अमेरिका की समृद्धि का महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि ‘अमेरिकी युद्धक कंपनियों का दुनिया भर के देशों में लगातार निर्यात से हुआ सुपर मुनाफ़ा।’ वास्तव में अमेरिकी लोगों की समृद्धि दुनिया भर के निरपराध लोगों के ख़ून से सनी हुई है।
1945 से लेकर 2001 तक संयुक्त राज्य अमेरिका (आगे अमेरिका) 200 से अधिक जंगों में शामिल रहा है और लगभग 80 देशों पर अमेरिका ने सीधे रूप में सैन्य कार्यवाही की है।
लोकतंत्र,शांति और आज़ादी के मीठे लफ़्ज़ों के पीछे अमेरिका अपने कुकर्म छिपाने की कोशिश करता रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि एशिया, लातिनी अमेरिका और अफ़्रीकी महाद्वीप पर अपने भद्दे और आर्थिक-राजनीतिक हितों के लिए सैन्य कार्यवाइयां करता रहा है।
अमेरिकी साम्राज्यवाद पिछले लंबे समय से विश्व स्तर पर जंगी और सैन्य मज़बूती के मामले में दुनिया में सबसे आगे रहा है।
2007 की सबप्राइम मंदी में अमेरिका को बेशक बड़े स्तर पर आर्थिक नुक़सान हुआ हो, पर उसका युद्ध उद्योग इस मौक़े पर भी मुनाफ़ा कमाता रहा, क्योंकि उस समय अमेरिका ने इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान पर मनमानी जंग थोपी हुई थी और इन हथियार कंपनियों के हथियार लगातार बिक रहे थे।
अब दो साल से चल रही रूस-यूक्रेन जंग भी इसी बात का पुख्ता सबूत है, जहां अमेरिका ने पिछले दो-तीन दशकों से पड़े हथियार खपा दिए गए और यूक्रेन को 170 अरब डॉलर की सैन्य “सहायता” राशि अब तक दे चुका है।
दुनिया के हथियारों का सबसे बड़ा जखीरा अमेरिका के पास है। दुनिया की दस सबसे बड़ी हथियार बनाने वाली कंपनियों में सात कंपनियां अमेरिका की हैं, जिनमें बोइंग,जनरल डाइनैमिक्स, लॉकहीड मार्टिन, यूनाइटेड टेक्नॉलोजीस, रेथिऑन, नॉर्थ्रोप गरुमन और एल. कम्यूनिकेशंस हैं।
जंगी सामान के अमेरिकी उद्योग का विस्तार दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुआ। दूसरे विश्व युद्ध में पश्चिमी यूरोप के बड़े मुल्क़, जर्मनी, इटली, फ़्रांस, इंग्लैंड आदि बुरी तरह तबाह हो गए। इस समय अमेरिका के पास एक मौक़ा था कि वो इस समय अपने जंगी साजो-सामान बनाने वाली कंपनियों को बढ़ाए और उसने ऐसा ही किया।
उस समय के अमेरिकी फ़ौजी कमांडर डव्हाइट इजेनहार की अगवाई में “सैन्य औद्योगिक कॉम्प्लेक्स” के निर्माण की योजना बनाई गई और 1953-61 के अपने राष्ट्रपति कार्यकाल में इस योजना को पूरा किया गया। अपने चरम पर जंगी सामान बनाने वाला उद्योग अमेरिका के कुल बिजली खपत का 52% तक खपत कर रहा था।
अमेरिका द्वारा अपने जंगी उद्योग को आगे बढ़ाने का दूसरा बड़ा कारण समाजवादी सोवियत यूनियन के साथ इसका मुक़ाबला भी था। अमेरिका पूरे विश्व में अपना दबदबा चाहता था, जिसके रास्ते में समाजवादी सोवियत यूनियन अड़चन था, जिसने अभी-अभी दूसरे विश्व युद्ध में हिटलर की नाजीवादी सेनाओं को करारी हार दी थी, और दुनिया-भर के शोषित लोगों की उसे हमदर्दी हासिल थी।
ऐसे में अमेरिका और उसके पार्टनर यानी पश्चिमी यूरोप के पूंजीवादी देश समाजवाद के विस्तार से डरते थे, इसलिए उन्होंने अमेरिका का पुरज़ोर समर्थन किया। अंत में नतीजा यह निकला, कि दुनिया के बाज़ार में अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का निर्यातक देश बन गया और हथियारों के रूप में दुनिया-भर में मानवता की मौत का सामान बेचने लगा।
तब अमेरिका की 500 से अधिक कंपनियों ने ‘सैन्य औद्योगिक कॉम्प्लेक्स’ के साथ गठबंधन किया हुआ था, जो दिखाता था कि अमेरिका के इजारेदार पूंजीपति किस तरह अमेरिका के साम्राज्यवादी प्रोजेक्ट में उसके साथ हैं। अमेरिकी पूंजीपतियों ने मुनाफ़ा कमाने के लिए बुरी तरह तबाह हुए यूरोप के पुनर्निर्माण का ज़िम्मा लिया।
अमेरिका में 1940-49 तक औद्योगिक पैदावार में 90% वृद्धि हुई,जिसमें अकेले जंगी सामान के उत्पादन में 60% की वृद्धि हुई। 1929 के आर्थिक संकट का शिकार अमेरिकी अर्थव्यवस्था को दूसरे विश्वयुद्ध ने जीवनदान दे दिया। घाटे की शिकार कंपनियां जंगी सामान बनाने के लिए मैदान में कूदीं और मोटा मुनाफ़ा कमाया।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने लगभग दस खरब डॉलर का ख़र्च जंगी उद्योग पर और हथियार बनाने वाली कंपनियों पर किया है। हथियार बनाने वाली कंपनियों की दोनों बड़ी पार्टियों-रिपब्लिकन और डेमोक्रैट- को भारी चंदे देती हैं और आगे जाकर ये नेता अमेरिका की संसद में इन कंपनियों को हथियार बनाने के ठेके देते हैं।
अगर अमेरिका के जंगी सामान की बात करें, तो 2014 में विश्व स्तर पर हुए कुल निर्यात में 34% हथियार अमेरिका से निर्यात किए गए। यह आंकड़ा 2023 में बढ़कर 42% हो गया। हथियार बेचने के मामले में इसके बाद फ़्रांस और रूस का क्रमवार दूसरा और तीसरा नंबर आता है।
अमेरिकी अगुवाई वाले साम्राज्यवादी धड़े में शामिल पश्चिमी यूरोप के कई मुल्क़ों में आर्थिक मंदी के बादल मंडरा रहे हैं, पर इसके बावजूद ये मुल्क़ हथियारों पर ख़र्च लगातार बढ़ा रहे हैं। यूरोज़ोन क्षेत्र का 2023 का सैन्य बजट पिछले साल से 16% बढ़कर 588 अरब डॉलर हो गया है।
यूरोज़ोन क्षेत्र में 2014 में हथियारों के कुल आयात का 55% अमेरिका से ही ख़रीदा था और यह आंकड़ा 2023 में बढ़कर 94% हो गया है यानी अमेरिका के हथियार उद्योग पर इन मुल्क़ों की निर्भरता और बढ़ गई है। पूरा यूरोज़ोन क्षेत्र लगभग स्थिरता का शिकार है और इसके बड़े मुल्क़ों की आर्थिक विकास दर 0-1% के बीच ही रही है।
जर्मनी तो पिछले साल मंदी की चपेट में भी आ गया था, पर इसके बावजूद भी यूरोज़ोन क्षेत्र की सरकारें लोगों के टैक्स का पैसा हथियारों पर ख़र्च कर रही हैं। सरकार क़र्ज़ विस्तार की नीतियों द्वारा बड़े स्तर पर क़र्ज़ लेकर जंगी उद्योग में झोंक रही हैं।
इस समय अमेरिका की दर्जनों हथियार बनाने वाली कंपनियों की सालाना आमदनी अफ़्रीकी महाद्वीप के दर्जनों मुल्क़ों से भी ज़्यादा है।
साल 2022 में अमेरिका की सात बड़ी कंपनियों, बोइंग (33 अरब डॉलर), जनरल डाइनैमिक्स (26 अरब डॉलर), लॉकहीड मार्टिन (59 अरब डॉलर), यूनाइटेड टेक्नॉलोजीस (29 अरब डॉलर), रेथिऑन (41 अरब डॉलर), नॉर्थ्रोप गरुमन (35 अरब डॉलर) और एल कम्यूनिकेशंस (13 अरब डॉलर) ने कारोबार किया।
राजनीति अर्थशास्त्र का घना इज़हार होती है। यही कारण है कि इन कंपनियों का अमेरिकी राजनीति में दबदबा है। यह सारा जंगी औद्योगिक ढांचा चाहता है कि दुनिया-भर में युद्ध चलते रहें, इनके हथियार बिकते रहें और लोगों की लाशों के ढेर पर इनके मुनाफ़े बढ़ते रहें।
ये बड़ी कंपनियां पर्यावरण, शांति और लोकतंत्र का शोर-शराबा मचाने वाली दर्जनों ग़ैर-सरकारी संस्थानों को करोड़ों के फ़ंड भी देती हैं, ताकि जब ये साम्राज्यवादी अपने हथियारों की खपत करें, तो ऐसे संस्थान लोगों के ग़ुस्से को पानी के छींटे से ठंडा करें।
दूसरे देशों पर जंग थोपने का सबसे ज़्यादा फ़ायदा भी हथियार बनाने वाली कंपनियों को हुआ है। साल 2001-21 तक अफ़ग़ानिस्तान पर थोपी मनमानी जंग के दौरान अमेरिका ने बड़े स्तर पर पैसा लगाया और अमेरिका की हथियार बनाने वाली कंपनियों ने इस जंग से अंधा पैसा कमाया।
अब पिछले दो सालों से रूस-यूक्रेन जंग (असल में नाटो-रूस जंग) चल रही है, जिससे फिर से यही बड़े पूंजीपति ढेरों मुनाफ़ा कमा रहे हैं। बढ़ रहे अंतर-साम्राज्यवादी तनाव का नतीजा यह हुआ है कि दुनिया-भर की पूंजीवादी सरकारों ने हथियारों पर अपने ख़र्च बढ़ाए हैं।
साल 2023 में विश्व स्तर पर कुल 2443 अरब डॉलर का सैन्य ख़र्च हुआ,जो पिछले साल से 6 प्रतिशत ज़्यादा था। इसमें से अकेले अमेरिका ने इस साल सेना पर 916 अरब डॉलर ख़र्च किए हैं। यह दुनिया के कुल सैन्य ख़र्च का 40 प्रतिशत बनता है।
अमेरिकी अगुवाई वाले सैन्य गठजोड़ नाटो का साल 2023 में बजट 1341 अरब डॉलर रहा जिसमें 68% हिस्सा अकेले अमेरिका का है। सैन्य ख़र्च के मामले में दुनिया में दूसरा नंबर चीन का है, जिसने 2023 में 230 अरब डॉलर सैन्य बजट पर ख़र्च किए हैं।
इसके बाद रूस-भारत आदि मुल्क़ों का नंबर आता है। मध्य पूर्व के बड़े मुल्क़ों ने भी हथियारों पर इस साल 200 अरब डॉलर का बजट ख़र्च किया, जो साल 2022 से 9 प्रतिशत ज़्यादा है।
वास्तव में यह अमेरिका के हित में है कि दुनिया भर में छोटे-बड़े युद्ध और गृहयुद्ध चलते रहें, जिसके लिए अमेरिकी कंपनियां हथियार बेचकर अपना मुनाफ़ा कमाती रहें। आज ये कंपनियां इतनी शक्तिशाली हो गई हैं कि उन विरोधी सरकारों को; जो उनके हथियार खरीदने की विरोधी हैं, उनका सत्ता-पलट तक करवा देती हैं।
एशिया अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में ऐसे ढेरों उदाहरण मौजूद हैं।
(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक व पत्रकार हैं।)
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