कल 14 अप्रैल को एक बार फिर देश ने बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर को याद किया। देशभर में तमाम आयोजन किये गये, जिसका अधिकांश श्रेय सरकार और राज्य मशीनरी अपने प्रचार और राजनीतिक मकसद को हासिल करने के लिए खींच लिया करती हैं। यह साल भी इससे अलग नहीं था। बस अंतर सिर्फ यह है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जीत-हार का अंतर चूँकि काफी कम रह गया है, और साथ ही दलित समुदाय के वोटों का ध्रुवीकरण जो हाल तक बसपा के पक्ष में था, उसमें लगातार बिखराव राजनीतिक समीकरण को बड़े हद तक प्रभावित कर सकता है।
पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस नेता राहुल गांधी उत्तर भारत में लगातार बहुजन संवाद की अलख जगाए हुए हैं, और हाल ही में दलित बुद्धिजीवियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा कांग्रेस में शामिल हुआ है। अनिल जयहिंद को कांग्रेस में शामिल कर सीधे ओबीसी विभाग के प्रमुख के रूप में नियुक्ति को एक बड़े बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है। दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को अपने पक्ष में करने के लिए कांग्रेस लगातार जातिगत जनगणना के प्रश्न को उठा रही है।
भाजपा इस मूव को देख रही है, और 2014 तथा 2019 लोकसभा चुनाव में अपने दम पर पूर्ण बहुमत के पीछे उसके उत्तर भारत में ओबीसी एवं दलित समुदाय के बीच सोशल इंजीनियरिंग की सबसे बड़ी भूमिका थी, जिसे उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ और विपक्ष में कांग्रेस की पहल लगातार चोट पहुंचा रही हैं।
इसे देखते हुए बी आर अंबेडकर की 134वीं जयंती को बेहद विशाल पैमाने पर आयोजित करने और इवेंट बनाने का मौका था। मोदी सरकार और बीजेपी ने इसे काफी हद तक पूरा भी किया। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा से लेकर बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं की उपस्थिति को मीडिया ने स्थान दिया है। स्वंय पीएम नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर संसद के प्रांगण में भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने के बजाय हरियाणा में जाकर एक जनसभा में भाषण के जरिये राष्ट्रीय मीडिया को अंबेडकर जयंती पर अधिकांश बाइट मोदी जी को दिए जाने के लिए मजबूर कर दिया।
लेकिन बड़ा सवाल है कि पीएम मोदी ने अंबेडकर को कैसे याद किया? उन्होंने अंबेडकर को याद करने की जगह एक बार फिर कांग्रेस को कोसने पर अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर डाली। लेकिन अपनी बात को साबित करने के लिए उनके पास अभी भी 50 वर्ष पूर्व लगाई गई इमरजेंसी के अलावा कुछ नहीं है। यह अलग बात है कि जिस आपातकाल को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर लादा, उसे भी संविधान के तहत ही लागू किया गया और रद्द भी इंदिरा ने ही किया था। लेकिन पिछले 8 वर्षों से देश में जो अघोषित आपातकाल लागू किया जा रहा है, उसके बारे में बीजेपी और पीएम मोदी के पास कहने के लिए कुछ नहीं है।
जिस दूसरे मुद्दे के आधार पर पीएम मोदी ने कांग्रेस की घेरेबंदी करने की कोशिश की है, वो तो बेहद हास्यास्पद और खुद भाजपा की नीतियों की पोल खोल करने वाली साबित हो सकती है। यह मुद्दा था वक्फ़ बिल का, जिसे उन्होंने हिसार की इस रैली में क्यों उठाया, यह शायद ही किसी के गले उतरे।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “अगर सच्चे अर्थों में आपके दिल में मुसलमानों के लिए थोड़ी भी हमदर्दी है, तो कांग्रेस पार्टी अपने पार्टी का अध्यक्ष मुसलमान को बनाये, क्यों नहीं बनाते हैं भाई? संसद में टिकट देते हैं, 50% मुस्लिम उम्मीदवारों को दो। जीतकर आयेंगे तो अपनी बात बतायेंगे। लेकिन ये नहीं करना है। कांग्रेस में तो कुछ नहीं देना है। देश के नागरिकों के अधिकारों को छीनना और देना। इनकी नीयत कभी भी किसी का भला करने की नहीं रही है। मुसलमानों का भी भला करने की नहीं रही।”
बहुत संभव है कि पीएम मोदी के पास अंबेडकर के विचारों का समर्थन करने के लिए बहुत कुछ न हो, इसलिए उन्हें हाल ही में संसद में पारित वक्फ संशोधन बिल की बात सूझी हो। लेकिन मुसलमानों के प्रति हमदर्दी दिखाकर कांग्रेस क्या कर लेगी? वो तो सरकार में है नहीं, सरकार में तो आप हैं। एक तरफ बीजेपी को दलितों का वोट चाहिए और कांग्रेस को मुसलमान पार्टी अध्यक्ष न बनाने पर कोस रहे हैं? कांग्रेस के पास तो पिछले तीन वर्ष से दलित पार्टी अध्यक्ष है, और आगे भी दो वर्ष तक उनका कार्यकाल है।
क़ायदे से तो बीजेपी को अपनी पार्टी का अध्यक्ष किसी मुस्लिम चेहरे को बनाना चाहिए। क्योंकि बीजेपी सरकार पिछले 10 वर्षों से मुस्लिमों की भलाई के लिए ही तो तीन तलाक, धारा 370, समान नागरिक संहिता, सीएए और अब वक्फ़ बिल संशोधन पारित कराने पर अपना सबकुछ दांव पर लगाई हुई थी। बीजेपी के नए अध्यक्ष का चुनाव तो पिछले वर्ष आम चुनाव से पहले ही हो जाना था। संभवतः पीएम मोदी किसी मुस्लिम चेहरे को पार्टी का मुखिया बनाकर इंडिया गठबंधन को चारों खाने चित्त करने की जुगत में हों तो यह सबसे बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक साबित हो सकती है।
कांग्रेस को 50% मुस्लिम उम्मीदवार का सुझाव भी किसी के गले नहीं उतर रहा। पीएम मोदी अपने धुर विपक्षी दल के भीतर इन गड़बड़ियो को काफी बारीकी से देख पा रहे हैं, लेकिन अपनी पार्टी के बारे में शायद उन्हें कोई खबर ही नहीं। उनकी पार्टी में किसी जमाने में सिकन्दर बख्त, शाहनवाज हुसैन और मुख़्तार अब्बास नकवी हुआ करते थे। लेकिन अब तो एक भी सांसद या विधायक की कोई उम्मीद ही नहीं, क्योंकि बीजेपी किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट तक नहीं देती। ये कैसा मुस्लिम प्रेम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रदर्शित कर गये, जिसे उनका हिंदुत्ववादी समर्थक भी नहीं समझ पा रहा।
लेकिन पीएम मोदी को कर्नाटक कांग्रेस सरकार द्वारा हाल ही में सरकारी ठेकों में मुस्लिमों को आरक्षण दिए जाने से सख्त आपत्ति है। उनका आरोप था कि कांग्रेस मुस्लिमों के लिए कुछ नहीं करती, लेकिन दूसरों के हिस्से से मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देकर उनका हक मार रही है। पहली बात, कर्नाटक में पहले से ओबीसी और दलितों को सरकारी ठेकों में आरक्षण हासिल है। फिर कांग्रेस उन्हें कुछ देगी भी तो किसी सरकारी योजना में से ही दे सकती है, अपनी जेब से तो कभी किसी राजनीतिक पार्टी ने आजतक किसी समुदाय या वर्ग का भला नहीं किया।
लेकिन मोदी यहीं पर नहीं रुके, उन्होंने तो वक्फ़ संपत्तियों में गरीब मुस्लिमों के साथ हुई नाइंसाफी का मुद्दा उठाते हुए यह तक कह डाला कि “आज ईमानदारी से उसका उपयोग हुआ होता तो मेरे मुसलमान नौजवानों को साइकिल का पंचर बनाकर जिंदगी नहीं गुजारनी पड़ती।”
इसका अर्थ यह हुआ कि अब बीजेपी सरकार वक्फ़ संपत्ति को आम मुस्लिम समुदाय के बीच या तो बांटने जा रही है या उससे होने वाली आय गरीब मुसलमानों को मिलने वाली है? लेकिन अधिकांश मुसलमान तो इस बात पर यकीन नहीं कर रहा। देश में जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, और पश्चिम बंगाल में तो हिंसक प्रदर्शनों से राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति चरमरा चुकी है।
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ केंद्र सरकार से बिल्कुल उलट भाषा का उपयोग कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में हर जिलाधिकारी को वक्फ़ बोर्ड से संबंधित विवाद की फाइल तैयार करने के निर्देश दिए गये हैं, और यह मानकर चला जा रहा है कि वक्फ़ बोर्ड ने तमाम सरकारी और गैरसरकारी अचल संपत्तियों पर अवैध कब्जा किया हुआ है। मतलब, भाजपा के वक्फ संशोधन बिल से जमीन पर हिंदुत्ववादी समूह बल्लियों उछल रहा है, और राष्ट्रीय बहस में सरकार इसे मुसलमानों के फायदे का सौदा बता रही है।
लेकिन पीएम मोदी के इस जुमले पर सोशल मीडिया में काफी हंगामा मचा हुआ है। आमतौर पर माना जाता है कि मुसलमानों को साइकिल पंचर बनाने वाला बताने के पीछे कथित हिंदुत्त्वादी शक्तियों की सांप्रदायिक घृणा छिपी होती है, जिसे पीएम मोदी ने भी अभिव्यक्ति दे दी है। आम लोग तर्क पेश कर रहे हैं कि यदि अब्दुल पंचर बनाने वाले का काम स्तरहीन है तो हिंदू पकौड़ा बेचता है तो वह काम कैसे महान हो गया?
आखिर हाल तक ठेले-खोमचे से अपनी आजीविका कमाने वाले गरीब हिंदू के काम को भी तो कमतर ही समझा जाता था? वो तो भला हो मोदी जी का, जिन्होंने देश में सरकारी नौकरी या कॉर्पोरेट जॉब की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी, और एक गोदी मीडिया के एंकर के साथ अपनी बातचीत में कह दिया कि आखिर पकौड़ा बेचना भी तो रोजगार ही है।
इस मुद्दे पर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष, मल्लिकार्जुन खड़गे की तीखी टिप्पणी और राष्ट्रीय प्रवक्ता, सुप्रिया श्रीनेत ने पीएम मोदी पर जमकर निशाना साधा है। लेकिन यह भी तय है कि मोदी जी के भाषण को जहां सभी समाचारपत्रों में सबसे बड़ी सुर्खी बनाई गई है, विपक्ष के जवाब किसी कोने में भी जगह पा जायें तो गनीमत है।
उत्तर प्रदेश में भी इस बार अंबेडकर जयंती का सरकारी आयोजन काफी धूमधाम से हुआ। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इससे पहले 14 अप्रैल को सरकारी अवकाश रद्द कर दिया था, लेकिन चूँकि विधानसभा चुनावों की तारीख नजदीक आती जा रही है, इसलिए अंबेडकर को याद करना एक बड़ी जरूरत बन गया है। इसलिए, योगी आदित्यनाथ ने आज लखनऊ में अंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर उन्हें याद किया, लेकिन यूपी के तमाम इलाकों से अंबेडकर जयंती को लेकर जातीय संघर्ष की खबरें आ रही हैं।
अंबेडकर जयंती के अवसर पर कमजोर वर्ग के लोगों द्वारा जगह-जगह अंबेडकर प्रतिमा का अनावरण किया जाना था, लेकिन ऊंची जातियों को यह नागवार गुजरा। नतीजतन, लखनऊ के महिगावन इलाके में स्थित शिवपुरी गाँव में अंबेडकर की प्रतिमा का उद्घाटन न हो सका। यूपी पुलिस ने कानून-व्यवस्था का हवाला देते हुए उक्त स्थान को अपने कब्जे में ले लिया था। इसी प्रकार, झाँसी जिले के जरबो गाँव में 10 अप्रैल को गाँव के कुछ लोगों ने आपसी सहयोग से अंबेडकर की एक प्रतिमा खरीदी, जिसके लिए एक मंच बनाया गया। सोमवार, 14 अप्रैल को इसका विधिवत उद्घाटन हो पाता, उससे पहले ही रविवार 13 अप्रैल को गाँव के सवर्णों ने हल्ला बोल दिया। खबर है कि इस सिलसिले में पुलिस ने 30 लोगों को हिरासत में लिया हुआ है, और अंबेडकर प्रतिमा के लिए निर्मित मंच को भी बुलडोज किया जा चुका है। दलितों का आरोप है कि यह काम यूपी पुलिस ने अंजाम दिया।
कुछ इसी प्रकार की घटनाएं लखनऊ के माताई खंतारी गाँव से भी देखने को मिली हैं, जहां पुलिस ने उच्च जाति के लोगों की शिकायत पर कार्रवाई की। पुलिस की कार्रवाई के चलते कई दलित परिवारों, यहां तक कि महिलाओं को भी चोटें आई हैं। उनका दोष यही था कि वे पिछले कई वर्षों से अपने गाँव में अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित करना चाहते थे।
इस बारे में माताई खंतारी के प्रधान, वीरेंद्र रावत का बयान महत्वपूर्ण है। उनका कहना था, “हम पिछले कई वर्षों से अंबेडकर प्रतिमा के लिए तयशुदा स्थान पर प्रतिमा को स्थापित करने की मुहिम में जुटे हुए थे। सरकार हर साल अंबेडकर जयंती धूमधाम से मनाती है, लेकिन हमें ऐसा करने से वंचित किया जा रहा है। यह किस प्रकार का सम्मान है?”
असल में भाजपा के लिए सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस नहीं, बल्कि वे हिंदुत्ववादी शक्तियाँ बन चुकी हैं, जो उसके पीछे मजबूत चट्टान के तौर पर खड़ी है। पिछले 11 वर्षों में देश मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ माब लिंचिंग, लव जिहाद और न जाने क्या-क्या देख चुका है, लेकिन मुस्लिम समुदाय ने सड़क पर संघर्ष के बजाय खुद को राजनीतिक शक्ति के रूप में तब्दील कर लिया है। यह संघर्ष तो नकली साबित हुआ, लेकिन हिंदुत्ववादी व्यवस्था का दूसरा अर्थ ही मनुवादी शासन है, जिसे ऊपर से लागू कर पाना जितना कठिन है, जमीन पर लागू करना उतना ही सहज और स्वाभाविक है।
जैसे-जैसे गांवों-कस्बों और शहरों में हिंदुत्ववादी शक्तियों का परचम लहराएगा, जैसे यूपी में अचानक से करणी सेना के उभार को देखा जा रहा है, जिसने एक दलित सांसद के आवास तक को बुलडोज करने की हिमाकत की तो आम दलित, अल्पसंख्यक और ओबीसी समुदाय की क्या हैसियत हो सकती है? लेकिन जैसे ही दलित, ओबीसी समुदाय मुस्लिम अल्पसंख्यकों की तरह जवाबी हमले के तौर पर इसे चुनाव में उपयोग में लाता है, तो बीजेपी का नामोनिशान मिट जाएगा। सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं, केंद्र में भी बीजेपी का अस्तित्व नहीं रह जायेगा।
यह बात बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व बखूबी समझ रहा है, लेकिन अपने कोर वोटर्स और योगी आदित्यनाथ की उनपर मजबूत पकड़ उसे लगातार असहाय स्थिति में खड़ी कर रही है। संभवतः, यही वजह हो कि पीएम मोदी, जो आम चुनाव में तो हिंदुओं को उनकी भैंस, आभूषण चुरा लिए जाने से डरा रहे थे, आज उसके उलट बयानबाजी करते देखे जा सकते हैं। पीएम मोदी की बातों का यकीन तो अब उनका कट्टर समर्थक भी नहीं कर सकता, क्योंकि लोकसभा चुनाव में उन्होंने जो कहा, वह उस पर यकीन करे या जो आज कह रहे हैं, उस पर उसे यकीन करना चाहिए?
अंत में यकीन करने लायक बीजेपी में कोई नेतृत्व है तो वो हैं, गृहमंत्री अमित शाह, जो अपनी बात से आगे-पीछे नहीं होते। याद कीजिये, संसद के भीतर उन्होंने डॉ अंबेडकर पर क्या कहा था? अंबेडकर, अंबेडकर की इतनी रट लगाने के बजाय यदि भगवान को याद कर लेते तो सबका बेड़ा पार लग सकता है। संभवतः, इसीलिए कल अंबेडकर जयंती के अवसर पर जहां पक्ष, विपक्ष के सभी नेताओं का तांता लगा रहा, अमित शाह किसी भी सार्वजनिक मंच पर उपस्थित नहीं पाया गया।
जहां तक अंबेडकर जयंती से कुछ सार्थक पहल का प्रश्न है, तो तमिलनाडु में डीएमके मुख्यमंत्री, स्टालिन ने डॉ भीमराव अंबेडकर की दो सबसे महत्वपूर्ण रचनाओं, जाति का विनाश और हिंदू धर्म की पहेलियाँ का तमिल अनुवाद आम तमिल जनता के लिए जारी किया है। अंबेडकर ये दोनों ही रचनाएँ, वास्तव में ब्राह्मणवादी वर्चस्व और हिंदू धर्म की कुरूतियों पर कड़ा प्रहार ही नहीं करती हैं, बल्कि मौजूदा राजनीतिक हिंदुत्ववादी शक्तियों के दलित-ओबीसी के ऊपर किये जा रहे सोशल इंजीनियरिंग के एंटी डॉट का काम करने में सक्षम हैं। इंडिया गठबंधन के दल यदि स्वयं अंबेडकर की इन दोनों रचनाओं का पाठ कर लें और पूरे देश में इसका पाठ करा दें, तो बहुत संभव है कि उनके लिए राजनीतिक सूखा कई दशकों के लिए खत्म हो सकता है।
आजाद समाज पार्टी के मुखिया, चन्द्रशेखर आज़ाद ने इस अवसर पर एक मोबाइल नंबर 7292060060 जारी कर मिस्ड कॉल के जरिये आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के सदस्यता अभियान की शुरुआत की है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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