सुप्रीम कोर्ट के न्यायपूर्ण और विवेकसम्मत फैसले पर गोदी मीडिया और सरकार समर्थकों की बौखलाहट  

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वक्फ़ बिल पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अगुआई में गठित बेंच, जिसमें न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन शामिल हैं, ने कल से जारी सुनवाई पर आख़िरकार अंतरिम आदेश दे दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल कोई अंतिम फैसला नहीं सुनाया है, लेकिन फिलहाल संशोधित वक्फ़ बिल पर अस्थायी रोक के फैसले से ही जहां अमनपसंद लोकतांत्रिक भारत राहत की सांस ले रहा है, और इसके लिए चीफ जस्टिस संजीव खन्ना सहित अगले माह नियुक्त होने जा रहे नए चीफ जस्टिस के प्रति गहरी उम्मीद लगाना शुरु कर रहा है, तो दूसरी तरफ दक्षिणपंथी हिंदुत्वादी शक्तियों और बीजेपी सरकार के लिए कोर्ट का फैसला अहम को चुनौती देने वाला जान पड़ रहा है।

याद कीजिये, फैसले की सुनवाई से ठीक पहले केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू का वह बयान, जिसमें उन्होंने कहा था, “मुझे भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामले में दखल नहीं देगा, हमें एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। अगर कल सरकार न्यायपालिका के मामले में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा।” 

इस बयान के क्या मायने निकाले जा सकते हैं? एक केंद्र सरकार का मंत्री, जो वक्फ़ बोर्ड का भी सर्वेसर्वा है, को सर्वोच्च न्यायालय को धमकाने की जरूरत आखिर क्यों पड़ रही है? लेकिन इसके बावजूद यदि सर्वोच्च न्यायालय को बिल में कई ऐसी खामियां नजर आ रही हैं, जिसे नजरअंदाज कर पाना किसी भी विवेकवान व्यक्ति के लिए कहीं से भी संभव नहीं, तो क्या उसे भारत के संविधान को ताक पर रखकर संसद के बहुमत के मान की फ़िक्र करनी चाहिए? 

अब जब अंतरिम फैसला आ चुका है तो भाजपा के आईटी सेल से लेकर समूचा गोदी मीडिया इस फैसले के खिलाफ कहर बनकर टूट पड़ा है। उनके तर्कों को सबसे बड़ा सहारा देने का काम कोई और नहीं इस देश के उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति, जगदीप धनखड़ करते नजर आ रहे हैं।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ कहते हैं, “हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते, जहाँ आप भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें और वो भी किस आधार पर? संविधान के तहत आपके पास एकमात्र अधिकार अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करना है। इसके लिए पाँच या उससे ज्यादा न्यायाधीश होने चाहिए। जब अनुच्छेद 145(3) था, तब सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या आठ थी, 8 में से 5, अब 30 में से 5 और विषम। लेकिन भूल जाइए; जिन जजों ने वस्तुतः राष्ट्रपति को आदेश जारी किया और एक परिदृश्य प्रस्तुत किया कि यह देश का कानून होगा, वे संविधान की शक्ति को भूल गए हैं। अनुच्छेद 142 लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ़ एक न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है, जो न्यायपालिका के लिए चौबीसों घंटे उपलब्ध है।”

उप-राष्ट्रपति यहां पर राष्ट्रपति बनाम सर्वोच्च न्यायालय को मुद्दा बना रहे हैं। किसे नहीं पता कि संसद में पारित विधेयकों और मनी बिल, सभी पर राष्ट्रपति के दस्तखत और मुहर लगने के बाद वह देश का कानून बन जाता है। उप-राष्ट्रपति महोदय को यह बात विपक्षी राज्य सरकारों के द्वारा पारित विधेयकों के बारे में भी मजबूती से कहनी चाहिए थी, जिसे केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों द्वारा पिछले कई वर्षों से तमिलनाडू, केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल में लटका दिया जाता है? उप-राष्ट्रपति महोदय खुद इससे पहले पश्चिम बंगाल में यह कारनाम दिखा चुके हैं, इसलिए उन्हें कुछ बताना, सूरज को दिया दिखाने की हिमाकत होगी।

इसके जवाब में वरिष्ठ पत्रकार, शीतल पी सिंह ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा है, “लोकतंत्र में, संविधान आमतौर पर सर्वोच्च होता है। यह एक मूलभूत कानूनी दस्तावेज के रूप में कार्य करता है जो सरकार की संरचना, शक्तियों और सीमाओं के साथ-साथ नागरिकों के अधिकारों को रेखांकित करता है। सरकार का मुखिया, शक्तिशाली होने के साथ-साथ संविधान द्वारा निर्धारित ढांचे के भीतर काम करता है और इसकी बाधाओं के अधीन होता है, जिसे अक्सर न्यायिक समीक्षा या विधायी निरीक्षण जैसी जाँचों द्वारा लागू किया जाता है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में, संविधान सर्वोच्च कानून है, और राष्ट्रपति द्वारा किए गए कार्यों को चुनौती दी जा सकती है यदि वे इसका उल्लंघन करते हैं। हालाँकि, कमज़ोर संस्थानों वाले कुछ लोकतंत्रों में, सरकार का मुखिया संवैधानिक सीमाओं को कम करते हुए वास्तविक सर्वोच्चता का प्रयोग कर सकता है। संवैधानिक सर्वोच्चता की डिग्री लोकतांत्रिक संस्थानों की ताकत और कानून के शासन पर निर्भर करती है।”

लेकिन उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को अति नाटकीय और संविधान तथा लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर किये जाने के तौर पर दर्शा कर कहीं न कहीं राईट विंग ताकतों को उकसाने का काम कर रहे हैं। पीटीआई के मुताबिक उपराष्ट्रपति ने अपने वक्तव्य में कहा है, “भारत के राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च है। राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, सुरक्षा और बचाव की शपथ लेते हैं। यह शपथ केवल राष्ट्रपति और उनके द्वारा नियुक्त राज्यपाल के द्वारा ली जाती है। प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, मंत्री, सांसद, न्यायाधीश सभी संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं, लेकिन संविधान की रक्षा और उसे बरकरार रखने, संविधान की रक्षा करने की शपथ भारत के राष्ट्रपति के जिम्मे होती है, जो सशस्त्र बलों के सर्वोच्च कमांडर हैं। हाल ही में एक फैसले में राष्ट्रपति को निर्देश दिया गया है। ये हम कहां जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है? हमें बेहद संवेदनशील रहना चाहिए। यह कोई समीक्षा दायर करने या न करने का सवाल नहीं है। हमने इस दिन के लिए लोकतंत्र की कभी उम्मीद नहीं की थी।”

कम से कम उप-राष्ट्रपति पद पर आसीन होकर ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी को सामंजस्य से काम करना चाहिए, जिसका मकसद देश में न्यायपूर्ण, समतामूलक समाज की स्थापना होनी चाहिए, न कि किसी एक समाज को दबाने, अपमानित करने की। न्यायपालिका भी यदि संसद में पारित हा विधेयक को आँख मूँद कर मान ले, तो किसी भी बिल को क़ानूनी चुनौती देने की जरूरत को ही खत्म कर दें सरकार! आखिर इस देश में आपातकाल, 3 कृषि कानून, सीएए जैसे जन-विरोधी कानून संसद के संख्याबल के चलते ही अमल में आ सके थे, जिनपर तत्कालीन राष्ट्रपतियों ने मुहर लगाई थी? 

बहरहाल, मुद्दा यह है कि सर्वोच्च न्यायालय आज अपने अंतरिम फैसले में जिन कुछ अहम बातों को उठाया है, वे हैं: अगले फैसले तक वक्फ़ बोर्ड की संपत्तियां सुरक्षित रहेंगी, उन्हें डीनोटिफाई नहीं किया जायेगा, तथा वक्फ़ बोर्ड में फिलहाल कोई नहीं बहाली नहीं की जायेगी, वक्फ़ कानून के खिलाफ दायर सभी याचिकाओं को पांच अर्जियों में सम्मिलित कर लिया जाये, और अगले 7 दिनों में सरकार को वक्फ़ कानून पर अपना जवाब दाखिल करना होगा। 

अब इसके विपक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि वक्फ़ बिल पर संसद में विस्तार से चर्चा की जा चुकी थी। इतना ही नहीं बिल को पारित करने से पहले जेपीसी में भी भेजा गया था। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय को अड़ंगा नहीं लगाना चाहिए। सवाल ये है कि संसद में सत्ता पक्ष और विपक्ष की डिबेट तो पूरे देश ने देखी, लेकिन नतीजा क्या निकला?

सारी बहस बिल के पक्ष और विरोध में लंबी-लंबी तकरीरों में खत्म हो गया, लेकिन सरकार ने विपक्ष द्वारा उठाये गये कई महत्वपूर्ण मुद्दों को सिरे से नकार दिया। विपक्ष ही नहीं स्वयं एनडीए गठबंधन में शामिल जेडीयू, टीडीपी, लोजपा जैसे दलों को साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल कर बिल के पक्ष में मतदान के लिए राजी किया।

इसका दुष्परिणाम इन सभी राजनीतिक पार्टियों को सामने दिख रहा है। दूसरी ओर पूरे देश में 20 करोड़ मुस्लिम आबादी मोदी सरकार के सीएए कानून के बाद फिर से खुद को ठगा महसूस कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने बिना किसी लाग-लपेट के कुछ जरुरी सवाल सोलिसिटर जनरल, तुषार मेहता से कल किये थे, जिसका उनके पास कोई जवाब नहीं था। 

कोर्ट ने सवाल किया था कि वक्फ़ बिल की तरह कल क्या सरकार मंदिर या ट्रस्ट में भी मुस्लिम समुदाय को ट्रस्टी बनाने के लिए तैयार होगी? सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता लाजवाब थे, उन्हें एक ऐसे विधेयक के बचाव के लिए अपने तरकश में से ऐसे तर्क निकालने थे, जिसे किसी भी लोकतंत्र में उचित ठहरा पाना असंभव था। लिहाजा उनकी एक ही मांग थी कि, अदालत कोई आदेश जारी करने से पहले एक दिन की मोहलत दे दे। 

जिस सवाल का जवाब केंद्र की मोदी सरकार, लोकसभा और राज्यसभा की बहस के दौरान देश को देने से बचने में सफल रही, वही सवाल कोर्ट के सामने भी मुहँ बाए खड़ा था, जिसकी जवाबदेही संसद के बहुमत के प्रति नहीं बल्कि भारतीय संविधान के प्रति है। आखिर 1975 में आपातकाल लागू करने का फैसला भी तो इंदिरा गांधी ने सदन में बहुमत के बल पर ही लिया था? पिछले दिनों मौजूदा मोदी सरकार भी तो तीन कृषि कानून बहुमत के बल पर पारित करा पाने में सफल रही थी? सीएए/एनआरसी कानून की स्थिति आज क्या है? 

आज यदि सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ सवालों के साथ गेंद एक बार फिर से केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है, तो इसका अर्थ किसी को भी यह नहीं लगा लेना चाहिए कि मोदी सरकार या बहुमत का अपमान किया जा रहा। भारत जैसे उदार पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका ने बहुमत के बजाय न्यायपूर्ण दिखने पर जोर दिया है, और बहुसंख्यकवादी सोच रखने वाली सरकार को एक ऐसे बिल पर पुनर्विचार किये जाने की मांग की है, जिसके दुष्परिणाम हमारे आस-पड़ोस के मुल्कों के हालिया इतिहास में देखे जा सकते हैं, जिसके लिए न्यायपालिका साधुवाद की पात्र है। 

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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