मतदाताओं के सक्रिय मतदान से ही लोकतंत्र का भविष्य तय होता है

इन दिनों भारत में चुनाव का माहौल है। चुनाव का तीन चरण का मतदान संपन्न हो गया है। अभी चार चरण का मतदान बाकी है। तीसरे चरण का मतदान संपन्न होते-न-होते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी बौखलाहट में क्या-न-क्या बोल जाते हैं। उनकी बौखलाहट को हल्के में लेना बड़ी भूल होगी। जिन परिस्थितियों में उनका आना हुआ और जिन परिस्थितियों में उनका जाना अब लगभग तय लग रहा है उन परिस्थितियों को ऐतिहासिक क्रम-बद्धता में देखना अधिक जरूरी लगता है। मतदान प्रतिशत का संबंध इस ऐतिहासिक क्रम-बद्धता से कितना है, फिलहाल कहना मुश्किल है।

चुनाव प्रचार में जैसे विचार ही गायब हो गया है। विदा कर दिये गये विचार की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में लौटाना बहुत जरूरी है। ध्यान में होना ही चाहिए कि इस बीच कुछ महत्वपूर्ण शब्दों का इस्तेमाल लगभग अपशब्द की तरह ‎से ‎किया जाने लगा है। भारत के संदर्भ में लाभार्थी केंद्रित राजनीति से बाहर निकलकर इन शब्दों में से उदाहरण के लिए कुछ हैं: लोक-कल्याण की राजनीति, धर्म ‎‎निरपेक्ष, समाजवाद, वामपंथी, न्याय, मानवाधिकार, आदर्श आदि। इन शब्दों की ‎‎गहराई में गये बिना इन का इस्तेमाल घृणा, हिकारत, अ-प्रासंगिक, फालतू जैसी ‎‎भावनाओं पर सहमति के लिए बे-खटके किया जाने लगा है। हालांकि, इतिहास ‎‎जानता है, इन शब्दों के बहुत गहरे अर्थ हैं और इन शब्दों ने मानवता और सभ्यता ‎की ‎बहुत सेवा की है। निश्चित रूप से ऐसा करनेवालों का मिजाज सत्य और तथ्य ‎पर ‎आधारित किन्हीं वस्तु-निष्ठ प्रसंगों से नहीं, बल्कि भ्रम फैलानेवाले विश्वास ‎और ‎मनगढ़ंत आस्था पर आधारित बे-सिर-पैर की ‎‘उछाले’ गए आत्म-निष्ठ प्रसंगों ‎से ‎बनता है।

चुनाव तो चुनाव है, इसमें प्रचार का अपना प्रासंगिक महत्व होता है। वैसे भी रात-दिन ‎हमारे चारों ओर प्रचार का अटूट सिलसिला चलता रहता है। बाजार का तो प्रचार ‎प्राण और मुनाफा मोक्ष होता है। टीवी हो या नेट खोलते ही प्रचार का आक्रमण शुरू ‎हो जाता है। पैसा खर्चा करके कुछ हद तक इस आक्रमण से बचने का उपाय होता है। ‎कुल मिलाकर यह है कि प्रचार के प्रभाव से बचने के लिए गांठ ढीली करना जरूरी है। ‎ गांठ ढीली करना ही तो है वह काम जिस के चलते निरंतर प्रचार जारी रहता है।

विचार और प्रचार में फर्क होता है। क्या फर्क होता है? विचार उपस्थित प्रसंग के ‎संदर्भ में आगे-पीछे देख-परखकर, मीन-मेष में अंतर करते हुए बहुत कुछ गोपनीय ‎तरीके से बनता और बनाया जाता है। विचारक उसमें जरूरी होने पर परिवर्तन की ‎गुंजाइश रखते हुए उसे विचार के लिए प्रस्तुत कहता है। महान-से-महान विचार ‎अपने स्वभाव में अनंतिम प्रस्ताव ही होता है। इसलिए महान-से-महान‎ विचार में ‎भी बदलाव होता रहा है। अधिकतर मामलों में बदलाव विचार को विकसित करता है, ‎विकृत नहीं करता है। विकृत हो जाने के डर के बहाने से जरूरी बदलाव से इनकार ‎विचार को रूढ़ और कट्टर बनाकर नवाचार के निषेध तक पहुंचा देता है। नवाचार का ‎निषेध अच्छे-से-अच्छे विचार को विकृत और व्यवहार-बहिष्कृत कर देता है। ऐसा ‎इसलिए होता है कि बदलाव प्रकृति का अ-परिवर्तनशील नियम है। विचार में ‎आत्मीयकरण का, अपनाये जाना का उत्कृष्ट आग्रह तो‎ होता है। स्वीकार किये जाने के ‎लिए दिखावे का उत्कट प्रपंच नहीं होता है। ‎

प्रचार में प्रस्तुत सामग्री में किसी बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं होती है। बदलाव तो ‎बदलाव, प्रचार सामग्री किसी तरह के विचार के लिए कोई जगह नहीं देती है। प्रचार ‎की कोशिश होती है कि उसे आंख बंद करके, किंतु-परंतु किये बिना जस-का-तस का ‎अपना लिया जाये। स्वीकार कराने के लिए उत्कट दिखावे का निकृष्ट-से-निकृष्ट प्रपंच ‎करने से भी प्रचार को कोई परहेज नहीं होता है। किंतु-परंतु से प्रचार को बहुत चिढ़ होती ‎है। मोटे तौर पर विचार और प्रचार के फर्क पर ध्यान देने के लिए यहां इतना काफी है।

बड़े-बड़े विद्वानों ने विचार किया और विचार को फालतू घोषित कर दिया। उन्हें ‎अपने विचार की वैधता के लिए विचार किया जारी रखा। कहने का तात्पर्य यह है ‎कि भीतर-ही-भीतर विचार प्रक्रिया जारी रही और बाहर-बाहर विचार के समाप्त हो ‎जाने का प्रचार ‘बौद्धिक जगत’ में धूम मचाता रहा। यही प्रचार का प्रपंच है, अर्थात, ‎भीतर-ही-भीतर कुछ अन्यथा और बाहर-बाहर कुछ अन्य। ‎

अद्भुत होता है, एक दूसरे की गांठ ढीली करने का ‎विचार जो प्रचार के बल पर अपना काम करता है। जो दूसरे की गांठ ढीली करने में जितना कुशल है, जितना सक्षम है वह उतना ‎ही सफल और सम्माननीय होता है। जिंदगी में आज राजनीति और राज्य से अधिक ‎बाजार का वर्चस्व है। ऐसा इसलिए हुआ है कि आज सब कुछ को बाजार के हवाले ‎कर दिया गया है। रोजी-रोजगार, महंगाई, उपभोग, भोग आदि सब कुछ बाजार के ‎नियंत्रण में है। मोटे तौर पर जिंदगी में आज जो भी सुख-सुविधा या दुख-दुविधा है ‎उसका कारगर संबंध निश्चित रूप से बाजार से है। मजे की बात यह है कि राज्य पर ‎भी बाजार का अदृश्य-दृश्य नियंत्रण रहता है। प्रसंगवश, कोई भी काम बिना मनुष्य के मानसिक और शारीरिक या ‘मेधा’ श्रम के नहीं होता है। लेकिन बाजार और व्यवस्था के लिए सबसे फालतू यही श्रम होता है।

ऐसा लगता है कि राजसत्ता का मुख्य ‎कर्तव्य है, व्यवस्था के प्रति जन-आकर्षण बनाये रखना और हर हाल में जन-आक्रोश ‎को बाजार की तरफ से बढ़ने को रोके और अपने ऊपर लेकर झेलती रहे। राजसत्ता में ‎राजनीतिक दलों की फेर-बदल से जनता के संतोष-बोध को सक्रिय बनाये रखकर ‎जन-आक्रोश को लोभ-लालच का जाल कामयाबी से फैलाता-समेटता रहे। बाजारवाद ‎के पैरोकारों को दृढ़ विश्वास है कि आम लोगों के लिए स्वतंत्रता का इतना ही मतलब ‎जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी होती रहे, बाजार तक पहुंच के लिए विभिन्न ‎आभासी और वास्तविक विकल्प की उपलब्धता बनी रहे, बाजार के चलते रहने के ‎लिए उपभोक्ता बाजार में छोटे-छोटे ऋणों की उलटफेर करता रहे। लोग सच-झूठ के ‎खेल में उलझे रहें।

कुल मिलाकर यह कि राजसत्ता ‎‘आबादी की प्रोसेसिंग’‎ करती रहे ‎और बाजार ‎को ‘उपभोक्ता प्रोसेसिंग’‎ की बे-नियंत्रण आजादी के कारगर होने का ‎वातावरण बनाये। नागरिक को उपभोक्ता में और नागरिक अधिकार के बदले ‎उपभोक्ता अधिकार को अधिक वैध बनाये। बाजारवाद का सीधा-सा नियम है जो ‎जितना बड़ा उपभोक्ता वह उतना बड़ा नागरिक उसका उतना ही अधिकार। ‎उपभोक्ता की हैसियत आधिकारिकता (Entitlement) से तय होती है। ‎आधिकारिकता (Entitlement) का मतलब मोटे तौर पर नगद या ऋण पाने की ‎क्षमता, अर्थात क्रय-क्षमता। क्रय-क्षमता आय के अर्जन के अवसरों यानी रोजी-रोजगार से जुड़ा होता है। ‎

मति-विभ्रम का वैचारिक वातावरण बनाकर मनुष्य-विरोधी क्रिया-‎कलाप ‎करने के लिए सांस्कृतिक और वैचारिक अराजकता की स्थिति लाना होता ‎है। लक्ष्य होता है कि सब ‎कुछ आर्थिक रूप से संपन्न और शक्तिशाली लोगों के मन और मनमानी के ‎हिसाब से ‎चले। सच है कि यह सब मुठ्ठी भर शक्तिशाली लोग सार्वजनिक धन को ‎हड़पने और ‎सार्वजनिक व्यवस्था पर नियंत्रण की आधिकारिकता को अपनी मुट्ठी ‎में करने के लिए ‎करते हैं।

एडम स्मिथ ने ‎संपत्ति के वास्तविक स्रोत के रूप में श्रम की पहचान की मांग ‎‎और ‎आपूर्ति के ‎नियमों पूंजी के जमा होने और पूंजी के उपयोग को बहुत महत्वपूर्ण ‎‎ढंग से ‎‎विश्लेषित किया था। जब कभी राष्ट्र की संपत्ति की बात की जायेगी एडम स्मिथ के ‎‎उल्लेख के बिना न केवल अधूरी रहेगी बल्कि भ्रामक भी होगी। एडम स्मिथ ने ‎संपत्ति ‎के वास्तविक स्रोत के रूप में श्रम की पहचान की थी। वास्तविक संपत्ति के ‎रूप में श्रम ‎के महत्व को मानना सचमुच बहुत बड़ी बात है।

एडम स्मिथ ने मांग ‎‎‎और आपूर्ति के ‎नियमों पूंजी के जमा होने और पूंजी के उपयोग को बहुत महत्वपूर्ण ‎‎‎ढंग से विश्लेषित ‎किया था। काफी हद तक रीगन और थैचर दोनों को अठारहवीं ‎शताब्दी के अर्थशास्त्री ‎एडम ‎स्मिथ के विचारों में प्रेरणा मिली! स्मिथ की मूल प्रेरणाओं को बीसवीं ‎शताब्दी के उनके अनुयायियों ने ‎‎पलटते हुए तर्क दिया कि ‘कम शासन’ बेहतर होती है। ‎‘कम शासन’ का तात्पर्य अपेक्षाकृत कमजोर नागरिकों पर शासन के दखल को कम करने का तो कतई नहीं था, बल्कि खामोशी से बाजार को ‎‘नव-धनिकों’‎ के पक्ष में ‘अपना काम’ ‎ करने देने का था। इसलिए कहा गया, ‎अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका ‎जितनी छोटी होती है, देश की ‎आर्थिक स्थिति ‎उतनी ही बेहतर होती है।‎ रीगन ने तो यहां तक कह दिया कि “सरकार ‎‎हमारी समस्या का समाधान नहीं है; सरकार ही समस्या है”। ‎लोकतांत्रिक सरकार को समस्या बताना आबादी को लोकतंत्र के बाहर बाजारवाद की राक्षसी (Demonian) नीतियों ‎के हवाले कर देने से क्या कम था! लोकतंत्र और लोकतांत्रिक सरकारों की जरूरत व्यवस्था में संतुलन और सामंजस्य की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होता है।

जिस रास्ते पर भारत चल पड़ा है वह कई कारणों से वह कठिन है। पूरी दुनिया के कई देशों में एक साथ दक्षिण-पंथी रुझान प्रकट हुआ। इसका कारण था। विश्व युद्धों के बाद दुनिया दो शक्तिशाली ध्रुवों में बंट गई थी। एक ध्रुव पूंजीवादी राजसत्ता का था, जिसका नेता अमेरिका था। दूसरा ध्रुव सोवियत‎ संघ के नेतृत्व में समाजवाद का था। सोवियत‎ संघ कई कारणों बिखर गया। सोवियत‎ संघ के बिखरने के बाद पूंजीवाद अपने को चुनौती मुक्त मानकर पूरे धमक के साथ आगे बढ़ने लगा। स्वाभाविक है कि पूंजीवाद की वैचारिक साथी दक्षिण-पंथी रुझान की राजनीति में भी अ-नियंत्रित गति आ गई। पूरी दुनिया में दक्षिण-पंथ की राजनीति अपने चाल-चरित्र-चेहरे की नई चमक-दमक और सज-धज के साथ ‘विश्व विजय’ पर चल निकली! भारत में भी यही माहौल उफान पर पहुंच गया था।

आज पूंजीवाद कुछ परेशान-सा है। गलत ढंग से आयातित अंतर्वस्तु के अंतर्विरोधों और आंतरिक घात-प्रतिघात से घिर गया है। जाहिर है कि उसकी साथी दक्षिण-पंथी रुझान की राजनीति अब ऐसे मैदान में पहुंच गई है रहस्यमय तौर पर ऊपर से खुला-खुला दिखता है। यह मैदान खुला-खुला तो है लेकिन यह दिशा-बोध के सुविधाजनक संकेतकों के अभाव में दुविधाग्रस्त होकर लगभग दिशाहारा परिस्थिति में डाल देनेवाला है। आज पूंजीवाद का उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण (उनिभू) आगे बढ़ने के लिए नये रास्ते की खोज कर रहा है। दक्षिण-पंथी रुझान की राजनीति भी नई अवरुद्धता में पड़कर शिथिल हो रही है।

इस समय मानवोचित नागरिक व्यवहार की प्रकृति और प्रवृत्ति को समझने तथा ‎‎न्याय-संगत, सुव्यवस्थित ‎और कुशल समाज की संरचना को संभव बनाने के ‎‎राजनीतिक प्रयास की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है। वस्तुतः रीगन के अनुसार सत्ताधीशों को अपने अभिनय ‎कौशल का ‎उपयोग करते हुए रूढ़िवादी विचार को ‘हंसमुख ‎मुखौटा’ के साथ पेश ‎‎करने का सुझाव दिया था।‎ अचरज नहीं कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‎अपने ‎पिछले दस ‎साल के शासन में ‎ रीगन के इस सुझाव में ‎रूढ़िवाद के साथ ‎हिंदुत्व ‎की विभेदकारी राजनीति और ‎हिंसा को जोड़कर अमल में लाने का ‎काम ‎घातक तत्परता ‎से किया और ‎‘घर में घुसकर देखने’ ‎ और ‎‘घर में घुसकर मारने’‎ की ‎नीति पर चलते रहे। देश में ‘बुलडोजर न्याय’ लोकतांत्रिक शासन का प्रतीक बन ‎गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दस साल के शासन में उनका ‎‎‘हंसमुख ‎मुखौटा’‎ ‎पूरी तरह ‎से हास्यास्पद हो गया है।

मोर ने 1515 ई के आस-पास आदर्श समुदाय के रहने की जगह के संदर्भ में ग्रीक ‎‎नकारात्मक ओयू को टॉपोस (“जगह”) के साथ जोड़कर यूटोपिया (Utopia‎) ‎‎बनाया। 1868 में जॉन स्टुअर्ट मिल ने अस्तित्व के लिए बहुत खराब जगह का ‎‎वर्णन करने के लिए अपना विलोम, डायस्टोपिया (Dystopia‎) बनाया। पहली बार कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने मिलकर पूरी मनुष्य जाति के लिए यूटोपियन सपने जमीन पर उतारने के वास्तविक लक्ष्य संभावना को ‎साकार करने का सिद्धांत प्रस्तुत किया।

पूंजीवाद के पैरोकारों को इस सिद्धांत से परहेज था। एडम स्मिथ और मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर फिर से गंभीरता के साथ विचार किये जाने की जरूरत विश्व व्यवस्था के संतुलित और सुचारु रूप से चलने के लिए होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। ’जीयो और जीने दो’ प्रकृति का संदेश और संस्कृति का सार है। हर किसी के लिए ‎जीवित रहना प्राकृतिक अधिकार है, इसके साथ ही दूसरों के जीवित रहने के ‎आधार की रक्षा करना प्राकृतिक कर्तव्य है। यही मनुष्य होने का प्राकृतिक आधार, ‎सहयोग और सहकार का मूल तत्व है। इन्हीं से सभ्यता का भविष्य तय होता है। एक बात साफ-साफ समझ में रहनी चाहिए कि धन-संपत्ति भले ही व्यक्ति के निजी स्वामित्व में रहे, भविष्य तो साझा ही होता है।

स्वतंत्र नागरिक का कोई अभिभावक नहीं हो सकता है, न कोई अन्य स्वतंत्र सह-‎नागरिक और न कोई संवैधानिक ‎प्राधिकारी। स्वतंत्र नागरिक के ऊपर सिर्फ ‎संविधान और कानून होता है। संविधान और कानून को लागू करनेवाले ‎स्वतंत्र ‎नागरिक के अधिकृत सहायक हो सकते हैं, शासक नहीं। विचार का प्रशंसक होना ‎मतांध होना नहीं हो सकता है। जो विचार मतांध बनाता है वह विचार के वेश में ‎विष के ‎अलावा कुछ नहीं हो सकता है। कहने का आशय यह है कि जो विचार किसी को गंभीरता से सोचने के लिए प्रेरित न करता हो ‎वह ‎विचार के वेश में सामाजिक विष के अलावा कुछ नहीं होता है। ‎

प्राकृतिक रूप से कोई अकेला मनुष्य इतना सर्वगुण संपन्न नहीं होता है कि वह ‎दूसरे किसी मनुष्य पर शासन करे, उसका शोषण करे। प्रकृति ने किसी मनुष्य पर ‎शासन करने का अधिकार और शासित होने का कर्तव्य ‎किसी मनुष्य के लिए ‎सुनिश्चित नहीं किया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में मनुष्य और नागरिक के रूप में लोग अपने ‎चुने हुए प्रतिनिधि को ‎सरकार बनाने और अपने ऊपर शासन करने के अधिकार के प्रति उन्हें सहमति ‎देते हैं। प्रत्येक ‎नागरिक चुने हुए जनप्रतिनिधियों के समूह से अपने शासित होने ‎की ‎संवैधानिक सहमति के पालन को ‎अपना कर्तव्य मानता है। सहमति के इसी स्वीकार से लोकतंत्र का ‎‎आधार तैयार ‎होता है। सहमति फिर से देने या वापस लेने का सामूहिक अधिकार ‎‎नागरिकों के ‎पास होता है। सहमति के समुचित लेन-देन और बदलने के लिए चुनाव में मतदान ‎‎होता है।

मतदान नहीं ‎करनेवाले की भी सहमति सामूहिक रूप से किये गये बहुमत के ‎‎फैसले में शामिल ‎हो जाती है। इस अर्थ में स्वाभाविक रूप से मतदान न ‎‎करनेवालों का भी निष्क्रिय मतदान ‎बहुमत के पक्ष में हुआ मान लिया जाता है। ‎अपने मतदान को निष्क्रिय रूप से हो जाने से बचाने के लिए सक्रिय रूप से ‎मतदान करना चाहिए।

अंतर्विरोधों को बाद के लिए अनसुलझा छोड़ने और अप्रियताओं के यथार्थ को ‎काल्पनिक प्रियताओं से बदल देने की प्रवृत्ति ने भारत का बहुत नुकसान किया है; समाज का भी, राजनीति का भी, अर्थ-नीति का बहुत नुकसान किया है। आज भारत में आर्थिक, सामाजिक, सामुदायिक, मजहबी और राजनीतिक अन्याय का जैसा अ-साधारण वातावरण बन गया है वह एक राष्ट्र के रूप में बहुत ही चिंतनीय है। सत्ता-समर्थित नकारात्मकताओं की माहौलबंदी के लिए की जानेवाली नफरती बयानबाजी से उत्पन्न भावनात्मक हिंसा से देश विध्वंसक उथल-पुथल के कगार तक पहुंच गया है।

सनातन राज स्थापित करने की मंशा के पक्ष में मान्यता-प्राप्त राजनीतिक दल के समर्थक लोगों और अधिकृत प्रवक्ता डटकर बोलते हैं। कई बार उसी के अनुरूप आचरण भी करने लगते हैं। मुख्य-धारा की मीडिया से इस मामले में किसी प्रश्न-प्रतिप्रश्न की तो कोई उम्मीद ही नहीं की जा सकती है। दुखद यह है कि ऐसे मामलों में संविधान सम्मत सत्ता रणनीतिक रूप से खामोश बनी रहती है।

संविधान सम्मत सत्ता की ऐसी खामोशी संविधान के विरुद्ध होना नहीं है, तो क्या है? विरुद्ध होने और बदल देने में कितने का फर्क होता है, कितने का? इन सवालों के जवाब बहुत मुश्किल हैं। इस चुनाव में मतदाताओं के सक्रिय मतदान से इन सवालों के मिलनेवाले जवाब से ‎‘हम भारत के लोगों’‎ का भविष्य तय होगा। दोहराव पर कहना जरूरी है कि अंततः मतदाताओं का सक्रिय मतदान से ही लोकतंत्र का भविष्य तय होता है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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