यूरोप की रूस विरोधी आक्रामकता की पहेली

रूस के खिलाफ यूरोप की युद्ध की भावना, जो उदार वादी और धुर दक्षिणपंथी तबकों में सर्वाधिक है, वह ट्रंप के सत्तारूढ़ होने के पहले से है। यह एक पहेली जैसी परिघटना है कि यूरोप रूस के खिलाफ जबरदस्त युद्ध पिपासा दिखा रहा है। यह दावा कि रूस की यूरोप को लेकर साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं हैं, जो यूरोप के शासक हिस्से बार बार दोहराते रहते हैं बिल्कुल बेतुका है।

यह नाटो है जो पूर्व की ओर बढ़ा बावजूद अपने वायदे के जो उसने मिखाईल गोर्बाचोव से किया था और रूस को उकसाया। यह नाटो के सदस्य अमेरिका और इंग्लैंड हैं, जिन्होंने रूस यूक्रेन के मिंस्क में हुए समझौते को नाकाम करवा दिया, वरना युद्ध रुक जाता।

नाटो का उद्देश्य स्पष्टतः रूस को अपने मातहत लाना और उसके भारी प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करना था, एक तरह से बोरिस येल्तसिन जब राष्ट्रपति थे, तब जैसे संबंध पश्चिमी साम्राज्यवाद से थे, उन्हें पुनः विकसित करना। यह दावा कि यह रूस है जो यूरोप को रौंदना चाहता है जैसे शीत युद्ध के दौरान दावा था कि सोवियत यूनियन यूरोप को पराधीन बनाना चाहता था, यह बेतुका और बचकाना है।

लेकिन सवाल यह है कि अमेरिका जब दोनों के बीच युद्ध विराम करवाना चाहता है, और इस तरह यूरोप के खिलाफ रूस की आक्रामकता को अमान्य कर दिया है, तब फिर यूरोप यह आरोप क्यों लगा रहा है ? यह प्रश्न जर्मनी के लिए खास तौर से प्रासंगिक है जिसका इस युद्ध के कारण काफी नुकसान हो चुका है। रूस से सस्ती गैस की बजाय अमेरिका से महंगी ऊर्जा आयात के कारण इसके उत्पादन की कीमत काफी ऊपर जा चुकी है। इसलिए उनकी कंपनियां शिफ्ट कर रही हैं और वहां विऔद्योगीकरण का खतरा उत्पन्न हो गया है।

उच्च ऊर्जा मूल्यों के कारण जीवन जीने की कीमत बढ़ गई है। जिससे मेहनतकशों की बदहाली बढ़ गई है। जर्मनी के लिए स्वाभाविक होता कि वह युद्ध विराम का समर्थन करता और अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करता। लेकिन वह युद्ध पर क्यों अड़ा हुआ है? यूरोप और अमेरिका के बीच मतांतर को अंतर्सम्राज्यवादी  प्रतिद्वन्दिता का पुनर्जीवन नहीं कहा जा सकता। यह रूस के प्रति साम्राज्यवादी रणनीति पर अलग अलग सोच को दिखाता है। लेकिन यह प्रतिद्वंदी वित्तीय कुलीनतंत्रों के बीच अंतर्विरोध से पैदा अंतर्सम्राज्यवादी प्रतिद्वंदिता नहीं है।

भूमंडलीय वित्त पूंजी की दुनियां में ऐसी प्रतिद्वंदिता लेनिन के अनुसार आर्थिक territory में शांत रहती है। इसके अलावा जैसा कि अभी हमने देखा जर्मनी और यूरोप का हित आम तौर पर रूस के साथ लड़ाई की बजाय शांति में है खास तौर से तब जब यूक्रेन युद्ध में रूस को हराया नहीं जा सका है।

बेशक यह कहा जा सकता है कि अन्तर्सम्राज्यवादी प्रतिद्वंदिता के तीखा न होने पर भी, यूरोपीय शासक वर्ग अमेरिकी सुरक्षा छतरी हट जाने के खतरे के बावजूद पीछे छूट जाने के डर से हथियारों पर खर्च बढ़ाते जा रहे हैं। इसके लिए धन उपलब्ध कराया जा सकता है, आंशिक रूप से बढ़े हुए वित्तीय घाटे तथा आंशिक रूप से कल्याणकारी मद में कटौती करके जो विश्वयुद्ध के बाद से यूरोप खर्च कर रहा था। और यह दोनों करना आसान हो जाता है रूसी खतरे का हवाला देकर।

वैश्वीकृत वित्त बड़े वित्तीय घाटे का विरोध करता है क्योंकि उसे लगता है कि इसकी मदद से जारी आर्थिक गतिविधियां और पैदा होने वाला रोजगार पूंजीवाद की वैधता के लिए चुनौती है। यह मान कर चला जा रहा है कि यह तर्क तब लागू नहीं होगा जब बड़ा वित्तीय घाटा रूस का खतरा दिखाकर हथियारों पर किया जाएगा। हालांकि इससे गतिविधि बढ़ेगी और रोजगार बढ़ेगा।

दूसरे शब्दों में बड़े वित्तीय घाटे पर यह विरोध रूसी खतरे का हवाला देकर शांत किया जा सकता है। जर्मनी के संविधान में सरकारी कर्ज बढ़ाने के लिए जो संशोधन किया गया है, उससे यही उम्मीद की जा रही है। जनता का विरोध भी बचे खुचे कल्याणकारी मद में कटौती के बावजूद रूसी खतरे का हवाला देकर शांत किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, रूसी खतरे का हवाला दिया जा रहा है ताकि यूरोपीय शासक खेमे को इस समय जरूरी लग रहा हथियारों पर खर्च को बढ़ाया जा सके।

अगर इस व्याख्या में कुछ औचित्य हो भी तब भी यह अपर्याप्त है। सबसे पहले तो यह कि रूस के प्रति यूरोप का युद्ध का रुख ट्रंप के उभार से पहले की चीज है। इसके अलावा रूस विरोधी लफ्फाजी मध्यवर्गीय उदार बुर्जुआ में अधिक है, वाम और दक्षिण की तुलना में यहां तक कि धुर दक्षिण पंथी, नव फासीवादियों से भी ज्यादा। धुर दक्षिणपंथी जर्मन AFD जर्मन शस्त्रीकरण के पूरी तरह पक्ष में है, लेकिन यूक्रेन युद्ध के सवाल पर कम उग्र है, वहां की शासक सोशल डेमोक्रेट, फ्री डेमोक्रेट्स और ग्रीन पार्टी की तुलना में। या नई विजई क्रिश्चियन डेमोक्रेट और क्रिश्चियन सोशल यूनियन की दक्षिणपंथी संश्रय की तुलना में।

इसी तरह इटली की मेलोनी हंगरी के विक्टर ओरबन रूस विरोधी सबसे युद्ध पिपासु नेताओं में नहीं हैं। जब कि वे धुर दक्षिणपंथी और नव फासीवादी हैं। इससे एक पैटर्न देखा जा सकता है। नव फासीवादी दल एक आंतरिक पराए की तलाश कर लेते हैं किसी असहाय एथनिक समूह या धार्मिक अल्पसंख्यक के खिलाफ नफरत पैदा करते हैं ताकि बेरोजगारी और बदतर होती जीवन स्थितियों को लेकर जनता के आक्रोश के विमर्श को संकट के समय में बड़ी पूंजी की बजाय उनके खिलाफ मोड़ा जा सके।

जबकि मध्यमार्गी दल ठीक इसी उद्देश्य से विमर्श को बाहरी शत्रु की ओर मोड़ने की कोशिश करते हैं जो यूरोप के मामले में रूस है। यह एक नई परिघटना है जो मध्यमार्गी दलों की उस सम्पूर्ण नाकामी से पैदा हुई है जो कींस के मांग बढ़ाने के मानक सूत्रों के प्रयोग से की गई थी। वे अर्थव्यवस्था को संकट से निकालने में नाकाम रहे।

वे वैश्विक वित्तीय पूंजी की दोनों शर्तों के कारण पंगु हो गए थे कि न तो वित्तीय घाटा बढ़ने देना है, न अमीरों पर टैक्स बढ़ाने है। जिससे वे मांग को उत्प्रेरित करने के लिए बड़ा सरकारी खर्च करने में असमर्थ थे।

मध्यमार्गी दल जो दशकों से शासन में हैं अपनी जमीन खोते जा रहे हैं, इसलिए कि नवउदारवाद की अर्थनीति के लिए वही जिम्मेदार हैं जिसने लोगों के जीवन को बदहाल किया है, और दूसरे न इससे निकलने का वह रास्ता निकल पा रही है। जाहिर है चुनावी हार की संभावना पर वे चुप नहीं बैठेंगी। वे किसी तरह इसको पलटने का प्रयास करेंगी। और वे ऐसा करती हैं बाहरी दुश्मन रूस के खिलाफ अपने को असली ताकत जताकर।

इस तरह नव उदारवाद के संकट के दौर में घरेलू चुनावी मजबूरी रूस विरोधी उन्माद को तेज करने को मध्यमार्गी दलों को प्रेरित करती है। इसके साथ ही हथियार बनाने वाली लॉबी का दबाव है। यूक्रेन युद्ध से उन्हें खूब ऑर्डर मिले हैं और खूब मुनाफा मिला है। युद्ध के जारी रहने का मतलब होगा इस मुनाफे का जारी रहना। नेतृत्वकारी जर्मन कंपनी की पूरी ऑर्डर बुक भरी हुई है। हाल ही में जर्मनी का हथियारों पर अधिक खर्च के लिए संविधान संशोधन हालत को खुशगवार बनाए रखेगा। रूसी खतरे का ढोल इसके निरंतरता को वैधता देता रहेगा। यह एक विडंबना है।

युद्धोपरांत यूरोप इस पर गौरवान्वित था इसने अपनी व्यवस्था को मानवीय बनाया है। इसने दावा किया कि इसने अपने प्रभाव के पूरे क्षेत्र में सार्वजनिक मताधिकार सुनिश्चित किया और लोकतंत्र को स्थापित किया (हालांकि ब्रिटेन में यह महिलाओं को कुछ ही साल पहले1928 में हासिल हुआ था)। इसने प्रचुर मात्रा में लोककल्याणकारी खर्च को सुनिश्चित किया, विशेषकर यूरोप में, ताकि अर्थव्यवस्था लगभग पूर्ण रोजगार के नजदीक थी और सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित किया। इसने विऔपनिवेशीकरण किया ताकि इस पर औपनिवेशिक राज्य के शोषण दमन का आरोप न लगे। इस सब के आधार पर दावा किया गया कि पूंजीवाद बदल गया है, समकालीन पूंजीवाद ने उपर्युक्त हर चीज को उलट दिया है।

बहरहाल सच्चाई यह है कि पूंजीवाद अपने अतीत के बुरे और शुद्ध रूप में वापस हो गया है। सामाजिक जनवाद पूरी तरह इस उलटने की प्रक्रिया में शामिल है। नव फासीवाद ने जो दमन छेड़ा है जो कि अधिकांश पूंजीवादी दुनिया में छा गया है, ने अब लोकतंत्र को और कमजोर कर दिया है। कल्याणकारी खर्च की कीमत पर ,यूरोप के हृदयस्थल में हथियारों पर खर्च पर बढ़ोत्तरी ने कल्याणकारी राज्य को क्षीण कर दिया है।

नव उदारवादी राज के तहत वैश्विक दक्षिण के प्राकृतिक संसाधनों पर पूंजीवादी केंद्रों द्वारा पुनः कब्जा, जिसकी की ट्रंप खुली योजना बना रहे हैं, ग्रीनलैंड और यूक्रेन के समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों, खनिजों पर कब्जा, गाजा को रियल स्टेट और पर्यटन का केंद्र बनाने, यह सब पुरानी नीतियों के पलटे जाने का प्रमाण है। यह विश्वास करना कि पूंजीवाद अपने कथित मानवीय अवतार की ओर लौट सकता है महज मृगतृष्णा है।

(न्यूज क्लिक से साभार अनुवाद लाल बहादुर सिंह )

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