तवलीन सिंह का मोदी मॉडल और जातिवादी चिंतनः एक खतरनाक मनोवृत्ति

इंडियन एक्सप्रेस का रविवारीय अंक संडे एक्सप्रेस के नाम से आता है। इसमें तवलीन सिंह ‘फिफ्थ कॉलम’ शीर्षक में अपनी वैचारिकी पेश करती हैं। वह पत्रकार रही हैं और आज भी इस मोर्चे पर सक्रियता चिंतन के आधार पर दिखाती हैं। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और पत्रकारों और समाज के उच्च वर्गां में चिंतन के स्तर पर हस्तक्षेप भी किया है। मोदी के उभार और पाकिस्तान के प्रति आक्रामक रुख अखित्यार करने में उनकी बौद्धिक सक्रियता उनके लेखों और पुस्तकों में दिखती रही है।

लेकिन, जैसे जैसे मोदी का राज हकीकत में बदला उनकी मोदी राज से नाराजगी बढ़ी। 2020 में ‘मसीहा मोदी?’ प्रकाशित हुई। यह पुस्तक मोदी राज और खुद मोदी की आलोचना करने वाली पुस्तक थी। इससे अधिक यह पुस्तक उस बेचैनी को दिखा रही थी, जिसमें उनका अपना ‘मोदी मॉडल’ टूट रहा था। इसी पुस्तक के संदर्भ में 17 फरवरी, 2020 को उनका करन थापर के साथ साक्षात्कार ‘द वायर’ के यूट्यूब चैनल पर प्रसारित हुआ।

इस प्रसारित साक्षात्कार का टैग लाइन था- ‘मैं कह सकती हूं मुस्लिम-विरोध मोदी के डीएनए में है।’ इस साक्षात्कार में उन्होंने यह भी बताया कि मोदी उनके आलोचनात्मक रुख से नाराज हैं। लेकिन, इस साक्षात्कार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा वह है जिसमें करन थापर ने मोदी मॉडल में मुसलमानों की अवस्थिति के बारे में एक प्रश्नवाचक टिप्पणी की- ‘क्या सचमुच इस बारे में आपको जानकारी नहीं थी?’ करन थापर ने यह सवाल अरुण शौरी से भी एक अन्य साक्षात्कार में किया था, जिसमें वह बता रहे थे कि उन्हें मोदी मॉडल का यह रूप होगा, अनुमान नहीं था।

उपरोक्त साक्षात्कार में निश्चित ही तवलीन सिंह ने अपनी पुस्तक का संदर्भ देते हुए एक तीखी आलोचना को रखा था। लेकिन, ऐसा लगता है कि उनकी चिंता मोदी के मसीहा बनने को लेकर अधिक थी। उन्हें दरअसल ‘कल्ट’ से अधिक दिक्कत थी। इस कल्ट के संदर्भ में जैसे जैसे राहुल गांधी का उभार हुआ वैसे वैसे उनकी चिंता गांधी परिवार के भारतीय राजनीति में वापसी को लेकर दिखने लगी।

राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को लेकर उनका आलोचनात्मक रुख उनके फिफ्थ कॉलम में लगातार दिखा। वह कांग्रेस से और राहुल गांधी से भी किसी मॉडल की मांग नहीं कर रही थीं, वह उनकी कार्यशैली और राजनीतिक नारों को लेकर अपनी आलोचना रख रही थीं। इस मामले में वह मोदी मॉडल की तरीफ करने वाले उन पूर्ववर्ती बुद्धिजीवियों से अलग हैं जो अब मोदी मॉडल से निकलकर राहुल गांधी में एक सेक्युलर मॉडल की तलाश में लग गये गये हैं। इसमें आशुतोष वार्ष्णेय का नाम जरूर लिया जाना चाहिए।

तवलीन सिंह का मोदी मॉडल बेहद स्पष्ट था। उनके विकास के मॉडल में मोदी का नेतृत्व धर्म के प्रयोग के संदर्भ में ज्यादा मुखर और स्पष्ट दिखता है। आशुतोष वार्ष्णेय जैसे बुद्धिजीवियों को यह लगता रहा है कि भारत में ‘विकास’ सेक्यूलर रास्ते को और चौड़ा करेगा। संभव है इस चिंतन की गफलत उन्हें मोदी के विकास के समर्थन तक ले गई। हालांकि ऐतिहासिक संदर्भ में देखा जाये तो भारतीय विकास का ब्राह्मणवादी वर्चस्व और हिंदुत्व का विकास साथ साथ आगे बढते हुए दिखता है।

ब्राह्मणवादी वर्चस्व जातिगत उत्पीड़न और भूमि व संस्थानों पर सवर्ण समुदायों द्वारा एकाधिकार बनाने में और हिंदुत्व का विकास धार्मिक संस्थानों का प्रभाव बढ़ने और अल्पसंख्यक समुदाय का राजनीतिक-आर्थिक दायरे से बहिष्करण की प्रक्रिया में देखा जा सकता है।

तवलीन सिंह को भारत के इस विकास के मॉडल में अधिक दिक्कत कांग्रेस द्वारा नियोजित ‘सिखों के संहार’ को लेकर जरूर रहा है। और, साथ ही नेहरू परिवार के भारतीय राजनीति में बढ़ते वर्चस्व को लेकर भी रहा है। लेकिन, उनकी चिंतन प्रक्रिया में ये दिक्कतें उस समय बढ़ती गईं जब उन्हें लगने लगा कि ‘मनमोहन सिंह सरकार’ गांधी परिवार की वजह से दलदल में फंस रही है। तब उनकी चिंता में विकास के सेक्युलर सिद्धांत के मोदी मॉडल में बदलते देर नहीं लगी।

इस चिंतन की दिशा में वह जाने वाली पहली बुद्धिजीवी नहीं थीं। ऐसे बुद्धिजीवियों का मौलिक चिंतन जब सेक्युलरिल्म को परिभाषित करने की ओर जाता है, तब उसमें से पहली बाधा जाति दिखती है। उसे ब्राह्मणवाद नहीं दिखता है। वह जाति को ऊपर से नहीं देखते। इसीलिए जब वह जातिवाद को परिभाषित करना शुरू करते हैं तब इसकी शुरूआत वह कभी भी जाति के ऊपर के सोपानक्रम में नहीं करते। वह इसकी व्याख्या नीचे से करते हैं।

इस पद्धति को अपनाने में धुर दक्षिणपंथियों के साथ साथ बहुत उदारवादी और प्रगतिशील माने जाने वाले बुद्धिजीवियों ने भी अग्रिम भूमिका का निर्वाह किया। इसमें कहा जा सकता है कि प्रगतिशीलों की मंशा गलत नहीं थी। निश्चित ही इस बात को माना जा सकता है। लेकिन, मंशा से पद्धति से उपजने वाली समस्या राजनीतिक चिंतन को एक ऐसी जगह पहुंचाती है, जिसे ठीक करना एक व्यक्तिगत मसला हो जाता है, जबकि इसका प्रभाव सामाजिक होता है और वह एक ठोस रूप अख्तियार कर लेता है।

भारत के कई सारे ऐसे प्रगतिशील संगठन हैं जो इन पद्धतियों को अपनाकर काम कर रहे हैं और दलित आंदोलन को भारतीय समाज के लिए खतरनाक प्रवृत्ति की तरह चिन्हित करते हैं। ऐसे संगठन यह काम बेहद सक्रियता के साथ करते हैं।

तवलीन सिंह ने भी भारतीय राजनीति में जाति की अवधारणा को ठीक इसी नजरिये से देखा। उनके ‘द संडे एक्सप्रेस’ में दो लेख ‘टाइम टू इंड रिजर्वेशन्स’ और ‘अ कास्ट सेंसस इज कास्टिज्म’ इसी पद्धति का नमूना हैं। वह जातिवाद को ऊपर से नहीं देखतीं, वह इसे नीचे से देखती हैं। उन्हें भाजपा द्वारा किये जा रहे सोशल इंजीनियरिंग में जातिवाद नहीं दिखता है। उन्हें मोदी द्वारा खुद को ओबीसी का प्रतिनिधि बताना राजनीति का ऐसा बिंदु लगता है जहां जातियां पर्याप्त गौरव हासिल कर ली हैं और अब इस आधार पर कोई भी आरक्षण और राजनीति करना उपयुक्त नहीं लगता।

उन्हीं के शब्दों में- “कोई भी जो थोड़ा भी ग्रामीण भारत को जानता है ये ‘पिछड़ी जातियां’ अब पिछड़ी नहीं रहीं, वे हिंदी क्षेत्र में अब ऊपर आ गये हैं। प्रधानमंत्री खुद ओबीसी होने पर गर्व करते हैं। मोदी ने अपने चुनावी भाषण में ये सब जो कहा उसी ने मुझे प्रेरित किया कि यह लेख मैं लिखूं (टाइम टू इंड रिजर्वेशन)।” जब मोदी को ओबीसी होने पर गर्व हो रहा है तब राहुल गांधी द्वारा जाति जनगणना निश्चित ही एक प्रतिक्रियावादी रुख साबित होगा।

यहां तवलीन सिंह मोदी के एक और बयान को भूल गईं जिसमें वह जाति को जाति की संरचना में नहीं आर्थिक और लैंगिक संरचना में देखने वाला बयान दिया जिसे पढ़कर बहुत सारे धुर कम्युनिस्ट भी माथा पीट लें। वह इस तथ्य को भी नजरअंदाज कर गईं कि जाति जनगणना ही नहीं जाति के आधार पर बिहार में नीतीश सरकार के प्रस्तावों और फैसलों को भाजपा ने बिना शर्त समर्थन भी दिया है।

राजनीति में सैद्धांतिक असंगतता एक सामान्य बात है। इसे कम्युनिस्ट विचारधारा में अंतर्विरोधों का सिद्धांत कहा जाता है जो ऐतिहासिक भौतिकवादी द्वंदवाद के रास्ते हल होता है। लेकिन, भारतीय राजनीति में, जिसमें बुद्धिजीवियों की एक बड़ी जमात इन असंगतताओं का हल सुझाती रहती है, किसी पद्धति को अपनाने के बजाय या तो अवसरवाद का सहारा लेती है या भारतीय समाज की ब्राह्मणवादी वर्चस्वादी प्राकृतिक चिंतन के सहारे व्यवहारिक निष्कर्षों तक पहुंचती रहती है।

ऐसा लगता है कि तवलीन सिंह पहले के साथ साथ इस दूसरे चिंतन को भी अच्छे से समझती हैं। इसीलिए तो वह लिखती हैं- “इसके पहले कि ऊपरी हिंदू लोग अपने लिए आरक्षण की मांग उठाने लगें, नौकरियों, स्कूलों और कॉलेजों में सभी तरह के आरक्षणों को खत्म करने का समय आ गया है।”

उपरोक्त चिंतन पद्धति को लेकर उनके ऊपर ब्राह्मणवादी होने का आरोप न लगे, इसका वह ख्याल भी रखती हैं। वह अपने बारे में बताती हैं- “मुझ पर अंतिम आरोप ने तकलीफ पहुंचाया क्योंकि मैं एक सिक्ख परिवार में पली बढ़ी हूं जहां यह सिखाया गया है कि जातिवाद और अस्पृश्यता सिक्खवाद के मौलिक चिंतन के खिलाफ है (अ कास्ट सेंसस इज कास्टिज्म)।”

संभवतः यह बात वह भूल रही हैं कि पंजाब में जातिगत उत्पीड़न का इतिहास अपनी निरन्तरता के साथ आज भी बना हुआ है और भूमि के सवाल के साथ यह बेहद खराब तरीके से खुद को अभिव्यक्त करता है। इसकी अभिव्यक्ति खुद धार्मिक संरचना में भी साफ दिखती है। बहरहाल, परिवार के पालन पोषण से जातिवादी ब्राह्मणवादी चिंतन हल नहीं होता।

भारत में मुलसमानों का आगमन और यहां की मिट्टी में रच बस जाने के साथ उनका समानतावादी चिंतन ब्राह्मणवादी चिंतन में समा गया और जाति की संरचना में विभाजित हो गया। यह महज धर्म की चिंतन प्रणाली ही नहीं है, यह एक आर्थिक संरचना भी है जो खुद को सांस्कृतिक और दार्शनिक चिंतन प्रणालियों से लगातार मजबूत करती रहती है और इस निरन्तरता का बनाये रखती है।

तवलीन सिंह की समस्या सिर्फ चिंतनगत समस्या ही नहीं हैं, उनका अपनाया हुआ वह मोदी मॉडल भी है जिसमें भारत की आर्थिक विकास की धारा के साथ साथ समाज का बनना भी है। वह समाज को आज के मोदीवादी विकास की धारा के अनुरूप चाहती हैं। वह इसमें जाति जनगणना का हस्तक्षेप भी नहीं चाहती। जातियों की संरचना के आधार पर भारतीय समाज तो दूर की बात, महज पढ़ाई, सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी को लेकर ही वो आक्रामक रुख अपनाने लग रही हैं।

यह विडम्बना ही है कि इसी भारतीय राजनीति और समाज की अन्य संरचना में मुसलमानों के हाशियाकरण का तथ्य सामने दिख रहा है, उसे न देखना यह दिखाता है कि यह चिंतन हजारों साल से चल रहे जातिगत भेदभाव को कत्तई नहीं देख सकता। यह अपने हितों में इस कदर मशगूल है जिसमें अन्य सिर्फ उसके हितों के पूर्तिकर्ता हैं। यह जाति का घोर ब्राह्मणवादी चिंतन है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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