Wednesday, April 24, 2024

आधी आबादी के खिलाफ योगी सरकार का एजेंडा लागू, नियमों को ताख पर रखकर लिए जा रहे फैसले

हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने दो शासनादेश जारी किए हैं। इसमें पहला है आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को 62 वर्ष में सेवा खत्म करने और सामान्य काम में भी चूक होने पर सेवा समाप्त कर देने का आदेश। दूसरा 181 आशा ज्योति वूमेन हेल्पलाइन का 112 पुलिस हेल्पलाइन में विलय कर दिया गया है। आइए तथ्यों की रोशनी में इसे देखा जाए कि कैसे ये शासनादेश महिलाओं को नुकसान पहुंचाने वाला है।

निर्भया कांड के बाद बनी न्यायमूर्ति जेएस वर्मा कमेटी की संस्तुतियों और घरेलू हिंसा कानून के ध्येय को पूरा करने के लिए भारत सरकार के सार्वभौमिकरण महिला हेल्पलाइन योजना में वर्ष 2016 में उत्तर प्रदेश के 11 जनपदों आगरा, बरेली, इलाहाबाद, गाजियाबाद, गाजीपुर, गोरखपुर, कन्नौज, कानपुर नगर, लखनऊ, मेरठ, वाराणसी में 181 रानी लक्ष्मीबाई आशा ज्योति केंद्र की स्थापना की गई थी।

इसे 8 मार्च 2016 को महिला दिवस के अवसर पर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने शुरू किया था। इसमें लखनऊ में 6 सीटर कॉल सेंटर बनाया गया और जनपदों में घरेलू हिंसा समेत अन्य तमाम किस्म के उत्पीड़न की स्थानीय स्तर पर जाकर मदद करने की योजना फोन नंबर 181 से महिलाओं को उपलब्ध कराई गई।

जब योगी की सरकार आई तो 2017 में इसे 100 दिन काम की महत्वकांक्षी योजना में लिया गया और प्रदेश के अन्य 64 जिलों में भी इसे लागू करने की घोषणा की गई। 24 जून 2017 को मुख्यमंत्री ने खुद हरी झंडी दिखा कर इस योजना को शुरू किया। इस योजना के क्रियान्वयन के लिए 27 अक्टूबर 2017 को प्रमुख सचिव महिला कल्याण ने बाकायदा शासनादेश द्वारा इसका प्रोटोकाल निर्धारित किया। इसमें विस्तार से इस योजना की आवश्यकता, उद्देश्य, संचालन, लक्षित समूह, हस्तक्षेप का क्षेत्र और इसके कर्मचारियों की नियुक्ति और सेवा से पृथक करने की व्यवस्था का निर्धारण किया गया।

सरकार ने 181 महिला हेल्पलाइन के लिए नारा दिया ‘नंबर एक समाधान अनेक’। सरकार ने 24 जुलाई 2018 को जारी शासनादेश में खुद माना कि अप्रैल, 2017 से अब तक 2.55 लाख टेलिफोन काल्स प्राप्त हुई थीं। इसमें से 16 हजार महिलाओं को रेस्क्यू कर सहायता उपलब्ध कराई गई है। आन स्पॉट काउसिंलिंग के माध्यम से 1.20 लाख महिलाओं की समस्याओं का निराकरण कराया गया।

अपर मुख्य सचिव महिला कल्याण से जारी इस आदेश में इसमें कार्यरत महिलाओं के बेहतर कार्य के कारण 181 महिला हेल्पलाइन एवं रेस्क्यू वैन का प्रचार बड़े-बड़े मोटे अक्षरों में हर स्कूल, कॉलेज, सरकारी कार्यालय, थानों, ब्लाकों, तहसीलों, सीओ, एसडीएम, डीएम, एसपी कार्यालयों, बस स्टॉप, रेलवे स्टेशन, पंचायत भवनों, बारात घरों, प्राइवेट अस्पतालों, शापिंग माल, सिनेमा हाल आदि पर कराने का निर्देश दिया गया।

प्रचार करने के बाद सरकार ने किया क्या एक बानगी इसकी भी देखिए। इस महिला हेल्पलाइन को दो मद में पहला रानी लक्ष्मी बाई आशा ज्योति केंद्र के मद में पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2019-20 में पांच करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। यह रुपये खर्च नहीं किए गए। इस वित्तीय वर्ष में महज 20 लाख रुपये दिए गए हैं। वहीं बजट में आंवटित दूसरे मद संख्या 0204 महिला हेल्पलाइन में पिछले वित्तीय वर्ष 2019-20 में 25 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। इसे भी खर्च नहीं किया गया। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस बार बजट में इसे महज एक हजार रुपये दिए गए हैं।

परिणामस्वरूप 351 कर्मचारियों, जिनमें सभी महिलाएं हैं उनको वेतन नहीं मिला। उसमें से एक कानपुर निवासी उन्नाव की कर्मचारी आयुषी सिंह ने चार जुलाई 2020 को ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या कर ली।

अब सरकार ने इसका 112 पुलिस हेल्पलाइन में विलय कर दिया। जो विधि के अनुरूप नहीं है। जिस योजना को सरकार ने दरेलू हिंसा अधिनियम के तहत अंगीकृत किया हो और जिसके लिए प्रोटोकाल बनाया हो। उसे खुद उस प्रोटोकाल का उल्लंघन कर और बिना विधानसभा से पारित किए महज कैबिनेट बैठक के जरिए सरकार खत्म नहीं कर सकती।

दरअसल सरकार इसे जानती है कि वह जो कर रही है वह विधि के विरूद्ध है। शायद यही वजह है कि उसने 181 वूमेन हेल्पलाइन के सम्बंध में सभी महत्वपूर्ण शासनादेश सरकारी वेबसाइट से हटा दिए हैं। सरकार का तर्क है कि महिला सशक्तिकरण की एक जैसी कई योजनाएं चल रही हैं, इसलिए सबको मिलाकर एक में किया जाए।

सच्चाई इससे दूर है सच यह है कि 112 और 181 दो अलग-अलग प्रकृति और स्वरूप की योजना है। इन्हें एक में मिला देने से आम उत्पीड़ित महिलाओं को भारी नुकसान होगा। 181 सिर्फ महिलाओं के लिए हेल्पलाइन योजना है। इसमें सीधे महिलाओं द्वारा कार्रवाई की जाती है। वे रेसक्यु करके महिलाओं को सुरक्षित करती हैं और महिला द्वारा ही उत्पीड़न से बचाने की कार्रवाई के कारण उत्पीड़ित महिलाएं इस प्रक्रिया में ज्यादा सहज महसूस करती हैं।

पुलिस द्वारा संचालित 112 के साथ यह नहीं है। एक तो यह मात्र महिलाओं के लिए नहीं है। यह सारे अपराधों के लिए सामान्य योजना है और दूसरा पुलिस का चरित्र और कार्यशैली क्या है इसके बारे हमें बताने की जरूरत नहीं है।

सिर्फ एक उदाहरण ही काफी होगा कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं पर हिंसा के मामले में उत्तर प्रदेश सर्वोच्च स्थान रखता है। इसलिए 181 को यदि उत्तर प्रदेश सरकार बंद करती है तो यह न सिर्फ इसमें काम न करने वाली महिलाओं बल्कि प्रदेश की हर उत्पीड़ित महिला पर गहरा आघात होगा। 

इसी प्रकार देश में गर्भवती, धात्री, किशोरी बालिकाओं और छह साल से कम उम्र के बच्चों के कुपोषण को खत्म करने, उन्हें शिक्षित करने के लिए बाल सेवा एवं पुष्टाहार विभाग से आंगनबाड़ी योजना 1975 से चलाई जा रही है। इसमें प्रदेश में तीन लाख से ज्यादा आंगनबाड़ी कार्यकत्री और सहायिकाएं और मुख्य सेविकाएं हैं जो सभी महिलाएं हैं।

कुपोषण दूर करने की इस योजना में काम करने वाली आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों की स्थिति बेहद नाजुक है। इस सरकार में उन्हें बंधुआ मजदूर बना दिया गया है। बिना बीमा सुरक्षा, मास्क, सेनिटाइजर के उन्हें कोरोना महामारी की जांच में लगा दिया गया है। यह जानते हुए कि आंगनबाड़ी स्वास्थ्य सेवा में प्रशिक्षित नहीं हैं। उनसे कोविड के पॉजिटिव मरीजों तक के घर जाकर परिवार के हर सदस्य की स्वास्थ्य जांच कराई जा रही है।

परिणाम यह है कि उन्नाव की आंगनबाड़ी कामिनी निगम तो कोरोना के कार्य के कारण शहीद हो गईं और काफी जद्दोजहद के बाद ही जिला प्रशासन ने उनके परिवारजनों को 50 लाख का मुआवजा दिया। बहरहाल कोविड़-19 के लिए भारत सरकार द्वारा कल जारी हुई गाइडलाइन अनलाक 3 में गर्भवती, धात्री और 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को अतिसंवेदनशील समूह माना गया है और आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों का काम इन्हीं के बीच में है। ऐसी स्थिति में अगर एक भी आंगनबाड़ी कार्यकत्री संक्रमित हो गई तो वह इस सारे अति संवेदनशील समूह को प्रभावित कर देगी इसके उदाहरण भी कई जिलों से आने लगे हैं।

आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों पर नया शासनादेश तो वज्रपात से कम नहीं है। इस शासनादेश के अनुसार 62 साल से ज्यादा उम्र की आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को बिना पेंशन, ग्रेच्युटी और सवैतनिक अवकाश का पैसा दिए तत्काल प्रभाव से सेवा से पृथक कर दिया गया है। कार्यरत महिलाओं को डाटा फीड न करने और अपने कार्यक्षेत्र में निवास न करने पर सेवा से पृथक करने का आदेश दिया गया है।

इस शासनादेश में जिस नियुक्ति संबंधी 2012 के शासनादेश का हवाला देकर कार्रवाई की गई है उसे 7 जनवरी 2013 को ही इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ की सर्विस बेंच ने खारिज कर दिया है। इसके बाद 2013 में खुद संशोधित शासनादेश जिसे सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया है उसमें आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों की उम्र 65 वर्ष निर्धारित की है।

सबसे बड़ा सवाल है कि जिस आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों की चयन प्रक्रिया सम्बंधी शासनादेश 2012 के आधार पर छंटनी की जा रही है, उस पर कानून के जानकारों का मत है कि उसकी शर्ते 2012 के बाद नियुक्त की गई कार्यकत्रियों पर लागू होंगी और पूर्व में नियोजित कार्यकत्रियों पर इसे लागू करना विधि सम्मत नहीं है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक स्पेशल अपील में सरकार ने 16 दिसंबर 2003 और 23 मई 2007 को निर्धारित चयन प्रक्रिया में चयनित आंगनबाड़ी कार्यकत्री और सहायिकाओं के सम्बंध में शपथ पत्र में कहा है कि आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों के कार्य की कोई उम्र सीमा नहीं है और 60 वर्ष पूरा होने के बाद भी आगंनबाड़ी कर्मचारियों और सहायिकाओं को उनके पद से हटाया नहीं जाएगा। यदि वह शारीरिक रूप से काम करने में अक्षम हैं तो उन्हें कारण बताओ नोटिस देकर ही सेवा से पृथक किया जाएगा।

यह बातें इस रिट में हाईकोर्ट की तीन सदस्यी बेंच द्वारा 28 मई 2010 को दिए आदेश तक में उल्लेखित है। यह भी कि निदेशक, बाल विकास सेवा एवं पुष्टाहार, उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा दिनांक 20 फरवरी 2013 को जारी आदेश में कहा गया कि आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों और सहायिकाओं को सेवा से पृथक कर देना कठोरतम दंड है। अतएव यदि किसी आंगनबाड़ी कार्यकत्री और सहायिका द्वारा की गई अनियमितता गंभीर प्रवृत्ति की है। इसके आधार पर उसे सेवा से पृथक करना अनिवार्य हो तो ऐसा करने से पूर्व उन्हें सुनवाई का अवसर प्रदान करते हुए उसके पक्ष को भी सुनने के उपरांत जिलाधिकारी का अनुमोदन प्राप्त कर अंतिम निर्णय लिया जाना उचित और नैसर्गिक न्याय के अनुरूप होगा।

इसी आदेश के अंत में कहा गया कि इस सम्बंध में निदेशालय स्तर से पूर्व में निर्गत सभी आदेश एतदद्वारा निरस्त किए जाते है। इसका भी पालन नए शासनादेश में नहीं किया गया है।

हद यह है कि संवैधानिक रूप से अनुच्छेद 43 के तहत राज्य का यह कर्तव्य है कि वह हर नागरिक के जीवन की रक्षा करे और कर्मकारों के शिष्ट जीवन स्तर, निर्वाह मजदूरी, काम की दशाएं आदि का प्रयास करे। हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने अपने आदेश दिनांक सात जनवरी 2013 में सरकार को आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों की सेवा शर्तों की नियमावली बनाने के लिए कहा है।

आज तक नियमावली नहीं बनाई गई है। संविधान और हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना करते हुए बिना नियमावली के पूरे जीवन आंगनबाड़ी कार्यकत्री और सहायिकाओं से काम कराया जा रहा है। अब सेवानिवृत्त कर उन्हें उनकी समाज सेवा के बदले खाली हाथ घर बैठा दिया जा रहा है।

इसी प्रकार महिलाओं को आत्मनिर्भर, सशक्त बनाने, सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए 1989 से चल रही महिला समाख्या योजना को बंद करने के अखबारों में लगातार बयान आ रहे हैं। जबकि हाईकोर्ट के आदेश के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत बकायदा अधिसूचना जारी करके महिला समाख्या को शिक्षा विभाग से समाज कल्याण विभाग में समाहित किया।

यहीं नहीं बाल संरक्षण अधिनियम 2015 के तहत भी महिला समाख्या को जिम्मेदारी दी गई। इन जिम्मेदारियों के बाद महिला और बाल संरक्षण के लिए दुर्लभ ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर महिला समाख्या की कार्यकत्रियों ने कार्य किया और सरकार की योजनाओं को क्रियान्वित किया। अब एक झटके में इन सबको काम से निकाल बाहर कर दिया गया और उत्पीड़न की इंतेहा यह है कि उन्हें डेढ़ साल से वेतन भी नहीं दिया गया।

दरअसल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दर्शन पर चलने वाली भारतीय जनता पार्टी की मोदी और योगी सरकार पूरी अर्थव्यवस्था को देशी-विदेशी पूंजी घरानों के लाभ के लिए पुर्नसंयोजित कर रही है। इस पुर्नसंयोजन में मजदूर वर्ग की बड़ी तबाही होगी और उसमें भी महिला श्रमिकों को तो और भी बुरी स्थितियों से गुजरना होगा। वैसे भी आरएसएस अपनी वैचारिकी में महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक बना देना चाहती है।

इनके वैचारिक केंद्र विनायक दामोदार सावरकर हिन्दुत्व पर लिखी अपनी किताब में हिंदू की परिभाषा में कहते हैं कि हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक सम्पूर्ण भारत वर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता हो। स्पष्ट है कि वह एक पितृसत्तात्मक समाज बनाना चाहते हैं जहां महिलाओं का स्थान सिर्फ और सिर्फ दोयम दर्जे के नागरिक का ही होगा।

यह हमला राजनीतिक है और इसका जवाब ट्रेड यूनियन के अर्थवादी आंदोलन में नहीं है। इसलिए इसका राजनीतिक प्रतिवाद वक्त की जरूरत है। महिलाओं को अपनी नागरिकता, समानता, सम्मान और अधिकार के लिए काम करते हुए एक जन राजनीति को बनाने में भूमिका लेनी होगी और उसका नेतृत्व करना होगा।

(लेखक वर्कर्स फ्रंट के अध्यक्ष हैं।)

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