गिरिडीह। 19 और 20 जून 2024 को देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एनआईए) द्वारा झारखंड के बोकारो और गिरिडीह में श्रमिक संगठनों से जुड़े 22 जगहों पर छापेमारी की गई है। इस छापेमारी में असंगठित मज़दूर मोर्चा (एएमएम) को निशाना बनाया गया जो झारखंड के असंगठित मजदूरों के अधिकारों के लिए काम करता है। आश्चर्यजनक बात है कि इस संगठन को काम करते हुए अभी एक साल भी नहीं हुआ है और अभी से इसे निशाना बनाया जा रहा। इसके साथ ही मज़दूर संगठन समिति (एमएसएस) से संबंधित लोगों के यहां पर भी छापेमारी की गई। एमएसएस को झारखंड की भाजपा सरकार ने 2017 में प्रतिबंधित कर दिया था। हाई कोर्ट के आदेश के बाद प्रतिबंध हटाया गया लेकिन फिर दोबारा से राज्यपाल के आदेश से एमएसएस को प्रतिबंधित कर दिया गया है।
मजदूर संगठन पर यह छापेमारी पहली बार नहीं हुई है। आज से लगभग ठीक एक साल पहले मज़दूर संगठन समिति (एमएसएस) के कार्यालय और उनसे जुड़े लोगों पर एनआईए द्वारा छापेमारी के बाद पूछताछ भी की गई थी। उसके कुछ महीनों बाद इसको प्रतिबंधित कर दिया गया। छापेमारी के बाद एनआईए ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में बयान जारी करते हुए दावा किया है एमएसएस जो की प्रतिबंधित ग़ैरक़ानूनी संगठन और एएमएम दोनों भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी के मुखौटा संगठन है। इस तरह की कारवाईयों से तस्वीर बिलकुल साफ़ है की नई सरकार की दमनकारी नीति जारी रहेंगीं, चाहे विपक्ष कितना भी मज़बूत क्यों न हो। इसका कारण साफ है कि विपक्ष जनता पर हो रहे दमन के ख़िलाफ़ खुलकर बोलने को तैयार नहीं इसलिए मोदी सरकार 3.0 निश्चित रूप से जनता के लिए ज्यादा खतरनाक साबित होने वाली है। और यह सिलसिला आगे पांच साल तक निर्विरोध से चलने वाला है।
इंडिया गठबंधन के सहयोगी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) को इस मुद्दे पर तो सांप सूंघ गया है। केंद्र में सरकार बनते ही झारखंड के मेहनतकश जनता पर हमला जारी है लेकिन झामुमो के तरफ से इसका कोई भी विरोध नहीं आया है। हेमंत सोरेन यह बयान दे रहे कि झारखंड क्रांतिकारियों की धरती है, इसलिए वह जेल जाने से नहीं डरते। लेकिन जब क्रांतिकारी लोग शोषण के खिलाफ बोल रहे हैं और इनपर फासीवादी दमन किया जा रहा तब उनकी चुप्पी उनका मौन समर्थन ही जाहिर करती है। इसलिए यह समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है कि उनकी लड़ाई भी सिर्फ राजनीतिक सत्ता की लड़ाई है और उत्पीड़ित व शोषित जनता पर दमन करने के दोनों तैयार रहते हैं।
एमएसएस के इतिहास की बात करें तो यह झारखंड का तीस साल पुराना श्रमिक संगठन है। यह झारखंड के सबसे पुराने औद्योगिक इलाके जैसे बोकारो, धनबाद और गिरिडीह में ठेका मज़दूरों और कोयला खदानों में काम करने वाले मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई लड़ता रहा है। इसके साथ विकास के नाम पर आदिवासियों के जबरन विस्थापन और माओवादी के नाम पर हो रहे फ़र्ज़ी मुठभेड़ के ख़िलाफ़ भी संघर्ष करता आया है। एमएसएस पिछले कई सालों से भारतीय फासीवादी राज्य के निशाने पर था लेकिन अभी और इसके पहले की स्थिति में ये अंतर है अब देश की सबसे प्रीमियर जांच एजेंसी को एक श्रमिक संगठन पर दमन करने का काम सौंपा गया है ताकि माओवाद के नैरेटिव के नाम पर मजदूरों के बढ़ते आंदोलन को दबाया जा सके और इस तरह कॉरपोरेट की लूट के लिए रास्ता बिलकुल साफ़ कर दिया जाए। मजदूर संगठन पर दमन का सीधा अर्थ है उनकी सामूहिक विरोध को रोकना ताकि मज़दूरों के शोषण और आदिवासियों की ज़मीन की लूट में आने वाली हर बाधा को हटाया जा सके।
एमएसएस को झारखंड में बीजेपी सरकार द्वारा दिसंबर 2017 में प्रतिबंधित किया गया था। यह प्रतिबंध आपराधिक क़ानून संशोधन एक्ट 1908 के खंड 16 के तहत किया गया। प्रतिबंध का कारण बताते हुए सरकार ने दावा किया कि एमएसएस माओवादी पार्टी का एक फ्रंटल ऑर्गेनाइज़ेशन है। प्रतिबंध के बाद सरकार ने डर फैलाने के उद्देश्य से एमएसएस के लोगों को गिरफ्तार करना शुरू किया और उनके कार्यालयों को सील कर दिया। साल 2015 में एमएसएस द्वारा स्थापित “श्रमजीवी अस्पताल” जिसे मजदूरों के सामूहिक सहयोग से चलाया जाता था और जिसमें सभी मजदूरों का इलाज मुफ़्त में किया जाता था, उसे भी सील कर दिया गया।
इससे ज्यादा शर्म की बात एक देश के लिए कुछ नहीं हो सकती है जहां पर डॉक्टरों और अस्पतालों की पहले ही इतनी कमी हो, वहां कॉरपोरेट हित को साधने लिए मेहनतकश लोगों द्वारा संचालित एक अस्पताल को बंद कर दिया जाए। इस दमन का एक ही मकसद था – कॉरपोरेट के खिलाफ हर संगठित आवाज़ को दबाया जा सके। बीच-बीच में एमएसएस के नाम पर सनसनी बनाने के लिए छापेमारी होती रही और इसके सदस्यों को माओवादी गतिविधि करने के नाम पर जेल में डाला गया। राज्य सरकार के निशाने पर एमएसएस तब ही आ गया था जब भाजपा द्वारा संथाल परगना टेनेंसी एक्ट 1949 और छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट 1908 में प्रस्तावित संशोधन के खिलाफ जारी जबरदस्त आंदोलन में यह संगठन एक जरूरी भूमिका निभाते हुए जनता के आक्रोश को एक मूर्त रूप दे रहा था।
एमएसएस झारखंड में राजकीय दमन के ख़िलाफ़ एक मज़बूत आवाज़ थी। झारखंड में मोतीलाल बास्के जैसे न जाने कितने मजदूरों और आदिवासियों की माओवादी होने के फर्जी आरोप में सीआरपीएफ द्वारा हत्या कर दी गई और अभी भी बदस्तूर जारी है। इन सभी मुद्दों को एमएसएस ने प्रमुखता से उठाया था। मोतीलाल बास्के एक गिरिडीह के मधुबन में काम करने वाला एक डोली मजदूर था। एमएसएस के प्रयास से ही यह मामला सामने आया था और चर्चा का विषय बना था। इन्हीं कारणों से भाजपा की रघुवर सरकार ने एमएसएस को प्रतिबंधित कर दिया था।
रांची हाईकोर्ट के फ़ैसले की अवमानना करते हुए एमएसएस पर दोबारा प्रतिबंध
चार साल के प्रतिबंध के बाद फरवरी 2022 में रांची हाई कोर्ट ने एमएसएस के ऊपर से प्रतिबंध हटा दिया। फ़ैसला देते समय जस्टिस चंद्रशेखर ने कहा “राज्य की तरफ़ से यह सुझाव देने के लिए कोई सामग्री प्रस्तुत नहीं की गई कि आपराधिक क़ानून संशोधन क़ानून की धारा 16 के तहत अधिसूचना मजदूर संघर्ष समिति के ख़िलाफ़ पर्याप्त सबूत के आधार पर जारी की गई थी कि यह चरमपंथी गतिविधि में शामिल माओवादी पार्टी का एक प्रमुख संगठन है और नक्सलियों के मुद्दे का प्रचार कर रहे है” अपने फ़ैसले में हाईकोर्ट ने राज्य द्वारा इस मामले पर मुक़दमा चलाने के तरीके पर भी अपनी नाराज़गी दर्ज की। कोर्ट ने कहा कि झारखंड सरकार ने समय देने के बावजूद अपने हलफ़नामे में पूरे तथ्यों का उल्लेख नहीं किया। जस्टिस चन्द्रशेखर ने टिप्पणी करते हुए कहा कि इस दौरान सरकार का रवैया ग़ैर जिम्मेदार था। हाई कोर्ट के फ़ैसले से यह बात सिद्ध हो जाती है ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व फासीवादी भाजपा सरकार ने एमएसएस पर अलोकतांत्रिक तरीके से प्रतिबंध लगाया था जिसका कोई आधार नहीं था।
एमएसएस पर दमन का सिलसिला यहीं पर नहीं रुका। लगभग एक साल के बाद 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस मनाने के बाद अहले सुबह ही 2 मई 2023 को एनआईए द्वारा झारखंड और बिहार में छापेमारी की गई। इसी समय एमएसएस के नेताओं के यहां भी छापेमारी की गई और एनआईए ने दावा किया कि एमएसएस के लोग माओवादी पार्टी के ओवर ग्राउंड वर्कर (OWG) है जो झारखंड में माओवादी विचारधारा को फैलाने का काम कर रहे है। ओवर ग्राउंड वर्कर एनआईए की नई शब्दावली का नया शब्द है। इस ठप्पे का प्रयोग शहरों के एक्टिविस्ट, स्टूडेंट्स, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और न्यायपसंद लोगों पर सरकार द्वारा विच हंट के लिए इस्तेमाल किया जा रहा। अक्टूबर 2022 में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी पीठ थपथपाते हुए कि कहा कि कलम वाले या बंदूक वाले माओवादी – दोनों तरह के माओवादी का खात्मा किया जाना चाहिए और इसके खिलाफ बड़ी लड़ाई के लिए उनकी सरकार ने यूएपीए जैसे कड़े कानून बनाए। मोदी का यह भाषण सरकार की आगे की नीतियों का सूचक था। कलम के माध्यम से सरकार की मुखालफत करने वाले लोगों को ओवर ग्राउंड वर्कर बोलकर उन्हें यूएपीए के तहत फर्जी केसों में फंसाकर लंबे-लंबे समय तक जेलों में रखा जा रहा। मजदूर नेताओं को भी इसी के तहत ओवर ग्राउंड वर्कर कहा गया।
एनआईए की छापेमारी और एमएसएस के लोगों को ओवर ग्राउंड वर्कर बोलने से यह तस्वीर बिलकुल साफ़ हो गई थी की यह मजदूर संगठन अब फासीवादी सरकार के निशाने पर है। इसके साथ चार महीने के बाद ही अगस्त 2023 में एमएसएस को दोबारा प्रतिबंधित कर दिया गया।
प्रतिबंध समाधान नहीं है बल्कि लंबे समय तक राजनीतिक असहमति को दमन करने का साधन मात्र है
आज़ादी के बाद से ही भारतीय राज्य कि यह परंपरा रही है अगर किसी समस्या का समाधान वह नहीं करना चाहता है तो वह उससे जुड़े संगठनों को प्रतिबंधित देता है। चाहे वह अलगावाद, माओवाद या राष्ट्रीयता के सवाल से जुड़ा हुआ मामला हो या फिर कोई और मामला। प्रतिबंध के बाद में उसके नाम पर सालों तक दमन चलता रहता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी पर प्रतिबंध लगाना है। माओवादी पार्टी पर बीस साल पहले प्रतिबंध लगाया गया था। इन बीस सालों में सबसे जायदा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों, बुद्धिजीवी, लेखकों, प्रोफेसर, श्रमिक संगठनों के नेताओं को माओवादी पार्टी से संबंध होने के आरोप में लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा। और सैकड़ों लोग न्यायिक प्रक्रिया के बाद में निर्दोष साबित होकर बाहर आए।
लेकिन आज भी इसी माओवादी ठप्पे के नाम हज़ारों लोगों को जेल में बंद करके रखा गया है जिनकी रिहाई की उम्मीद दूर तक नज़र नहीं आती है। इसके अलावा छापेमारी के माध्यम से भी प्रगतिशील लोगों को माओवादी कहा जा रहा ताकि आम जनता उनसे अलग- थलग हो जाए। आज आए दिन माओवादी के नाम पर एनआईए और उसके साथ राज्य सरकारों की पुलिस व अन्य विशेष एजेंसियां छापेमारी करती रहती है और लोगों को गिरफ्तार करती रहती है। बहुत बार तो ऐसा भी हुआ है कि उन स्थानों पर भी छापेमारी की गई है जिस जगह को सरकार कई सालों पहले नक्सल मुक्त घोषित कर चुकी है।
इसी तरह चौदह मई 2024 को लिबरेशन टाइगर ऑफ़ तमिल ईलम (LTTE) पर प्रतिबंध को पांच साल के लिए दोबारा बढ़ा दिया गया। वह भी तब जब भारत में कई सालों से इस संगठन की कोई गतिविधि नहीं है। भारत तो दूर की बात है, श्रीलंका में जहां से इसकी स्थापना हुई थी, वहां भी उसकी कोई गतिविधि नहीं है। इससे तीन महीने पहले दो फरवरी को एनआईए द्वारा तमिलनाडु में इस संगठन से जुड़े गतिविधि के नाम पर छापेमारी की गई थी। यह छापेमारी ‘नाम तमिलार कातची’ (NTK) नामक राजनीतिक पार्टी से जुड़े यूट्यूबर और पत्रकार ए दुराईमुरुगन के यहां हुई है। इस पार्टी की स्थापना 1958 में हुई और इसके कामकाज का आधार तमिलनाडु है। पार्टी ने छापेमारी के खिलाफ बयान देते हुए कहा कि भाजपा और डीएमके – दोनों एक छोटे राजनैतिक दल को दबाने के लिए एनआईए का प्रयोग कर रहे हैं। एनटीके पार्टी के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य है कि 2021 के तमिलनाडु विधानसभा में 234 में से 117 सीटों पर महिलाओं को खड़ा किया था। तमिलनाडु के इतिहास में पहली बार किसी ट्रांसजेंडर को उम्मीदवार के रूप में खड़ा करने वाली पार्टी भी यही थी।
प्रतिबंधन की यही स्थिति पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के साथ भी है। 28 सितंबर 2022 में मोदी सरकार ने इसे गैरकानूनी संगठन करार देते हुए 5 साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया। प्रतिबंध के पहले 22 सितम्बर से लेकर 27 सितम्बर के बीच 250 से अधिक लोगों को पूरे देशभर से गिरफ्तार किया गया। मोदी सरकार ने इतने सारे लोगों को एनआईए के माध्यम से एक साथ लोगों को गिरफ्तार किया और उनका संबंध सिमी, आईएसआईएस और जमात उल मुजाहिदीन बांग्लादेश से जुड़ा बता कर सनसनी और डर फैलाया। नतीजा यह हुआ कि देश के किसी भी कोने से पीएफआई के समर्थन में कोई ठोस आवाज़ नहीं उठी।
दो साल पहले प्रतिबंध किए इस संगठन के नाम पर आज आये दिन एनआईए द्वारा छापेमारी होती रहती है और मुसलमानों को गिरफ्तार कर जेलो में भरा जा रहा है। आज सच्चाई यह है कि इस दमन चक्र का कोई अंत नज़र नही आ रहा है जब तक पीएफआई पर प्रतिबंध लागू है। कुल मिलाकर कहें तो भारतीय राज्य किसी भी मसले का समाधान की जगह जनता के आक्रोश को लाठी- डंडे, एफआईआर, मुकदमे और प्रतिबंध की मदद से दबाने की कोशिश करता है। झारखंड के मजदूर संगठनों पर प्रतिबंध भी इसी दमनचक्र की एक कड़ी है। जब आम जनता अपने अधिकार के लिए मुखर होकर आगे आती है तो अंततः उसे चुप कराने की साजिश रच दी जाती है। यह सीधे-सीधे नागरिकों के संवैधानिक अधिकार का उल्लघंन है।
श्रमिक संगठनों के दमन पर देश भर के प्रगतिशील लोग और संगठन चुप क्यों ?
पिछले एक साल में झारखंड में एनआईए द्वारा दो बार मजदूर संगठन के यहां छापेमारी हो चुकी है। इसमें मज़दूर संगठन समिति एमएसएस को माओवादी पार्टी का फ्रंटल ऑर्गेनाइज़ेशन घोषित के उस पर प्रतिबंध लगा चुकी है। और अभी हाल ही में बने एएमएम को सरकार ने माओवादी पार्टी का फ्रंटल ऑर्गेनाइज़ेशन घोषित कर दिया है। इसकी बहुत कम संभावना है कि असंगठित मजदूरों के बीच काम करने वाले इस संगठन को सरकार प्रतिबंधित ना करे। लेकिन इतना सब होने के बावजूद इस मामले पर पर पूरी तरह चुप्पी है। ऐसा नहीं है कि लोग गलत के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा रहे। लेकिन यह उठती आवाज ‘सेलेक्टिव’ है। किस मुद्दे पर बोलना है और किस पर नहीं बोलना है यह मानो पहले से तय है।
अगर आप उस खांचे में फिट बैठते है तो हो सकता है न्यूजक्लिक और अरुन्धति रॉय की तरह आपके लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आवाज़ उठाई जाए। अगर आप खांचे में ‘अनफिट’ साबित हुए तो यह भी हो सकता है आप सालों-साल जेल में रहकर आ जाएं, आपके संगठन पर फर्जी आरोप लगाकर उसे प्रतिबंधित कर दिया जाए, लेकिन आपके ऊपर हो रहे दमन पर बोलने वाला कोई नहीं होगा।
इससे पहले की एएमएम जैसे जरूरी मजदूर संगठन हमारी गहन चुप्पी और फासीवादी साजिश का शिकार हो जाए, और साम्राज्यवाद की हितैषी मोदी सरकार को मजदूरों के शोषण की खुली छूट मिल जाए, आज देश भर में दमन के खिलाफ एक व्यापक मोर्चा खोला जाना चाहिए और मुखर रूप से मोदी सरकार के साथ-साथ एनआईए जैसी एजेंसियों की मुखालफत की जानी चाहिए।
(लेखक – दीपक कुमार कैंपेन अगेंस्ट रिप्रेशन से जुड़े हैं और आकांक्षा आज़ाद भगत सिंह स्टूडेंट्स मोर्चा, बीएचयू की अध्यक्ष हैं।)
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