भागलपुर। बिहार के भागलपुर स्थित चकरामी गांव के रहने वाले शत्रुघ्न लगभग पिछले 25 साल से हैदराबाद में रह रहे है। उन्हें याद नहीं है कि उन्होंने अंतिम वक्त कब मतदान किया था। शत्रुघ्न बताते हैं कि “वोट देकर लोकतंत्र में राजा बनाना किसे पसंद नहीं है। यहां से बिहार जाना एक संघर्ष से कम नहीं है। 2 महीना पहले तो टिकट बुकिंग होता है। फिर घर का भी नुकसान है। मैं अपने परिवार के लिए आजीविका कमाने के लिए संघर्ष कर रहा हूं और हर दिन 10-12 घंटे कड़ी मेहनत करने के बाद किसी तरह जीवित रह रहा हूं। मेरे लिए वोट देना अब ख्वाब रह गया है।”
सुपौल जिला के बीना पंचायत स्थित मुसहर टोली के मुखिया सदा के घर में 12 वोटर हैं। लेकिन वोट इस बार सिर्फ सात लोग दे रहे हैं। मुखिया सदा की पत्नी लीला देवी बताती हैं कि घर में चारों पुरुष पंजाब कमाने गए हैं। अभी गेहूं कटनी चल रहा है। बिहार में मजदूरों के लिए गेहूं कटनी के वक्त अच्छी कमाई हो जाती है। इस वजह से पूरे टोला में कम से कम 100 से ज्यादा पुरुष पंजाब गए हुए हैं।
बीना पंचायत स्थित मुसहर टोली जैसी स्थिति बिहार के तमाम गांव में देखने को मिलेगी। इस सबके बीच चुनाव में लगातार कम होती वोटिंग के बारे में लोगों के विभिन्न मत हैं। कुछ लोग इसे सत्ता विरोधी लहर का परिणाम मानते हैं, जबकि कुछ इसे विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं में उत्साह की कमी का नतीजा मानते हैं। लेकिन पलायन के बारे में कोई बात नहीं कर रहा है।
तीसरे चरण में कोसी इलाका में चुनाव हो रहा है। यह इलाका पलायन के लिए सबसे ज्यादा बदनाम है। इस इलाके में बाढ़ और भूमिहीनता की वजह से निर्धनों की बड़ी आबादी रहती है। इस इलाके के खेतिहर मजदूरों का बड़ा हिस्सा रेल गाड़ियों और बसों पर सवार होकर पंजाब और हरियाणा की तरफ निकल गया है। वहां गेहूं की कटनी और फसल तैयार करने का सीजन है और मजदूरों की बड़ी मांग है।
ऐसे में वोटिंग का आंकड़ा भी जाहिर सी बात है काफी कम होगा। इस मसले पर पिछले दिनों सहरसा से चलने वाली पलायन एक्सप्रेस के नाम से चर्चित जनसेवा, जन साधारण और वैशाली एक्सप्रेस में चुनाव के दौरान बोगी भर-भर के लोग जा रहे हैं।
सहरसा के रोशन झा बताते हैं कि “कोशी की यही सच्चाई है। सहरसा से खुलती इन ट्रेन में से आप मनीऑर्डर इकोनॉमी को समझ पाएंगे। लोग बाग अपने पेट भरने तथा दो पैसे के जुगाड़ में किस तरह मुरही, सतुआ, ठेकुआ बांधकर लंबे सफर पर निकल पड़े हैं कि उन्हें वोट से कोई मतलब नहीं है। दुखद बात यह है कि यहां के राजनेताओं के एजेंडे में आज भी पलायन कोई मुद्दा नहीं है।”
बिहार में हुए पहले चरण के चुनाव में भी मतदान प्रतिशत बहुत कम था। इसके बाद भारत निर्वाचन आयोग ने विशेष पहल की। बूथ स्तर पर बीएलओ से लेकर मतदाताओं को मतदान के लिए प्रोत्साहित करने वाले अन्य कर्मियों को आयोग प्रोत्साहन राशि की सुविधा दी। जीविका दीदी, आशा एवं अन्य कर्मियों को भी इसका लाभ देने का वादा किया गया। साथ ही प्रत्येक बूथ पर 85 वर्ष से अधिक उम्र के मतदाताओं को बूथ तक पहुंचाने के लिए वाहन की सुविधा भी उपलब्ध कराने के निर्देश दिए गए हैं। इसके बावजूद द्वितीय चरण में वोटिंग प्रतिशत कम रहा है। हालांकि पहले चरण की अपेक्षा इस चरण में वोटिंग प्रतिशत में इजाफा हुआ है।
बिहार में छात्रों के मुद्दे पर काम कर रहे अंशु अनुराग बताते हैं कि “जब व्यक्ति ही नहीं है तो वोटिंग प्रतिशत में इजाफा कैसे होगा? कई राज्यों में वोटिंग प्रतिशत कम रहा है। सबका अलग-अलग कारण हो सकता है। बिहार का मुख्य कारण बेरोजगारी और पलायन है।”
सुपौल के रीतेश बताते हैं कि “कोशी का क्षेत्र अकुशल मज़दूरों का अड्डा बन गया है। ट्रेंड और स्किल्ड लेबर फोर्स नहीं है इसलिए उनके अंदर काम करने की भावना भी नहीं है। माइंडसेट ऐसा बन चुका है कि वे बाहर ही काम करना पसंद करते है और जिले में काम करने को छोटा समझने लगे हैं। जो बाहर नहीं गया है उसे बाहर ले जाने के लिए तमाम शक्तियां लगी रहती है जिसमें ब्रोकर, इनफ्लुअंसर से लेकर गांव-गांव में सब्जबाग दिखाने वाले सभी मौजूद हैं।”
वहीं रितेश चुनाव की तारीख पर सवाल उठाते हुए बताते हैं कि “अप्रैल से जून तक भीषण गर्मी होती है। तापमान 42 से 46 डिग्री सेल्सियस प्रायः रहती है और इस समय आम चुनाव होना ही गलत है। चुनाव का सही समय फरवरी से मार्च होना चाहिए, इन समय में मजदूर भी बाहर नहीं जाते। लेकिन चुनाव आयोग को आम जनता की तकलीफों से कोई मतलब नहीं है। इसलिए मतदान तो कम होगा ही।”
बिहार के नामचीन ब्लॉगर और प्रोफेसर रंजन ऋतुराज बताते हैं कि “मनरेगा योजना में बिहार की ग़रीबी के बावजूद बिहार से ढाई गुना ज़्यादा मदद तमिलनाडु को पिछले पांच सालों से मिल रहा है। तमिलनाडु की प्रति व्यक्ति आय भी बिहार से साढ़े चार गुना ज़्यादा है। उसके बावजूद तमिलनाडु को बिहार जैसे गरीब राज्य जहां रोज़गार एक बहुत बड़ी समस्या है से ज़्यादा धन मुहैया कराया जा रहा है। जबकि तमिलनाडु की जनसंख्या भी बिहार से कम है। बिहार में चुनाव मछली और नारंगी पर हो रहा है। पूरे बिहार के चुनाव में उद्योग कहीं भी कोई मुद्दा नहीं है। राजनीतिज्ञ की वजह से हमारे लिए पलायन एकमात्र सत्य है।”
रंजन ऋतुराज बताते हैं कि “90 के दशक से पहले मुजफ्फरपुर के बेला इंडस्ट्रियल बेल्ट में छोटे उद्योग की शुरुआत हुई थी। लेकिन सिर्फ 4 साल में बर्बाद हो गया। फतुहा में विजय सुपर स्कूटर तो पटना से 80 किलोमीटर दूर मढ़ौरा में ‘मॉर्टन’ चॉकलेट की कंपनी थी। रोहतास जिले का डालमिया नगर 90 से पहले शक्कर, कागज, वनस्पति तेल, सीमेंट, रसायन और एस्बेसटस उद्योग के लिए विख्यात था। आजादी से पहले तो बिहार में 33 चीनी मिलें हुआ करती थीं लेकिन आज अधिकांश उद्योग अपने अस्तित्व की तलाश में है या खत्म हो चुकी है। बिहार देश के कुल चीनी उत्पादन में 40 फीसदी का योगदान करता था। अब यह घटकर बमुश्किल 4% रह गया है। जब तक यह मुद्दा नहीं बनेगा तब तक पलायन बिहार का नासूर बना रहेगा।”
(बिहार से राहुल की रिपोर्ट)
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