यूपी: 4 साल से दाम नहीं बढ़े, ऊपर से बकाये की मार गन्ना किसानों पर पड़ रही है भारी

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बस्ती जिले (उत्तर प्रदेश) के अंतर्गत आने वाले हरैया तहसील के पिपरकाजी गांव के रहने वाले 55 वर्षीय किसान राम इंदर जी को उम्मीद थी कि इस साल तो कम से कम योगी सरकार गन्ने का रेट बढ़ाएगी, लेकिन हुआ ठीक उनकी उम्मीद के विपरीत। उनके मुताबिक चार साल से राज्य सरकार ने रत्ती भर रेट नहीं बढ़ाया है, जबकि गन्ना मूल्यवृद्धि का वादा योगी सरकार ने हर साल किया। वे कहते हैं, “मैं एक छोटा किसान हूं, मेरे लिए गन्ने की पैदावार कोई व्यवसाय नहीं बल्कि जीविकोपार्जन का जरिया है।

मेरे घर में छोटे-बड़े सब मिलाकर आठ सदस्य हैं। आर्थिक तंगी के कारण दोनों बेटों को ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं पाए, तो अब दोनों मिलकर एक छोटा सा ढाबा चला रहे हैं। उस पर भी पिछले एक साल से करोना का कहर जारी है, आमदनी सीमित हो गई है तो गन्ना बेचकर ही जो पैसा मिलता है उसी से घर का खर्चा निकलता है। यदि रेट बढ़ जाता तो कुछ तो आमदनी बढ़ जाती, पर इस साल भी निराशा ही हाथ लगी।” उन्होंने बताया कि रेट तो नहीं बढ़ा, उल्टे इस बार मिल मालिक प्रति क्विंटल गन्ने पर दो रुपये की कटौती कर रहे हैं। यानी गरीब किसान तो बेमौत मारा जा रहा है।

राम इंदर जी ठीक कहते हैं कि मूल्य न बढ़ने का सबसे ज्यादा ख़ामियाजा उनके जैसे छोटी जोत वाले गरीब किसानों को इस लिहाज से भुगतना पड़ रहा है कि जब गन्ना बिकता है और उससे जो पैसा आता है तो घर का सारा खर्चा उसी आमदनी से चलता है। चावल और आटा को छोड़कर सब कुछ बाज़ार से ही खरीदना पड़ता है। वे बताते हैं कि अब तो मिल मालिक मोटा गन्ना उगाने के लिए दबाव बना रहे हैं , क्यूंकि उससे ज्यादा चीनी निर्मित होती है, लेकिन कम पूंजी वाले किसानों के लिए मोटे गन्ने की पैदावार आसान नहीं है, क्योंकि मोटा गन्ना सूअरों का प्रिय आहार होता है।

तब ऐसे हालात में गन्ने को सूअरों और अन्य जानवरों से बचाने के लिए खेतों को जाली से घेरना पड़ेगा और लोहे की जालियां सस्ती तो आती नहीं हैं। तब अधिकांश पूंजी तो जाली खरीदने और लगाने में ही चली जाएगी तो साल भर का खर्चा चलेगा कैसे। किसान राम इंदर के बेटे नीरज कहते हैं कि इस समय 75 सौ रुपये क्विंटल जाली मिल रही है। यानी उनके जैसा गरीब किसान जब एक पर्ची गन्ना बेचेगा, तब जाकर कहीं एक बीघा खेत के लिए जाली आ पाएगी और एक बीघा को ही घेरने से तो काम चलेगा नहीं। उन सब खेतों को घेरना पड़ेगा जहां-जहां गन्ना लगाया गया हो।

वे हिसाब जोड़कर बताते हैं कि एक बीघा खेत में कम से कम दो क्विंटल जाली लगेगी, यानी पंद्रह हजार की लागत। तब अगर वे अपने पांच बीघा खेत में जाली लगवाएंगे तो गन्ना बेचने के बाद भी आखिर उनके पास कितना बचेगा। फिर साल भर गुजर-बसर कैसे होगी। नीरज के मुताबिक जाली बेचने का काम तो चीनी मिल भी करती हैं, लेकिन वहां लागत और ज्यादा है, क्योंकि मिल एक साल के लोन पर जाली उपलब्ध कराती हैं और गन्ना बेचने पर मिल उसी से पैसा काट लेती है।

लागत और मेहनत ज्यादा लेकिन मुनाफा कम और उस पर चार वर्षों से मूल्यवृद्धि न होना, गन्ना किसानों के प्रति सरकार की संवेदनहीनता ही दर्शाती है। समय पर गन्ना, चीनी मिल तो पहुंच जाता है, लेकिन पूंजी समय पर कभी नहीं मिलती। यानी कुछ क्विंटल का भुगतान कर मिल मालिक बाकी  यह कहकर रोक देती हैं कि जल्दी ही भुगतान कर दिया जाएगा, लेकिन दो-तीन साल बीत जाता है पर उनकी मेहनत की पूंजी उनके हाथ तक नहीं पहुंच पाती।

लखीमपुर खीरी जिले के पलिया तहसील के अंतर्गत आने वाले पटिहल गांव के किसान कमलेश कुमार राय ने बताया कि वे लगभग तीन सौ क्विंटल गन्ने की पैदावार कर लेते हैं, यदि कभी प्राकृतिक आपदा न आए तो पैदावार अच्छी-खासी हो जाती है, लेकिन जब बात आती है उसे बेचने की तो पूरी पैदावार का भुगतान कभी समय पर नहीं हो पाता है। पलिया कला चीनी मिल पर उनका एक लाख साठ हजार रुपये पिछले एक साल से बकाया है। उनके मुताबिक 144 करोड़ रुपये इस मिल पर किसानों का बकाया है, जिसका भुगतान कब होगा कुछ पता नहीं। बावजूद इसके किसान गन्ना पैदा कर रहा है क्योंकि दूसरे अनाजों की खरीद-बिक्री का तो और बुरा हाल है।

वे कहते हैं कि एक तरफ मिल मालिकों का शोषण तो दूसरी ओर राज्य सरकार द्वारा गन्ना किसानों की अनदेखी किसानों के लिए विकट समस्या पैदा कर रही है। कमलेश जी बताते हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कई बार इस इलाके में दौरा हुआ और उतनी ही बार उन्होंने गन्ना किसानों के बकाया भुगतान का संज्ञान भी लिया, लेकिन जैसे वे दौरा करके चले जाते हैं वैसे ही बातें और वादे भी वहीं खत्म जाते हैं। उनके मुताबिक कई बार किसानों द्वारा बकाया भुगतान को लेकर आंदोलन भी हुए, लेकिन उसका भी कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला।

सीतापुर जिले के हरगांव ब्लॉक के तहत आने वाले पिपराघूरी गांव के गन्ना किसान अर्जुन लाल जी कहते हैं, “गन्ने की खेती भी अब किसानों के लिए बहुत फायदेमंद नहीं रही, लागत मूल्य तक नहीं निकाल पाता और उस पर राज्य सरकार चार साल से मूल्यवृद्धि तक नहीं कर रही। उनके मुताबिक गन्ने की खेती करने का मकसद केवल इतना है कि इसमें गन्ना बेचने पर नकद पूंजी हाथ में आ जाती है, भले कुछ बकाया रह जाए और बिचौलिए वाला कोई सिस्टम नहीं होता, यानी खेत से काटकर गन्ने को किसान सीधे चीनी मिल पहुंचा देता है, लेकिन यह समझा जाए कि गन्ना किसान बहुत फायदे में है तो ऐसा नहीं है, क्योंकि जितनी उसकी मेहनत और लागत होती है उतनी उसकी भरपाई नहीं हो पाती।

उन्होंने बताया कि जिन इलाकों में चीनी मिल पूरे सीजन चलती है, वहां का किसान तो फिर भी ज्यादा गन्ने की खेती कर रहा है, क्योंकि मिलें पांच-छह महीना खुली ही रहती हैं, लेकिन जहां चीनी मिलें सीजन में मात्र दो-तीन महीने ही खुली रहती हैं, वहां का गन्ना किसान तो चाह कर भी ज्यादा गन्ने की पैदावार नहीं कर पाता। अगर ज्यादा गन्ना उगा भी दिया तो बेचेंगे आखिर कहां? यह भी एक बड़ी समस्या है।

वे कहते हैं जिन किसानों के पास कई एकड़ जमीन है यानी जो बड़ी जोत वाले किसान हैं वे तो गन्ने के अलावा अन्य फसलों की भरपूर पैदावार कर और उन्हें बेचकर अपने आर्थिक पक्ष को मजबूत कर सकते हैं, लेकिन उन छोटे किसानों का क्या जिनकी जमीन परिवार का पेट पालने भर तक का ही अनाज पैदा करती है। ऐसे में उन्हें नकदी के लिए गन्ने की खेती पर ही निर्भर रहना पड़ता है, लेकिन उस पर भी न मूल्य वृद्धि होती है न पैसा ही समय पर मिल पाता है और जहां चीनी मिलें सीमित समय के लिए ही खुली रहती हैं, वहां तो गन्ना किसानों के हालात और बुरे हैं क्योंकि ज्यादा गन्ना उगाने का कोई लाभ उन्हें नहीं मिल पाता।

कई गन्ना किसानों से बात करने पर पता चला कि मूल्य वृद्धि न होने के कारण इस साल तो मिल मालिक पर्ची पर कोई रेट भी नहीं लिख रहे हैं। किसानों को जो पर्ची मिल रही है उसमें जीरो लिखा हुआ है। किसान भी नहीं जान पा रहा है कि जो गन्ना वे मिल तक ले जाएगा उसका उसे कितना दाम मिलेगा। तब ऐसे में मिल मालिकों द्वारा मनमाना भाव तय करना स्वाभाविक ही है।  चार साल से गन्ना का रेट न बढ़ना, पर्ची पर जीरो लिखा होना और चीनी मिलों पर किसानों का करोड़ों बकाया होना जैसे मुद्दे किसान आंदोलन में भी अपनी जगह बनाए हुए हैं।

उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक राज्य है। भारत में कुल 520 चीनी मिलों में 119 तो अकेले उत्तर प्रदेश में ही हैं। यूं तो राज्य की मौजूदा सरकार अपने शुरुआती कार्यकाल से ही गन्ना किसानों को हर संभव राहत देने की बात करती रही है, उनके हित में कारगर कदम उठाने का दावा करती रही है, लेकिन जब किसान अपनी बात कहते हैं तो कहीं से नहीं लगता कि वे पूरी तरह से सरकारी दावों से संतुष्ट हैं। वे साफ कहते हैं कि जितना उनके पक्ष में किया जाना चाहिए सरकार उस स्तर तक पहुंच ही नहीं पा रही है।

राज्य में योगी सरकार बनने के बाद वर्ष 2017 में गन्ने के न्यूनतम समर्थन मूल्य में दस रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की गई थी, जिसमें सामान्य प्रजाति के गन्ने का मूल्य 315 और खास क्वालिटी के गन्ने का मूल्य 325 रुपये प्रति क्विंटल निर्धारित किया गया था, जबकि गन्ना किसानों की मांग 400 रुपये प्रति क्विंटल है। किसान कहते हैं कि पैदावार की लागत बढ़ रही है, महंगाई बढ़ रही है, लेकिन गन्ने का भाव नहीं बढ़ रहा है।

पेराई सत्र समाप्ति की ओर है, लेकिन गन्ना किसान को कोई राहत मिलती नहीं दिख रह है। किसान अब पूरी तरह से आंदोलन का रास्ता अपनाने के मूड में हैं। अगले साल राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं तो ज़ाहिर है कि सरकार कोई जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। इसी के मद्देनजर सरकार की ओर से कभी गन्ना किसानों को राहत पैकेज देने की बात कही जा रही है तो कभी उन चीनी मिलों पर सख्त कार्रवाई करने की बात कही जा रही है, जिन पर किसानों का हजारों करोड़ बकाया है।

गन्ने का राज्य समर्थित मूल्य यानी एसएपी तय होने से पहले गन्ना आयुक्त और मुख्य सचिव की अध्यक्षता में चीनी मिल और किसान प्रतिनिधियों के मध्य होने वाली बैठक भी लगभग तीन महीने पहले ही हो चुकी है, जिसमें किसान प्रतिनिधियों ने अपना पक्ष रखते हुए साफ कहा था कि गन्ना उत्पादन की लागत 352 रुपये प्रति क्विंटल आ रही है और मिलता है लागत मूल्य से कम, इसलिए उन्होंने 400 रुपये प्रति क्विंटल भुगतान की मांग रखी है। वहीं मिल मालिक शुगर इंडस्ट्री घाटे में चलने की बात कहकर दाम न बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। किसान कहते हैं कि सरकार उनकी सुनने के बजाए पूजीपतियों की सुन रही है, इसलिए मूल्यवृद्धि का कदम नहीं उठा रही है। वे साफ कहते हैं कि जब सरकार उनकी नहीं सुनेगी तो आंदोलन ही एकमात्र रास्ता बचता है।

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