डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति पद संभालने में अभी दस दिन और बाकी हैं। इस बीच अंतरराष्ट्रीय मामलों में उनकी घोषणाओं ने दुनिया के एक बड़े हिस्से, खासकर अमेरिका के सहयोगी देशों में हलचल मचा दी है। वैसे, तो राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप के पहले कार्यकाल में ही साफ हो गया था कि वे जब ‘अमेरिका फर्स्ट’ कहते हैं, तो उस क्रम में वे सहयोगी या प्रतिस्पर्धी देशों के बीच ज्यादा फर्क नहीं करते।
इस बार चूंकि वे अधिक बड़े जनादेश और शासक वर्ग के ज्यादा समर्थन से ह्वाइट हाउस में लौट रहे हैं, तो स्वाभाविक है कि उनकी घोषणाओं की धार अधिक तीखी है।
ट्रंप ने इस बार के चुनाव अभियान के दौरान ही ये साफ कर दिया था कि राष्ट्रपति बनने पर अमेरिका में होने वाले आयात पर वे अधिक शुल्क लगाएंगे।
चीन को अमेरिका का पूरा शासक-तंत्र अपना प्रमुख प्रतिद्वंद्वी मानता है, इसलिए ट्रंप ने उसकी सामग्रियों पर 60 फीसदी तक शुल्क लगाने का इरादा जताया था।
लेकिन इस क्रम में उन्होंने जर्मनी एवं अन्य यूरोपीय सहयोगी देशों या भारत जैसे ‘दोस्त’ देश को भी नहीं बख्शा है।
राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद उन्होंने जिन देशों पर शुल्क लगाने का सबसे पहले एलान किया, वे कनाडा और मेक्सिको हैं। दोनों से होने वाले आयात पर 25 फीसदी शुल्क लगाने की घोषणा उन्होंने की है।
चीन की सामग्रियों पर शुल्क बढ़ाने का एलान भी उन्होंने किया है। भारत और यूरोपीय देशों पर कितना नया शुल्क लगाएंगे, यह तो उन्होंने नहीं बताया है, मगर भारत के सिलसिले में यह जरूर कहा है कि भारत जितना अमेरिकी वस्तुओं पर आयात शुल्क लगाता है, उसे उसने नहीं हटाया, तो उतना ही शुल्क उसकी वस्तुओं पर अमेरिका में भी लगाया जाएगा।
ट्रंप आयात शुल्क (टैरिफ) को अमेरिका की कमजोर पड़ी अर्थव्यवस्था को संभालने का सबसे कारगर तरीका मानते हैं। चूंकि उनके एजेंडे में धनी लोगों पर इनकम और अन्य टैक्स घटाना भी शामिल है, तो उससे राजकोष को होने वाली क्षति की भरपाई वे आयात शुल्क बढ़ा कर करेंगे, यह उनकी सोच है।
एक सोशल मीडिया पोस्ट में उन्होंने दावा किया कि अमेरिका तभी महान था, जब वहां ऊंची दर से आयात शुल्क लगते थे। बहरहाल, आज के भूमंडलीकृत सप्लाई चेन पर निर्भर अर्थव्यवस्था में, जब अमेरिका अपनी उत्पादक क्षमता गंवा चुका है, ऐसी नीति का अमेरिका के आम उपभोक्ताओं पर क्या असर होगा, अरबपति ट्रंप की सोच के दायरे से यह बाहर है।
वैसे, ट्रंप की जीत की बनती संभावनाओं के साथ टैरिफ से आने वाली चुनौती को लेकर दुनिया पहले से तैयार हो रही थी। इसलिए टैरिफ संबंधी उनकी घोषणाओं से हलचल ज्यादा नहीं मची। हलचल उनके खुले विस्तारवादी एजेंडे से मची है। इस क्रम में उनकी चार घोषणाएं और उन पर हुईं प्रतिक्रियाएं निम्नलिखित हैः
- ट्रंप ने कनाडा से कहा है कि वह अमेरिका का 51वां राज्य बन जाए। इस सिलसिले में उन्होंने सोशल मीडिया पर एक नक्शा भी जारी किया, जिसमें उन्होंने दिखाया कि जब कनाडा अमेरिका में शामिल हो जाएगा, तो मानचित्र पर अमेरिका कैसा दिखेगा। कनाडा को मिलाने के लिए उन्होंने सैनिक विकल्प अपनाने से तो इनकार किया है, लेकिन साफ कहा है कि इसके लिए वे आर्थिक दबाव बनाएंगे।
- लाजिमी है, कनाडा में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई है। प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो और अगले संभावित प्रधानमंत्री पियरे पॉइलीव्रे ने कनाडा के अमेरिका में शामिल होने की संभावना को दो टूक ठुकरा दिया है। उधर कनाडा के कुछ दूसरे राजनेताओं ने उलटे कैलिफॉर्निया, वॉशिंगटन डीसी और ऑरेगॉन जैसे अमेरिकी राज्यों को ऑफर किया है कि जनमत संग्रह करवा कर कनाडा में शामिल हो जाएं और वहां मौजूद मुफ्त यूनिवर्सिल हेल्थ केयर की सुविधा का लाभ उठाएं।
- ट्रंप ने दूसरा मोर्चा पनामा के खिलाफ खोला है। पनामा मध्य अमेरिका का संप्रभु देश है, जिसकी आबादी तकरीबन साढ़े चार लाख है। जब पूरे अमेरिका महाद्वीप को संयुक्त राज्य अमेरिका अपना उपनिवेश समझता था, तब उसने अटलांटिक महासागर को प्रशांत महासागर से जोड़ने वाले समुद्री इलाके पर नियंत्रण कायम कर लिया था। तब अमेरिका ने वहां पनामा नहर का निर्माण किया। बाद में हुई एक संधि के तहत अमेरिका ने 1999 में पनामा नहर को पनामा को सौंप दिया। अब ट्रंप ने उस पर फिर से कब्जा जमाने का इरादा जताया है। इसके लिए उन्होंने सेना के इस्तेमाल की संभावना से इनकार नहीं किया है।
- पनामा ने नहर लौटाने की संभावना से इनकार किया है। मगर अमेरिका ने 1980 के दशक की तरह वहां फिर सैनिक हमला किया, तो पनामा उसका मुकाबला कैसे करेगा? इसलिए पनामा नहर पर अमेरिकी कब्जे की संभावना वास्तविक है।
- ट्रंप ने कहा है कि वे मेक्सिको की खाड़ी (Gulf of Mexico) का नाम बदल कर Gulf of America कर देंगे। इसके तुरंत बाद उनकी समर्थक सांसद मारजोरी ग्रीन टेलर ने अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में इस संबंध में विधेयक पेश करने की घोषणा भी कर दी है।
- इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए मेक्सिको की राष्ट्रपति क्लाउडिया शिनबॉम ने एक वीडियो जारी कर उसमें कई अमेरिकी राज्यों को नक्शे में दिखाते हुए पूछा कि इस क्षेत्र का नाम अमेरिका मेक्सिकाना कर दिया जाए, तो कैसा रहेगा! गौरतलब है कि अमेरिका ने 1846-48 में मेक्सिको से हुए युद्ध के दौरान कैलिफॉर्निया, नेवाडा, उटाह, एरिजोना, न्यू मेक्सिको, टेक्सस, कोलोराडो के कुछ हिस्सों, कंसास के कुछ हिस्सों, ओखलाहोमा के कुछ हिस्सों और वायोमिंग के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। उसके पहले ये सारे इलाके मेक्सिको का हिस्सा थे।
- वैसे ट्रंप की जिस घोषणा ने अमेरिका के सहयोगी देशों में सबसे ज्यादा हलचल मचाई है, वह ग्रीनलैंड को अमेरिका में मिला लेने का एलान है। ग्रीनलैंड आर्कटिक क्षेत्र में डेनमार्क का स्वशासी इलाका है। ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में ग्रीनलैंड को खरीदने की पेशकश डेनमार्क के सामने रखी थी। ग्रीनलैंड को सुरक्षा के लिहाज से अमेरिका अपने लिए महत्त्वपूर्ण मानता है। साथ ही वहां तेल-गैस और महत्त्वपूर्ण खनिजों का समृद्ध भंडार है। ट्रंप का मानना है कि रूस और चीन ने हाल के दशकों में आर्कटिक पर अपनी काफी पैठ बना ली है, इसलिए ग्रीनलैंड का अमेरिकी स्वामित्व में आना जरूरी है। इसलिए उन्होंने वहां सेना के इस्तेमाल की संभावना से भी इनकार नहीं किया है।
- डेनमार्क ने उसे ठुकरा दिया था। इस बार भी डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने कहा है कि ग्रीनलैंड को अमेरिका को सौंपे जाने की कोई गुंजाइश नहीं है। ग्रीनलैंड स्वशासी क्षेत्र के प्रधानमंत्री ने भी इस संभावना से इनकार किया है।
- बहरहाल, इस प्रकरण से नाटो के सहयोगी देशों के प्रति अमेरिका के नजरिए को लेकर यूरोप में नाराजगी फैली है। डेनमार्क नाटो के संस्थापक सदस्यों में शामिल है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने तो अब यूरोप की अपनी अलग सेना बनाने का प्रस्ताव रख दिया है। उधर जर्मनी के चांसलर ओलोफ शोल्ज ने कहा है कि किसी देश को किसी अन्य देश की संप्रभुता का उल्लंघन करने को अधिकार नहीं है, भले वो देश छोटा हो या बड़ा। यूरोपीय नेताओं ने सवाल उठाया है कि डेनमार्क के खिलाफ अमेरिका सैनिक हमले को भी तैयार है, तो फिर रूस के यूक्रेन पर हमले के विरोध का क्या तर्क रह जाता है?
ट्रंप ने संकेत दिया है कि उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के प्रति अमेरिकी वचनबद्धता पर वे कायम रहें, यह जरूरी नहीं है। उन्होंने कहा है कि अगर नाटो के सदस्य देश अपने जीडीपी का कम से कम पांच प्रतिशत हिस्सा सुरक्षा पर खर्च के लिए तैयार नहीं होते हैं, तो अमेरिका उनकी रक्षा नहीं करेगा। यह मुद्दा ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में भी उठाया था। इसलिए नाटो के सदस्य देश ट्रंप की ताजा घोषणाओं को गंभीरता से रहे हैं।
तो कुल सूरत यह है कि ट्रंप ने हलचल खड़ी कर दी है। ग्लोबल साउथ के नजरिए से इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि पश्चिम के साम्राज्यवादी खेमे में फूट पड़ती दिख रही है। इस खेमे में जैसी आशंकाएं आज देखी जा रही हैं, वैसा गुजरे दशकों में कभी नहीं देखा गया। इसका क्या परिणाम होगा, कहना कठिन है।
मगर यह साफ है कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में गहराए आर्थिक संकट एवं दुनिया पर उनकी कमजोर होती पकड़ ने उनकी आपसी सद्भावना को भंग कर दिया है।
लेकिन यह भी अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि अमेरिकी शासक वर्ग अधिक आक्रामक रूप में है और वह इसका खुल कर इजहार भी कर रहा है। अमेरिका की विनाशक क्षमता आज भी कम नहीं हुई है। इसलिए यह दुनिया के लिए चिंता की बात जरूर है।
वैसे, इन मुद्दों को उछाल कर ट्रंप ने घरेलू राजनीति में एक मकसद साध लिया है। उनके चुनाव जीतने के बाद अमेरिका में एच-1बी वीजा को लेकर उनके समर्थकों में विवाद खड़ा हो गया। एच-1बी वीजा के तहत तकनीक में माहिर कर्मी अमेरिका लाए जाते हैं। इसका सबसे ज्यादा लाभ भारत के तकनीक कर्मियों को मिलता है।
ट्रंप ने चुनाव में प्रमुख मुद्दा आव्रजकों का बनाया था। उस दौरान आव्रजकों को लेकर नफरत के अभियान चलाए गए। इससे श्वेत चरमपंथियों का एक बड़ा तबका तैयार हआ, जो हर हाल में विदेशी लोगों को अमेरिका से निकालना चाहता है। जबकि ट्रंप के अरबपति एवं अन्य पूंजीपति समर्थकों के लिए आव्रजक लाभ का सौदा हैं।
आव्रजक मूल अमेरिकियों की तुलना में कम तनख्वाह पर काम करते हैं। बात सिर्फ एच-1बी वीजा धारक आव्रजकों की नहीं है। अवैध आव्रजक भी कंपनियों के लिए पैसा बचाने का स्रोत हैं। इसलिए वे आव्रजन पर नरम रुख चाहते हैं। एच-1बी वीजा का समर्थन तो दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति और ट्रंप समर्थक इलॉन मस्क ने भी किया।
उससे मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (मागा) के नारे से गोलबंद हुए ट्रंप के समर्थक भड़क गए। उन्होंने एच-1बी वीजा धारक लोगों को वायरस बता कर उनके एक तरह से सामाजिक बहिष्कार की मुहिम छेड़ दी। अंत में मस्क को अपना रुख नरम करना पड़ा।
समर्थकों में ये विभाजन ट्रंप के लिए चिंता की बात है। फिलहाल, उन्होंने कनाडा, पनामा नहर, मेक्सिको की खाड़ी और ग्रीनलैंड के मुद्दे उठा कर अपने समर्थकों का ध्यान एक हद तक भटका दिया है। अब इन तबकों में उन देशों या इलाकों पर कब्जा करने की उग्र राष्ट्रवादी भावनाओं का प्रवाह हो रहा है। मगर इससे ट्रंप के समर्थक वर्गों के अंतर्विरोध दूर हो जाना आसान नहीं है। उलटे उग्र राष्ट्रवाद की भावनाएं अगले ट्रंप प्रशासन पर एक नए दबाव का काम कर सकती हैं।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)