झारखंड की स्वर्णरेखा नदी लील रही किसानों की ज़मीन

Estimated read time 1 min read

झारखंड। झारखंड की नदियों की बात करें तो यहां कुल 16 नदियां हैं। पहले नंबर पर दामोदर नदी है जो पूरे झारखंड की सबसे लंबी नदी है। यह राज्य के लातेहार जिला अंतर्गत टोरी क्षेत्र से निकलती है।

दामोदर नदी बंगाल का शोक कहलाती है। दामोदर नदी का एक और नाम भी है जिसे देवनद के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन ग्रंथों में दामोदर नदी को ही देवनद के नाम से उल्लेखित किया गया है।

राज्य की दूसरी सबसे बड़ी नदी स्वर्णरेखा है, इसका नामकरण स्वर्णरेखा इसलिए पड़ा कि यह नदी अपने साथ सोने के टुकड़े लेकर बहती है। यह सिर्फ झारखंड ही नहीं, बल्कि पश्चिम बंगाल और ओडिशा के भी अलग-अलग हिस्सों में सैकड़ों सालों से हजारों लोगों की जीविका साधन बनी हुई है। क्योंकि स्वर्णरेखा नदी में सोने के कण मिलते हैं। नदी के आस-पास रहने वाले दर्जनों परिवारों की कई पीढ़ियों की जीविका इससे चलती आ रही है।

स्वर्णरेखा नदी का उद्गम झारखंड की राजधानी रांची से करीब 16 किलोमीटर दूर नगड़ी गांव के रानीचुआं परिसर स्थित एक छोटे से चुआं (खेत में छोटे गड्ढे को चुआं कहते हैं) से पानी की धार निरंतर निकल रही है।

यहां से निकलने के बाद कुछ दूर आगे बढ़ने पर यह फैलने लग जाती है और आगे जाकर वृहद रूप धारण कर लेती है। सदियों से निरंतर बहने वाली झारखंड की यह एक ऐसी नदी है, जिसका अस्तित्व किसी अन्य दूसरी नदियों में जाकर खत्म नहीं होता बल्कि आगे जाकर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है।

स्वर्णरेखा नदी पर स्थित हुंडरू जलप्रपात पूरे झारखंड का दूसरा सबसे बड़ा जलप्रपात है। स्वर्णरेखा नदी परियोजना तीन राज्यों झारखंड, उड़ीसा और बंगाल की यह संयुक्त परियोजना है।

स्वर्णरेखा नदी की इन तमाम सकारात्मक गुणों के बीच  एक दुखद पहलू यह है कि पूर्वी सिंहभूम जिला अंतर्गत बहरागोड‍़ा क्षेत्र में कई ऐसे गांव हैं जहां की करीब 2000 एकड़ खेती योग्य भूमि इस नदी में समा गयी है। इसके बावजूद गांव के किसान आज भी लगान दे रहे हैं। क्षेत्र के किसान काफी द्रवित स्वर में बताते हैं कि हर साल 50 से 100 फीट जमीन स्वर्णरेखा नदी में समा रही है।

किसानों के अनुसार कई सालों से जारी कटाव के कारण जिले के बहरागोड़ा क्षेत्र के माहुलडांगरी, कामारआड़ा, बामडोल और पाथरी गांव के 2,000 एकड़ से अधिक कृषि योग्य भूमि स्वर्णरेखा नदी में समा गयी है।

किसानों के लिए सबसे परेशान करने वाली स्थिति यह है कि जहां इस भूमि पर अब ओडिशा सरकार दावा करती है। वहीं दूसरी तरफ क्षेत्र के किसान आज भी अपनी उक्त जमीन का लगान बहरागोड़ा अंचल कार्यालय में जमा कर रहे हैं।

किसान अमलेंदु दंडपाट कहते हैं कि झारखंड सरकार हमारी जमीन वापस दिला दे। नहीं तो फिलहाल हम जिस भूमि पर खेती कर रहे हैं, उससे हमें वंचित होना पड़ेगा। इसके लिए विशेष पहल जरूरी है। जब जमीन बचेगी तभी हम भी फसल उगा सकेंगे और क्षेत्र के लोगों का पेट भर सकेंगे।

किसान मिहिर पाल कहते हैं हम किसानों की समस्या को लेकर कोई भी गंभीर नहीं हैं। विगत 60-70 वर्षों में कई विधायक और सांसद अस्तित्व में आये। लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया सिवाय समस्या सुनने के अभी तक समाधान के लिए कोई ठोस पहल नहीं हुई। परियोजना के पहल से हमारी जमीन नहीं बचेगी।

किसान सत्यव्रत पांडा बताते हैं कि बीते 70-80 वर्षों में क्षेत्र के किसानों ने बहुत कुछ गंवाया है। स्वर्णरेखा नदी में हमारी जमीन चली गयी। राज्य सरकार से बड़ी उम्मीद रहती है, लेकिन पहल नहीं हो रही है। आज बची-खुची जमीन भी खत्म होने के कगार पर है।

किसान सुजीत साव के अनुसार किसानों की सुविधा के लिए कोई काम नहीं हो रहा है। हमारी जमीन स्वर्णरेखा नदी में चली गयी। बची-खुची जमीन पर फसल उगाते हैं। अबतक कोल्ड स्टोरेज उपलब्ध नहीं कराए गए। सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं है।

किसान ब्रह्मपद घोष ने कहते हैं कि कुछ साल पहले तक पूर्वजों के पास 20 एकड़ से अधिक कृषि योग्य भूमि थी। अब महज 4-5 एकड़ जमीन बची है। प्रतिवर्ष हम बाढ़ की विभीषिका झेलने व जमीन खोने को विवश है। ऐसा ही रहा तो हमारे पास कुछ नहीं बचेगा।

किसान उज्ज्वल पैड़ा कहते हैं कि वर्तमान में युवाओं का रुझान कृषि की ओर बढ़ रहा है। हमारी इच्छा है कि कृषि कार्य उन्नत तरीके से कर संपन्न बनें। हमारे पास पानी के लिए नदी तो है लेकिन वह हमारे लिए वरदान की जगह अभिशाप बन चुकी है।

स्वर्णरेखा नदी

किसान शशिधर दंडपाट कहते हैं संबंधित विभाग द्वारा कुछ स्थानों पर तटबंध और स्टैक बनाया गया। लेकिन यह मानक के मुताबिक तैयार नहीं होने से योजना असफल साबित हुई है। क्योंकि नदी का कटाव रोकने के लिए पदाधिकारियों ने ग्रामीणों से सुझाव कोई नहीं लिया।

हर बरसात में स्वर्णरेखा नदी हमसे जमीन छीन रही है। पदाधिकारियों का आश्वासन अब तक कोरा ही साबित हुआ है। झारखंड सरकार की ओर से हमें हमारी जमीन को बचाने और मुआवजा दिलाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की जा रही है।

किसान समीर पाल बताते हैं कि वर्षों से क्षेत्र के किसान स्वर्णरेखा नदी की मार झेलने को विवश हैं। हर वर्ष हम बेरोजगारी की ओर एक कदम आगे बढ़ा रहे हैं। हमारी मदद को अब तक कोई सामने नहीं आया है और हम अपनी जमीन को जाते हुए देख रहे हैं।

वहीं किसान मनोहर पैड़ा कहते हैं कि माहुलडांगरी समेत आसपास के गांव के सभी किसानों की जमीन नदी में समा गयी है। दुखद बात यह है कि हम अपनी जमीन पर स्वामित्व का दावा भी नहीं कर पा रहे हैं।

किसान अमीर पाल का कहना है कि पिछले कई वर्षों में हमने अपनी काफी जमीन खो दी है। अब जो जमीन बच गयी है, वही हमारे रोजगार का साधन है। इसे बचाने के लिए झारखंड सरकार हमारी मदद करे, अगर यही हाल रहा तो हम भूमिहीन हो जाएंगे।

किसान असित पंडा बताते हैं कि 60-70 साल पहले स्वर्णरेखा नदी काफी संकरी थी। धीरे-धीरे बारिश के मौसम में नदी का कटाव बढ़ता गया। पूरब की ओर लगभग दो किलोमीटर जमीन का कटाव हो गया। नदी में हमारे 2,000 एकड़ खेत चले गये।

किसान चंदन पंड़ा कहते हैं कि संबंधित विभाग द्वारा कई स्थानों पर तटबंध व स्टैक बनाया तो गया लेकिन यह पर्याप्त और अनुकूल नहीं है। इसमें सुधार कर समूचे क्षेत्र में तटबंध का निर्माण करना जरूरी है। इसके बाद ही किसानों की जमीन बच सकेगी।

भरत पंड़ा की माने तो नदी के कारण लगभग 300 किसानों पर संकट आ गया है। इनकी जमीन पर ओडिशा सरकार दावा करती है। जबकि ये आज भी जमीन का लगान बहरागोड़ा अंचल कार्यालय में जमा करते हैं। ये झारखंड सरकार से मदद की गुहार के साथ कहते हैं कि सरकार हमारी जमीन का बचाव करे या इसका मुआवजा दे।

किसानों के अनुसार हर साल पूर्वी छोर में 50 से 100 फीट जमीन कटाव हो रहो रहा है। इस संबंध में झारखंड सरकार ठोस कदम नहीं उठा रही है। संबंधित विभाग ने कुछ स्थानों पर स्टैक और तटबंध का निर्माण किया, जो पर्याप्त नहीं है।

किसान कहते हैं कि स्टैक की बजाय क्षेत्र में तटबंध का निर्माण जरूरी है। अगर समय रहते पहल नहीं हुई, तो आनेवाले समय में महुलडांगरी गांव नदी में समा जाएगा। क्षेत्र के किसान भूमिहीन हो जाएंगे। रोजगार के लिए उन्हें दर-दर भटकना पड़ेगा।

क्षेत्र के किसान सुबल नायक बताते हैं कि बामडोल से माहुलडांगरी तक स्वर्णरेखा नदी किनारे कटाव काफी तेजी से हो रहा है। राज्य सरकार से मांग है कि नदी के किनारों को पत्थरों से बांध दिया जाये, ताकि बाकी जमीन बरकरार रहे। इसी से हम सब की जीविका चल रही है।

वहीं कामेश्वर धड़ा कहते हैं कि नदी का कटाव किसानों की सबसे बड़ी समस्या है। अबतक हजारों एकड़ रैयती जमीन नदी में समा चुकी है। उक्त जमीन का लगान किसान भर रहे हैं। सरकार से मांग है कि मिट्टी कटाव को रोकने की दिशा में ठोस पहल करे।

किसान शंकर खामराई बताते हैं कि माहुलडांगरी के किसानों के लिए नदी का कटाव बड़ी समस्या है। हमारे पूर्वजों की कई एकड़ जमीन नदी में समा गयी है। मिट्टी के कटाव से शेष बचे खेत भी नदी में समाहित होने के कगार पर हैं। झारखंड सरकार हमारी जमीन बचाये।

जहां 20-30 वर्ष पहले तक जिन किसानों के पास 40 एकड़ तक जमीन थी। नदी के कटाव के कारण आज उनके पास महज चार से पांच एकड़ जमीन ही रह गयी है। क्षेत्र के शत-प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं।

नदी के किनारे गांव होने के कारण सालों भर सब्जी की फसल होती है, जिनमें मुख्य रूप से करेला, बैंगन, लौकी, झींगा, खीरा, बरबटी, बादाम, मकई, कोहड़ा, फूलगोभी एवं बंदगोभी की खेती काफी अच्छी होती है। इसी से इनका जीविकोपार्जन होता है।

अगर झारखंड सरकार इनकी समस्याओं पर गंभीरता से पहल नहीं करती है तो जाहिर है यहां लोग बेरोजगारी की मार से नहीं बच पायेंगे और जीविकोपार्जन के लिए इन्हें भी दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ेगा।

(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author