दुनिया के नक्शे पर विश्वगुरु भारत का अकेलापन

अंतिम निर्णायक बात राजनीतिक निर्णय होते हैं। राज्य का उद्भव इन्हीं निर्णयों से होता है। उसके उद्भव की शर्तें चाहे जितनी परिपक्व हों, यदि निर्णय नहीं है तो वह अस्तित्व में नहीं आ सकता। राज्य के बने रहने और उसकी क्षमता भी इसी निर्णय में निहित होती हैं। एक गलत निर्णय उसे राजनीति की दुनिया में ऐसी जगह फेंक सकता है, जहाँ से निकलकर आना असंभव में बदल सकता है। यह बात राजनीति करने वाली पार्टियों के लिए भी सही है।

आधुनिक दौर में तो ये पार्टियाँ ही राज्य के संदर्भ में निर्णायक भूमिका अदा करने लगी हैं। लेकिन ये राजनीतिक पार्टियाँ ही राज्य नहीं हैं। इसके निर्णय में राज्य बनाने और चलाने वाली अन्य ताकतें भी हैं। ऐसे में राजनीतिक निर्णयों को लेकर टकराहटें होती हैं और जब इसका संतुलन बिगड़ने लगता है, तब कोई एक पक्ष राजनीतिक निर्णयों पर दबदबा बनाने लगता है। ऐसे में राजनीतिक निर्णय एक बेहद नाजुक दौर में प्रवेश कर जाता है।

जीरो-टॉलरेंस अर्थात् युद्ध की निरंतर संभावना-ये कोई नई प्रस्थापनाएँ नहीं हैं। ये राजनीतिक सिद्धांत की वे बातें हैं, जिनके माध्यम से आज की जटिल राजनीतिक हालात को समझने में मदद मिलती है। भारत में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार का यह तीसरा दौर है। इसका ‘आतंकवाद’ को लेकर एक राजनीतिक निर्णय था कि इसके प्रति ‘जीरो टॉलरेंस’ रहेगा। यानी किसी भी आतंकवादी कार्यवाही पर सीधे हमला करने का राजनीतिक निर्णय लिया गया।

इस नीति में ‘आतंकवाद’ की परिभाषा को मुख्यतः विश्व-राजनीति के पटल पर रखकर किया गया, जिसमें पाकिस्तान की कश्मीर नीति की सीधी आलोचना थी। इसे जब भारत की गृह नीति में बदला गया, तब इसकी परिभाषा थोड़ी बदल-सी गई। इसमें भारत की संस्कृति को मुख्य पक्ष बनाया गया, जो सनातन धर्म की तरह परिभाषित हुआ और विचारधारा के स्तर पर विरोधी पक्ष को ‘नक्सल’ की तरह परिभाषित किया गया।

सनातन धर्म को राष्ट्र का पर्यायवाची बनाते हुए अन्य को एक जटिल स्थिति में डाल दिया गया। जाति व्यवस्था की आलोचना भी अपराध में बदलती गई। यह एक ऐसा राजनीतिक निर्णय था, जिसका परिणाम हम भारत के भीतर लगातार राजकीय कार्यवाहियों में देख सकते हैं। माओवादियों और नक्सलियों के सफाए के लिए सैन्य अभियानों के सिलसिले को इससे हुई मौतों और गिरफ्तारियों में देखा जा सकता है। लेकिन, जब इसे किसी भी असहमत आवाज को, यहाँ तक कि विपक्ष की आवाज को भी ‘नक्सल’ पदावली से परिभाषित किया जाने लगा, तब यह निर्णय खुद राज्य के ढाँचे पर ही सवाल बनकर खड़ा हो गया।

हालाँकि भाजपा के प्रवक्ता इसे उदारवाद की जीत बताने और उसे दार्शनिक अंदाज में व्यक्त करने में लगे हुए थे। लेकिन, भाजपा से जुड़े अन्य नेताओं की भाषा जिस तरह से बिगड़ती चली गई, उसे तलछट की भाषा कहना ही ज्यादा उपयुक्त होगा। इसका कुल परिणाम भारत के अंदर निरंतर चलने वाली एनकाउंटर, मॉब लिंचिंग, समूहों की हिंसा, जातिगत और जातीय हिंसक टकराहटें, दंगे, राष्ट्रीयता और भाषा के मुद्दे पर तनाव आदि का बढ़ाव देखने में आया।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इसका सीधा असर भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर पड़ा। पिछले 12 सालों में भारत की ओर से मंत्रियों और स्वयं प्रधानमंत्री ने कई बार ‘घर में घुसकर’ मारने की बात कही। ‘जीरो टॉलरेंस’ का अर्थ भी यही है। यह निश्चित ही भाजपा का एक राजनीतिक निर्णय था, जो भारत की राजनय में बदल गया था। अंतरराष्ट्रीय राजनीति की परिभाषा में यदि कोई देश किसी अन्य देश की राजनीतिक सीमा का उल्लंघन करता है, तब उसे इसका ठोस कारण बताना होता है।

इसका सीधा परिणाम यही होगा कि इस मसले पर संयुक्त राष्ट्र संघ हस्तक्षेप करे। एक अन्य स्थिति में ‘मित्र शक्तियाँ’ भी हस्तक्षेप करती हैं। भारत की ओर से जो राजनीतिक निर्णय लिया गया और पिछले दस सालों में जो कार्यवाहियाँ की गईं, उस दौरान ‘मित्र शक्तियाँ’ तो सामने नहीं आईं और न ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक सीमा से अधिक हस्तक्षेप किया, लेकिन इस बार मामला पहले की तरह नहीं रहा।

यह कोई तात्कालिक असफलता नहीं है। यह राजनीतिक निर्णय का ही सीधा परिणाम है, जो होना ही था। खासकर, तब तो जरूर ही होना था, जब दोनों ही देश परमाणु हथियारों से लैस हों और जिनकी सीमाएँ दर्जनों देशों से लगी हुई हों। हालाँकि इस समय प्रधानमंत्री ने जो परमाणु हथियारों को लेकर बाँह मरोड़ने वाली बात कही है, वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए हस्तक्षेप के साथ मेल नहीं खा रही है।

आतंकवाद अर्थात् अमेरिका प्रभुत्व को बनाए रखने की रणनीति-यहाँ यह जरूर समझ लेना चाहिए कि आतंकवाद भी एक राजनीतिक शब्दावली है और इसके प्रयोग का बेहद प्राचीन इतिहास है। भारतीय राजनय से जुड़ी प्राचीन पुस्तकों में न सिर्फ इसका जिक्र है, बल्कि राजा को इसका प्रयोग किस तरह करना चाहिए, इस पर भी सुझाव दिए गए हैं।

आधुनिक दौर में यह राजनीतिक सिद्धांत का हिस्सा बन गया। यह राजनीतिक पार्टियों की रणनीति और कार्यनीति का हिस्सा बन चुका है। दुनिया के सभी देशों में पूँजीवादी राष्ट्रवाद के जन्म के साथ ही यह शब्दावली राजनीति का अनिवार्य हिस्सा बन गई। बाद में उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों की क्रांतिकारी धारा ने इसे रणनीति और कार्यनीति दोनों ही स्तर पर अपनाया और कई देशों में इसे सफलता भी मिली। इसमें धर्म की उपस्थिति ने निश्चित ही एक जटिलता को जन्म दिया। बाद में अन्य पहचानों का इसमें जुड़ने से स्थिति और भी जटिल हो गई। इसका भरपूर फायदा साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी देशों ने उठाया। उन्होंने अफ्रीका, लातिन अमेरिका और एशिया में इसे गृहयुद्ध में बदल देने की रणनीति के तहत काम किया।

1985 के बाद अमेरिकी नेतृत्व ने आतंकवाद बनाम आतंकवाद की राजनीति को धर्मयुद्ध में बदलना शुरू किया और अंततः इसे इस्लाम के खिलाफ युद्ध की रणनीति में बदल दिया। इसने पूरी दुनिया की राजनीति को ही नहीं, बल्कि दुनिया के देशों के भीतर की राजनीति को भी निर्णायक स्तर पर बदला है। हमारा देश भी इससे अछूता नहीं है। यहाँ इस नीति का तर्जुमा जब भाजपा के राजनीतिक सिद्धांतों में ढला, तब यह सिर्फ मुस्लिम समुदाय को लेकर लिए गए निर्णयों में ही नहीं, बल्कि हिंदू धर्म के पुनर्गठन की नीति में भी एक बड़ा बदलाव लेकर आया। भारत की गृह नीति और विदेश नीति में हम तेजी से बदलाव देख सकते हैं। भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर ‘विश्वगुरु’ होने का दावा करने लगा। यह सब अनायास नहीं था। यह एक राजनीतिक निर्णय से पैदा हुए कार्यभार थे।

पाकिस्तान, अमेरिका और चीन का अंतरराष्ट्रीय भूगोल का दरवाजा-भारत जिस समय ‘विश्वगुरु’ होने का दावा कर रहा था, उसी समय भारत के प्रधानमंत्री अपने व्यक्तिगत अहसासों में स्वयं को अवतार होने का अनुमान व्यक्त कर रहे थे। कई सारे नेता और यहाँ तक कि मंत्री भी उन्हें अवतार घोषित कर चुके थे। हालाँकि चुनावी सभाओं में उनकी भाषा ‘ईश्वरीय मर्यादाओं’ को पार कर जाती रही है।

बहरहाल, हम भारत के अंतरराष्ट्रीय पटल पर जितना ही बढ़ता हुआ विश्वगुरु होने का दावा और उसका प्रचार देख रहे थे, उतना ही भारत अकेला पड़ता दिख रहा था। इस बार जब भारत के प्रधानमंत्री ने एक निर्णायक पहलकदमी की घोषणा कर नदियों के पानी को रोका, फिर सैन्य गतिविधियों को बढ़ाते हुए भारत के लोगों को तैयार होने के लिए कहा और इसके बाद सैन्य कार्रवाइयाँ शुरू कीं, उस समय शायद ही किसी को अनुमान रहा हो कि अंतरराष्ट्रीय राजनय में ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ में भारत अकेला पड़ जाएगा। शायद मोदी को अनुमान था कि उन्हें इजरायल की तरह अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से समर्थन मिलेगा। लेकिन, अनुमान और राजनीतिक निर्णय के बीच एक गहन रिश्ता होता है।

राजनीतिक निर्णय के अनुरूप ही अनुमान लगाना चाहिए। यह जरूर जानना चाहिए था कि भारत इजरायल नहीं है। यह भी जरूर जानना चाहिए था कि पाकिस्तान की आतंकवाद की रणनीति का प्रयोग उसका अकेले का नहीं रहा है; उसके मुख्य रणनीतिकार अमेरिका और यूरोपीय देश रहे हैं, जिनमें रूस को पीछे हटना पड़ा था और पूरे मध्य एशिया के देशों को भयावह तबाही झेलनी पड़ी थी। जिस समय मोदी सत्तासीन हो रहे थे, उस समय तक अंतरराष्ट्रीय पटल पर चीन अपनी उपस्थिति को अमेरिका और यूरोपीय देशों के बराबर ले आया था और भारत का दायरा पड़ोसी मुल्कों तक सिमटता जा रहा था।

भारत की राजनीति मोदी के समय में पड़ोसी मुल्कों के साथ उलझती हुई दिखती है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर राजनीतिज्ञों के मुस्कराते चेहरों के बीच मोदी का मुस्कराता चेहरा चाहे जितनी समानता को प्रदर्शित करता लगे, मोदी का आलिंगन चाहे जितनी घनिष्ठता का प्रदर्शन करे, सच्चाई यही थी कि भारतीय राजनय के पैरों की जमीन कब की खिसक चुकी थी।

मीडिया में युद्ध जीतने का ख्वाब बेचने का काम अब भी जारी है। प्रधानमंत्री मोदी भारतीय सेना के जवानों के साथ ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाकर हौसला अफजाई में लगे हैं। अब भी वे घोषित कर रहे हैं कि कार्रवाई रोकी गई है, यह आगे जारी रहेगा। सैन्य विशेषज्ञ भारत की सैन्य तैयारियों और उसकी रणनीति पर सवाल उठा रहे हैं। रणनीतिकार अमेरिका की दखलंदाजी से हैरान हैं। ट्रोल इस युद्ध पर सवाल खड़ा करने वालों पर अंधाधुंध गालियाँ बक रहे हैं।

कांग्रेस इंदिरा गांधी को याद कर रही है। और, प्रगतिशील मानी जाने वाली कई आवाजें मोदी पर सवाल खड़ा करते हुए राष्ट्रवाद का नमक खाने में लगी हैं। यहाँ मैं एक बार फिर से रेखांकित करना जरूरी समझता हूँ। चीन की उपस्थिति अब दक्षिण एशिया ही नहीं, बल्कि दुनिया की राजनीति के पटल पर एक बदलाव ला रही है। यह बदलाव शांतिपूर्ण होगा, इसकी उम्मीद नहीं है। अमेरिका के साथ उसका हालिया व्यापारिक समझौता इस बदलाव में एक कदम है।

पाकिस्तान चीन के लिए मध्य एशिया और पूर्वी यूरोप की ओर खुलने वाला दरवाजा है। इन संदर्भों में ही पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति को समझना होगा। ऐतिहासिक तौर पर भी ब्रिटिश उपनिवेशवाद के समय में ब्रिटिश हुकूमत वर्तमान पाकिस्तान वाले हिस्से से ही मध्य एशिया, अफगानिस्तान और रूस पर निगाह रखती थी। आज भी साम्राज्यवादी देशों के लिए पाकिस्तान की उपस्थिति प्रासंगिक है और इसमें नई उपस्थिति चीन की है। अमेरिका और यूरोप के लिए भारत की प्रासंगिकता चीन के संदर्भ में थी और इसी संदर्भ में कम और ज्यादा होती रहेगी।

ख्वाबगाह में राजनीतिक निर्णय-भारत और पाकिस्तान के बीच हुए झड़प के बाद भारत का जो ‘विश्वगुरु’ होने का दावा था, वह अकेलेपन में बदल गया है। इसका सबसे बड़ा कारण उसके राजनीतिक निर्णयों में है। युद्ध की रणनीति का बड़ा हिस्सा दुश्मन के ठिकानों पर हमला और वहाँ की जनता को अपने पक्ष में करना होता है। यहाँ हम नदियों का पानी रोकने में लग गए।

हमारे यहाँ की मीडिया घटिया स्तर के गाली-गलौच में लगी रही। जो गृह नीति है, वही विदेश नीति में बदलता दिख रहा था। जो नफरत का बाजार पिछले दस साल से चल रहा है, उसका विदेश नीति में अनुवाद होते हुए दिखना एक हद तक के दिवालियापन को दिखा रहा था। इन सबके बावजूद विश्वगुरु होने का दावा अब छोड़ा नहीं गया है और अब राजनीतिक निर्णय में कोई बदलाव की संभावना नहीं दिख रही है। ऐसे में अन्य राजनीतिक पार्टियों द्वारा एक वैकल्पिक निर्णय के साथ सामने आना चाहिए, जो फिलहाल ऐसा कोई निर्णय नहीं दिख रहा है।

कांग्रेस इंदिरा गांधी को याद करते हुए अब भी अभिजात ख्वाबगाह में बैठी हुई है, जब भारत ने विस्तारवादी राजनीति करते हुए बांग्लादेश को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जगह दी और सिक्किम को भारतीय राजनीति का हिस्सा बना दिया था। उम्मीद है कि इस ख्वाबगाह से भारत की राजनीति बाहर आएगी और देश की जनता तथा इसकी अर्थव्यवस्था की हकीकत को दुनिया की राजनीति के पटल पर रखते हुए राजनीतिक निर्णय में आमूल बदलाव लाएगी।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)

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