977 को प्रदेश सरकार को सौंपी रिपोर्ट में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 29.50 प्रतिशत आरक्षण देने और उसमें 17 प्रतिशत सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण देने की संस्तुति की थी।
बिहार में 1978 में कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री रहते हुए ओबीसी आरक्षण में पिछड़ा वर्ग और अत्यंत पिछड़ा वर्ग की कोटा अलग कर दिया था। लेकिन सामाजिक न्याय आंदोलन से निकली सपा और बसपा की सरकारों ने उत्तर प्रदेश में इस काम को नहीं किया। यह जानते हुए भी कि संवैधानिक रूप से अत्यंत पिछड़ी जातियों को दलितों की श्रेणी में शामिल नहीं किया जा सकता क्योंकि कोई भी अत्यंत पिछड़ी जाति अस्पृश्य अथवा अछूत नहीं है जबकि दलित की श्रेणी के लिए संवैधानिक रूप से अछूत होना अनिवार्य है।
सपा बसपा सरकारों ने अत्यंत पिछड़ी 16 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के लिए शासनादेश निकाले और केन्द्र सरकार को संस्तुति की। मण्डल कमीशन के सदस्य एल. आर. नायक की यह मंशा कि पिछड़े वर्ग में अत्यंत पिछड़े वर्ग को अलग आरक्षण कोटा मिले नहीं तो उन्हें सामाजिक न्याय नहीं हासिल होगा और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अत्यंत पिछड़े समाज को आज तक सामाजिक न्याय हांसिल नहीं हो सका। मोदी सरकार ने तो इस सवाल पर बनाई रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने की कौन कहे आजतक सार्वजनिक करना भी जरूरी नहीं समझा।
बहरहाल अत्यंत पिछड़ा वर्ग के ओबीसी के आरक्षण कोटा में अलग आरक्षण के लिए प्रदेश में जमीनीस्तर पर अभियान जोर पकड़ रहा है। चंदौली जैसे जनपद में कर्पूरी ठाकुर की जन्मशती के अवसर पर पूरे जिले में सामाजिक अधिकार अभियान जारी है। 1 से लेकर 1000 लोगों के सम्मेलन, बैठक, गोष्ठी, संवाद और सभाएं की जा रही है। उम्मीद है कि आने वाले समय में अत्यंत पिछड़ा वर्ग के सामाजिक अधिकार के लिए बनी रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने और लागू करने की मांग पर बड़ी गोलबंदी होगी।
(दिनकर कपूर ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के प्रदेश महासचिव हैं)
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