उत्तराखण्ड की ऐतिहासिक पटवारी पुलिस व्यवस्था को खत्म करने की प्रक्रिया  शुरू

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उत्तराखण्ड में 6 नये थाने और 20 नयी पुलिस चौकियों का उद्घाटन होने के साथ ही लगभग डेढ़ सौ साल पुरानी राजस्व पुलिस, जिसे पटवारी पुलिस व्यवस्था भी कहते हैं, को सदा-सदा के लिये दफन करने की शुरुआत भी हो गयी। इसके साथ ही प्रदेश के 1357 राजस्व गांवों में पटवारियों की कानून व्यवस्था समाप्त होने के साथ ही नियमित पुलिस का नियंत्रण शुरू हो गया।

अभी तक रेवेन्यू पलिस के पास प्रदेश का 61.19 प्रतिशत और सिविल पुलिस के पास 38.81 प्रतिशत भूभाग ही था। 13 फरवरी 2023 के बाद अब रेगुलर या सिविल पुलिस के थानों की संख्या 166 और पुलिस चौकियों की संख्या 257 हो गयी। अभी तक पुलिस के नियंत्रण में हरिद्वार और उधमसिंह नगर, दो जिले पूर्णतः और देहरादून तथा नैनीताल जिले आंशिक रूप से थे।

जबकि अल्मोड़ा, बागेश्वर, चमोली, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, टिहरी, पिथौरागढ़, पौड़ी और चम्पावत जिलों के मुख्यालय की ही कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी पुलिस निभा रही थी। नैनीताल हाइकोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार ने चरणबद्ध तरीके से राजस्व पुलिस व्यवस्था समाप्त कर सम्पूर्ण प्रदेश की जिम्मेदारी रेगुलर पुलिस को देने का निर्णय लिया है जिसकी शुरूआत 13 फरवरी से हो गयी है।

पटवारी पुलिस महज एक कानून व्यवस्था की मशीन नहीं बल्कि पहाड़ी समाज का एक अंग भी है। इस व्यवस्था की पहचान उत्तराखण्ड से है तो उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान भी पटवारी पुलिस में निहित है। उत्तराखण्ड की विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियों के कारण ही सन् 1861 का अंग्रेजों का पुलिस एक्ट सारे देश में लागू हुआ, मगर यहां लागू नहीं हुआ था।

विशिष्ट सांस्कृतिक परिवेश के कारण ही उत्तराखण्ड का प्रशासन जनजातीय असम की तरह अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 के तहत चला था और उसी के अनुसार पटवारियों को पुलिस अधिकार मिले थे। इसलिये शासकों को उत्तराखण्ड को समझने के लिये पटवारी पुलिस को और उसके अतीत को समझना जरूरी है जिसे समझने की कोशिश नहीं की जा रही है।

काफी इलाकों को सिविल पुलिस को देने के बावजूद आज भी पहाड़ी कस्बों और चारधाम यात्रा मार्ग के अलावा बाकी 60 प्रतिशत भूभाग पर कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राजस्व पुलिस की है। हालांकि ब्रिटिश भारत में पुलिस अधिनियम 1861 में लागू हो गया था, लेकिन ब्रिटिश कुमाऊं तक यह 30-8-1892 से राजाज्ञा संख्या 1254/228.।.81 के तहत विस्तारित किया गया।

इसी दौरान जब अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 आया तो फिर यहां रेगुलर पुलिस को लाने के बजाय रेवेन्यू के पटवारी को ही पुलिस के अधिकार देने का अवसर मिल गया। इस एक्ट की धारा 6 का सहारा लेते हुये ब्रिटिश गढ़वाल समेत कुमाऊं कमिश्नरी की पहाड़ी पट्टियों के लिये “कुमाऊं पुलिस” कानून बनाया गया।

जिसे अधिसूचना संख्या 494/.418.16 दिनांक 07-03-1916 को गजट में प्रकाशित की गयी। इस अधिसूचना के प्रावधानों के तहत कुमाऊं पुलिस व्यवस्था में थोकदार-पदानों, सयाणों और कमीणों जैसे ग्राम मुखियाओं की परम्परागत भूमिका सीमित कर दी गयी और पटवारी की शक्तियां बढ़ा दी गयीं।

उत्तराखण्ड की बेमिसाल पटवारी पुलिस व्यवस्था का श्रेय जी.डब्ल्यू. ट्रेल को ही दिया जा सकता है। ट्रेल ने पटवारियों के 16 पद सृजित कर इन्हें पुलिस, राजस्व कलेक्शन, भू अभिलेख का काम दिया था। कंपनी सरकार के शासनकाल में पहाड़ी क्षेत्र के अल्मोड़ा में 1837 और रानीखेत में 1843 में थाना खोला था।

कमिश्नर ट्रेल ने तत्कालीन गर्वनर जनरल को पत्र लिख कर अनुरोध किया था कि इस पहाड़ी क्षेत्र में अपराध केवल नाम मात्र के ही हैं और यहां की भौगोलिक, जनसांख्यकीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुये यहां अल्मोड़ा रानीखेत, नैनीताल और श्रीनगर जैसे कुछ नगरों को छोड़ कर बाकी पहाड़ी पट्टियों में रेगुलर पुलिस की आवश्यकता नहीं है।

अब राजस्व पुलिस को समाप्त करने के पीछे हाइकोर्ट का तर्क है कि पटवारियों को पुलिस की तरह प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और न ही राजस्व पुलिस के पास विवेचना के लिये आधुनिक साधन, कम्प्यूटर, डीएनए, रक्त परीक्षण, फोरेंसिक जांच की व्यवस्था, फिंगर प्रिंट लेने जैसी मूलभूत सुविधायें भी नहीं हैं जिससे अपराध की समीक्षा में परेशानी होती है और अपराधियों को इस कमी का लाभ मिल जाता है। कोर्ट का यह भी कहना था कि समान पुलिस व्यवस्था नागरिकों का अधिकार है। 

चूंकि अनुभवहीन राजनीतिक नेतृत्व हर काम के लिये नौकरशाही पर  निर्भर रहता है और नौकरशाही को राज्य के इतिहास और सामाजिक तानेबाने की जानकारी नहीं होती। इसलिये हाइकोर्ट में राजस्व पुलिस के इतिहास और उन विशिष्ट परिस्थितियों की पैरवी ही नहीं की गयी। कोर्ट में सरकार की ओर से राजस्व पुलिस के पक्ष में यह नहीं बताया गया कि इसके गठन से लेकर अब तक यह बेहद कम खर्चीली व्यवस्था प्रदेशवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक ताने-बाने से सामंजस्य स्थापित कर चुकी है।

वर्दीधारी पुलिसकर्मी से लोग दूरी बना कर रखते हैं और उनसे डरते भी हैं। जबकि पहाड़ी गावों में बिना वर्दी के राजस्व पुलिसकर्मी गांव वालों के साथ घुलमिल जाते हैं और जनता से सहयोग के कारण अपराधी कानून से बच नहीं पाते।

अदालत में अगर सिविल पुलिस और राजस्व पुलिस क्षेत्र के अपराध के तुलनात्मक आंकड़े पेश किये जाते तो स्थिति स्पष्ट हो जाती। वर्ष 2015-16 में प्रदेश के 60 प्रतिशत भाग की कानून व्यवस्था संभालने वाली राजस्व पुलिस के क्षेत्र में केवल 449 अपराध दर्ज हुये जबकि सिविल पुलिस के 40 प्रतिशत क्षेत्र में यह आंकड़ा 9 हजार पार कर गया।

अदालतों में दाखिल मामलों में भी सिविल पुलिस कहीं भी राजस्व पुलिस के मुकाबले नहीं ठहरती। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के 2021 के आंकड़े बताते हैं कि हत्या के मामलों में लगभग 42.4, बलात्कार में 28.6 प्रतिशत, अपहरण में 29.3 प्रतिशत और बलवा में 21.9  प्रतिशत मामलों में ही सजा हो पाती है। जबकि राजस्व पुलिस द्वारा दाखिल अपराधिक मामलों में सजा का प्रतिशत 90 प्रतिशत तक होता है। यह इसलिये कि राजस्व पुलिस के लोग समाज में पुलिसकर्मियों की तरह अलग नहीं दिखाई देते।

जहां तक सवाल समय के साथ बदली परिस्थितियों में अपराधों के वैज्ञानिक विवेचन या जांच में अत्याधुनिक साधनों का सवाल है तो राज्य सरकार की ओर से अदालत में उत्तराखण्ड पुलिस एक्ट 2007 की धारा 40 का उल्लेख नहीं किया गया।

इस धारा में कहा गया है कि ‘‘अपराधों के वैज्ञानिक अन्वेषण, भीड़ का विनियमन और राहत, राहत कार्य और ऐसे अन्य प्रबंधन, जैसा जिला मजिस्ट्रेट द्वारा आपवादिक परिस्थितियों में जिले के पुलिस अधीक्षक के माध्यम से निर्देश दिया जाये, पुलिस बल और सशस्त्र पुलिस इकाइयों द्वारा ऐसी सहायता देना एवं अन्वेषण करना, जो राजस्व पुलिस में अपेक्षित हो विधि सम्मत होगा।’’ 

गंभीर अपराधों के ज्यादातर मामले राजस्व पुलिस से सिविल पुलिस को दिये जाते रहे हैं। ऐसा नहीं कि सिविल पुलिस हर मामले को सुलझाने में सक्षम हो। अगर ऐसा होता तो थानों में दर्ज अपराधिक मामलों की जांच अक्सर सिविल पुलिस से सीआईडी, एसआईटी और कभी-कभी सीबीआई को क्यों सौंपे जाते? 

राजस्व पुलिस के नियंत्रण वाले पहाड़ के जिलों में अब भी अपराध नाम मात्र के होते हैं। राजस्व पुलिस की वेबसाइट पर उपलब्ध 2016 के आंकड़ों पर नजर डालें तो पहाड़ के सभी 9 जिलों में माह जुलाई में केवल 70 अपराध दर्ज हुये थे। इनमें डकैती के 1, लूट के 3, हत्या के 4 और बलात्कार के 3 मामले शामिल थे। 

इसी प्रकार 2016 में जुलाई में राजस्व पुलिस के पास 62 मामले जांच के थे जिनमें से केवल 2 मामले ऐसे थे जो कि एक साल से अधिक से पेंडिंग पड़े थे। तीन सालों का तुलनात्क विवरण भी देंखें तो राजस्व पुलिस क्षेत्र में नाम मात्र के अपराध नजर आते हैं।

जनवरी से लेकर जुलाई 2016 तक की 6 माह की अवधि में 2014 में कोई डकैती नहीं हुई जबकि 2015 में 2 और 2016 में 3 डकैतियां दर्ज हुईं। इसी प्रकार 6 माह की अवधि में 2024 में 25, 2015 में 19 तथा 2016 में भी 19 हत्या की घटनाएं दर्ज हुयीं। कुल मिला कर सभी 9 जिलों में जनवरी से लेकर जुलाइ 2016  में कुल 449 अपराधिक मामले दर्ज हुये जबकि इसी दौरान सिविल पुलिस के क्षेत्र के मात्र 31.8 प्रतिशत क्षेत्र में अपराधों की संख्या हजारों में है। 

( जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार )

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