चीन ने व्यापार युद्ध की चुनौती को स्वीकार कर अमेरिका के चेहरे से यह नकाब उतारने की पहल की है कि अपने ढलान युग में यह महाशक्ति अपने आदेश से सारी दुनिया का आर्थिक एजेंडा तय करने की हैसियत में है। चीन के इस कदम की तुलना में तीन साल पहले रूस की सैन्य पहल से की जा सकती है, जब उसने यूक्रेन में विशेष कार्रवाई शुरू कर अमेरिका और उसके नेतृत्व वाले नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) की रणनीतिक क्षेत्र में शर्तें थोप सकने की ताकत को चुनौती दी थी। अमेरिकी नेतृत्व दुनिया में बदले शक्ति संतुलन को स्वीकार करने की तत्परता दिखा पाता, तो संभव है कि 2022 में दुनिया यूक्रेन युद्ध और अब उससे भी मारक व्यापार युद्ध के दुष्प्रभावओं से बच गई होती।
डॉनल्ड ट्रंप ने दूसरे कार्यकाल के लिए अमेरिका का राष्ट्रपति पद संभालने के बाद फरवरी में टैरिफ वॉर (आयात शुल्क युद्ध) शुरू किया। तब उन्होंने चीन पर पहले से लगे टैरिफ के अतिरिक्त 10 फीसदी नया शुल्क लगाया। मार्च में उन्होंने दस प्रतिशत और टैरिफ चीन पर बढ़ाया। चीन ने इसका जवाब कई उत्पादों पर दस से 15 प्रतिशत शुल्क लगा कर दिया।
तब वॉशिंगटन स्थित चीनी दूतावास ने सोशल मीडिया साइट एक्स पर कहा था- “अगर अमेरिका व्यापार युद्ध- या किसी अन्य प्रकार का युद्ध चाहता है, तो हम उसे अंत तक लड़ने के लिए तैयार हैं।”
(https://www.bbc.com/news/articles/c4gmd3g2nzqo)
चूंकि पश्चिमी देशों पर तकरीबन 300 साल से बाकी दुनिया पर राज करने की कारण आत्म-श्रेष्ठता की बनी मानसिकता आज भी हावी है, इसलिए वे बाकी देशों की बातों को ध्यान देने लायक नहीं मानते। चीन ने इस चेतावनी के साथ साफ कर दिया था कि वह व्यापार घाटे संबंधी अमेरिकी शिकायत पर बातचीत करने को इच्छुक है, मगर अमेरिका की एकतरफा कार्रवाइयों को सहने के लिए वह तैयार नहीं है।
अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के मुताबिक गुजरे ढाई महीनों में चीन ने सीधी वार्ता के लिए ट्रंप प्रशासन से संपर्क करने की लगातार कोशिश की। मगर अमेरिकी अधिकारियों ने ऐसी हर कोशिश को ठेंगे पर रखा।
(https://www.wsj.com/world/china/china-trump-tariff-foreign-policy-6934e493?mod=mhp)
ट्रंप इस गुमान में रहे कि जैसे ही वे कथित reciprocal टैरिफ लगाएंगे, चीन सहित बाकी दुनिया की तमाम सरकारें उनकी शर्तों के मुताबिक बातचीत के लिए गिड़गिड़ाती हुई भागी आएंगी। कुछ- बल्कि अधिकांश देशों के मामले में ऐसा हुआ भी है। मगर चीन ने मुकाबला करने का माद्दा दिखाया है।
मगर चीन इस बात को समझने का कौशल दिखाया है कि मामला सिर्फ टैरिफ का नहीं है। जो देश तुरंत टैरिफ घटाने या अमेरिकी शर्तों के मुताबिक बातचीत करने के लिए तैयार दिखे, उन पर अमेरिका ने अन्य शर्तें भी थोप दीं। ध्यान दीजिएः
- यूरोपियन यूनियन (ईयू) ने प्रस्ताव रखा कि वह अमेरिका से आयातित सभी वस्तुओं पर आयात शुल्क शून्य कर देगा। मगर ट्रंप ने इसे यह कहते हुए ठुकरा दिया कि अतीत में ईयू ने अमेरिका के साथ “बहुत खराब व्यवहार” किया है।
- दक्षिण कोरिया के कार्यवाहक राष्ट्रपति से फोन पर वार्ता के बाद ट्रंप ने जो कहा, उसके बाद किसी के भी मन में अमेरिकी मंशा को लेकर शक नहीं बचना चाहिए। ट्रंप ने कहा- ‘इसी तरह हम अनेक देशों से चर्चा कर रहे हैं। दक्षिण कोरिया की तरह ही हम उनके सामने अन्य मुद्दे भी रख रहे हैं, जिनका संबंध व्यापार और टैरिफ से नहीं है। यह वन स्टॉप शॉपिंग है।’
- भारतीय अधिकारियों को इस बात का अहसास पहले ही हुआ होगा, जब टैरिफ घटा कर ट्रंप प्रशासन को मना लेने की उनकी सोच नाकाम हो गई। अमेरिका ने द्विपक्षीय व्यापार वार्ता में तमाम तरह की “गैर- टैरिफ” बाधाओं से संबंधित मसलों को भी एजेंडे में रख दिया।
तो साफ है कि ट्रंप का प्रोजेक्ट सिर्फ टैरिफ से अमेरिका को होने वाले व्यापार घाटे को पाटने का नहीं है। बल्कि इसके जरिए वे पूरी विश्व व्यवस्था को अपने अनुरूप ढालना चाहते हैं। वे ऐसा ढांचा बनाना चाहते हैं, जिसमें अमेरिकी अभिजात्य के हित सर्वोपरि हों और बाकी सारी दुनिया उसे साधने के लिए काम करे।
जिस विवादास्पद फॉर्मूले के आधार पर reciprocal टैरिफ तय किए गए हैं, उनके बारे में खुद ट्रंप प्रशासन के अधिकारियों ने कहा है कि इसमें कथित करेंसी मैनुपुलेशन, गैर- टैरिफ एवं अन्य व्यापार बाधाओं से अमेरिकी कंपनियों को हो रहे नुकसान को भी शामिल किया गया है! तो साफ है कि ट्रंप ने अन्य देशों के सामने पूर्ण समर्पण या अमेरिका के आगे सीधे तन कर खड़ा होने के अलावा कोई और विकल्प नहीं छोड़ा है। चीन ने इसे समझा है।
- चीन पर पहले अमेरिका ने 34 प्रतिशत नया आयात शुल्क लगाया।
- इस एलान के तुरंत बाद चीन ने भी इतना ही शुल्क अमेरिकी आयात पर लगा दिया। साथ ही उसने सात प्रमुख रेयर अर्थ खनिजों के अमेरिका को निर्यात पर प्रतिबंध भी लगा दिया और कई अमेरिकी कंपनियों को अपने यहां प्रतिबंधित कर दिया।
साफ संकेत हैं कि चीन के ऐसे कदम का अंदाजा ट्रंप, उनके प्रशासन के अधिकारियों और यहां तक कि अमेरिका के कथित आर्थिक विशेषज्ञों एवं विश्लेषकों को नहीं था। कम-से-कम पिछले चार दशक से उन्हें ऐसे जवाब सुनने का तजुर्बा नहीं है। तो इससे अचंभित ट्रंप ने पहले कहा कि वे चीन ऐसा कदम उठाने की स्थिति में नहीं है। फिर धमकी दी कि अगर नौ अप्रैल तक चीन ने ये कदम वापस नहीं लिया, तो वे 50 फीसदी और टैरिफ लगा देंगे।
इस पर चीन की प्रतिक्रिया काबिल-ए-गौर है। वहां के वाणिज्य मंत्रालय ने कहा- ‘अमेरिका की टैरिफ बढ़ाने की धमकी अपनी गलती को दोहराना होगा।… अगर अमेरिका इस रास्ते पर आगे बढ़ा तो उसका संकल्पबद्ध जवाब देने के क्रम में चीन आखिरी हद तक जाएगा।’ मगर ट्रंप नहीं माने। उन्होंने नौ अप्रैल से टैरिफ और बढ़ा दिया है। अब चीन पर टैरिफ 104 प्रतिशत हो गया है। अब खबर है कि चीन का अगला कदम अमेरिका की सेवा क्षेत्र की कंपनियां बनेंगी।
तो व्यापार युद्ध छिड़ चुका है। मगर ट्रंप इसमें कमजोर जमीन पर खड़े हैं। विश्वव्यापी टैरिफ वॉर से अमेरिका को हो रहे माली नुकसान ने वहां असंतोष भड़का दिया है।
- ट्रंप के समर्थक खेमे में इससे दरार पड़ रही है।
- रिपब्लिकन पार्टी में भी फूट पड़ गई है।
- वॉल स्ट्रीट में उनके समर्थक अरबपति उनके इस कदम से असहमति जताने लगे हैं।
- यहां तक कि इस मुद्दे पर ट्रंप के खास समर्थक इलॉन मस्क भी अलग राग अपालते सुने गए हैँ।
- वित्त क्षेत्र विशेषज्ञ इस कदम के बेतुकेपन की चर्चा करने लगे हैं।
यह चर्चा जोर पकड़ गई है कि देश के अंदर बन रहे दबाव के कारण ट्रंप घोषित reciprocal टैरिफ को कुछ समय के लिए टाल सकते हैं।
मगर इस सारे परिदृश्य से चीन के साथ छिड़े व्यापार युद्ध में किसी राहत की आशा नहीं है। इसलिए कि आर्थिक और तकनीकी महाशक्ति के रूप में चीन का उदय ही मुख्य कारण है, जिसकी वजह से अमेरिकी ढलान की कथा तैयार हुई है। चीन के उदय को रोकना अब अमेरिकी की राष्ट्रीय नीति है। इस पर द्वीपक्षीय राजनीतिक सहमति है। इसके लिए ही गुजरे 14 साल यानी 2011 से- जब तत्कालीन बराक ओबामा प्रशासन ने pivot to Asia नीति का एलान किया था- अमेरिका और पश्चिमी दुनिया ने तमाम रणनीतियां बुनी हैं। इसलिए बाकी दुनिया के लिए अमेरिका की टैरिफ या व्यापार नीति चाहे जो भी रहे, चीन के साथ छिड़ा व्यापार युद्ध उससे अप्रभावित रहेगा।
- यह लगभग पुष्ट सूचना है कि इस महीने के उत्तरार्द्ध में ट्रंप प्रशासन अमेरिकी बंदरगाहों तक आने वाले चीन में निर्मित जहाजों पर 15 लाख डॉलर तक की फीस लगा देगा।
- जिन जहाजरानी कंपनियों के पास चीन में बने जहाज हैं या जिन्होंने चीनी कंपनी को नए जहाज के लिए ऑर्डर दिए हुए हैं, उनके जहाजों के अमेरिकी बंदरगाहों पर आने पर दस लाख डॉलर तक की फीस लगाए जाने की चर्चा है।
(https://x.com/typesfast/status/1909362292367802840)
ट्रंप प्रशासन को आगाह किया गया है कि इस कदम का विश्व व्यापार पर मारक असर होगा। इससे कोरोना काल जैसी परिवहन समस्या खड़ी हो सकती है। उसका खुद अमेरिकी व्यापार पर अति हानिकारक प्रभाव होगा। ऐसा इसलिए कि आज व्यापार परिवहन में लगे निजी जहाजों के बीच लगभग तीन चौथाई चीन में निर्मित हैं और दुनिया की कुल जहाज निर्माण क्षमता का 55 प्रतिशत आज चीन में है।
चीन की इन जैसी क्षमताओं ने ही पश्चिम में असुरक्षा का भाव पैदा किया है। इसी से उन्हें अहसास हुआ कि उत्पादक क्षमता का खुद विकासशील देशों में हस्तांतरण कर अपनी अर्थव्यवस्था के संपूर्ण वित्तीयकरण (financialization) का जो रास्ता उन्होंने तीन दशक पहले चुना, उसने उनकी हर क्षमता को खोखला कर दिया है। इसका अपवाद सिर्फ जर्मनी जैसे इक्का-दुक्का देश रहे, मगर 2022 में छिड़े यूक्रेन युद्ध के दौरान रूस विरोधी लामबंदी में शामिल होकर उन्होंने सस्ती ऊर्जा के अपने स्रोत खुद बंद कर लिए और यह उसके लिए आत्मघाती साबित हुआ है। चीन ने अपने विशेष विकास मॉडल के साथ इसी पश्चिमी भूल का लाभ उठाया है। मगर अब बात बहुत आगे जा चुकी है।
चीन ने ट्रंप के छेड़े व्यापार युद्ध में उतरने का फैसला जिस तैयारी के आधार पर किया, वह काबिल-ए-गौर है। इसका पहला पहलू पिछले आठ साल में की गई तैयारियां हैं। डॉनल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में चीन के साथ व्यापार युद्ध की शुरुआत की थी। बताया जाता है कि तब चीन उसके लिए तैयार नहीं था। नतीजतन, अचानक हुए हमले से उसकी अर्थव्यवस्था कुछ डगमगाई। लेकिन उससे चीनी नेतृत्व ने सबक लिया कि पश्चिम उसके उदय को रोकने के लिए अब आक्रामक हो गया है और वक्त आ गया है जब वह निर्णायक युद्ध के लिए अपने को तैयार करे। तो,
- 2018 के बाद से चीन ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर अपनी निर्भरता घटाई है। तब उसका 20 फीसदी से अधिक निर्यात अमेरिका जाता था, अब यह तकरीबन साढ़े 14 प्रतिशत है।
- इस बीच चीन ने दस दक्षिण पूर्वी एशियाई देश के संघ आसियान से व्यापार संबंध बढ़ाने पर ध्यान दिया। regional comprehensive economic partnership (RCEP) के जरिए इन देशों से मुक्त व्यापार का रास्ता उसने खोला। RCEP में जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी शामिल हैं।
- बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव से जुड़े देशों के साथ व्यापार बढ़ाने पर उसने जोर दिया। आज 140 से ज्यादा देश इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना का हिस्सा हैं।
- अफ्रीकी देशों के साथ उसने व्यापार को प्राथमिकता दी। अब वह खनिज समृद्ध इस महाद्वीप के ज्यादातर देशों का सबसे बड़ा व्यापार पार्टनर है।
- रूस के साथ मिल कर ब्रिक्स के विस्तार को उसने अपनी प्राथमिकता बनाई। इसके सदस्यों के बीच भुगतान की नई व्यवस्था बनाने पर उसने खास जोर दिया है।
चीन आज लगभग लगभग सवा सौ देशों का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। पिछले तीन वर्षों में उसने इन देशों के साथ अपनी मुद्राओं में भुगतान को प्राथमिकता दी है। इसके लिए उसने एम-ब्रिज जैसा सिस्टम तैयार किया है। यह डॉलर पर अपनी निर्भरता घटाने की उसकी बड़ी योजना का हिस्सा है। अभी पिछले महीने ही
- चीन के सेंट्रल बैंक- पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने आसियान के सभी सदस्य देशों और पश्चिम एशिया के छह देशों के साथ डिजिटल रेनमिनबी क्रॉस बॉर्डर सेटलमेंट सिस्टम को सक्रिय किया। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह चीनी मुद्रा में भुगतान की डिजिटल प्रणाली है। इसका मकसद अमेरिकी नियंत्रण वाली प्रणाली SWIFT network से अलग रहते हुए भुगतान करना है।
एक तरफ चीन की ये तैयारियां हैं, तो उस समय अपना किला बचाने की जद्दोजहद में जुटे अमेरिका में क्या हाल है, शुरू हो चुके व्यापार युद्ध के परिदृश्य को समझने के लिए उस पर एक निगाह डालना भी उपयोगी होगा। इस संबंध में अमेरिका के अरबपति हेज फंड मैनेजर रे डैलियो के आकलन से सहज ही सहमत हुआ जा सकता है। Principles of Dealing with Changing World Order और How Countries Go Broke: The Big Cycle जैसी किताबों के लेख डैलियो ने अमेरिका के लिए मौजूदा चिंताजनक प्रवृत्तियों का उल्लेख किया हैः
- अत्यधिक ऋण के कारण मौद्रिक एवं आर्थिक व्यवस्था का क्षरण।
- आंतरिक राजनीतिक व्यवस्था में बिखराव
- अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन, और
- प्राकृतिक आपदाओं का अत्यधिक विनाशकारी रूप हासिल कर लेना
- आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आदि जैसी तकनीकों के कारण जीवन के हर क्षेत्र में आ रहा बदलाव, जिससे विभिन्न देशों के आर्थिक एवं सैनिक अंतर्संबंधों में बड़े बदलाव की संभावना पैदा हुई है।
डैलियो ने एक सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा है- ‘फिलहाल, घोषित टैरिफ और बाजारों एवं अर्थव्यवस्था पर उनके प्रभाव पर उचित ही ध्यान टिका हुआ है। लेकिन जिन कारणों से यह परिस्थिति पैदा हुई है, उन पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। जबकि इन कारणों का परिणाम बहुत बड़े उथल-पुथल के रूप में सामने आने वाला है।’
(https://x.com/RayDalio/status/1909296189473693729)
यानी अमेरिका और चीन के व्यापार युद्ध का दायरा बड़ा है। अभी नहीं कहा जा सकता कि यह युद्ध सिर्फ व्यापार के दायरे में सिमटा रहेगा, या यह अधिक खतरनाक रूप ले लेगा। मगर यह अनुमान जरूर लगाया जा सकता है कि यह एक निर्णायक युद्ध होगा। यह भावी विश्व व्यवस्था का रूप तय करेगा।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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