लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद लोकतंत्र और संविधान पर खतरा फिलहाल टल गया

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आम चुनाव 2024 के नतीजों के बाद, लोकतंत्र और संविधान पर खतरा टल गया, यह माना जा सकता है। लेकिन ऐसा मानकर बैठ रहना ठीक नहीं है। मतदाताओं ने जरूर संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए जनादेश दिया हो, लेकिन जनादेश का सम्मान तो राजनीतिक दलों को करना है। हमारा अनुभव बताता है कि राजनीतिक दलों के सामने जनादेश के सम्मान करने की कोई बाध्यकारी स्थिति नहीं होती है। अनुभव कहता है, जनादेश का सम्मान सत्ता की राजनीति की फितरत और फिक्र नहीं होता है।

चुनाव जीतने के बाद सत्ता की राजनीति के पारंपरिक नेताओं के मन में जनादेश के लिए कोई सम्मान बचा ही नहीं रहता है। कहना न होगा कि संविधान और लोकतंत्र नैतिक प्रेरणा का स्रोत नहीं बनते हैं। देर-सबेर, सत्तासीन लोगों के लिए संविधान और लोकतंत्र बोझ ही लगने लगते हैं। सरकार चाहे जिसके नेतृत्व में बने, जिसके भी समर्थन से बने पारंपरिक राजनीति और रणनीति में कोई फर्क नहीं पड़ता है। साफ शब्दों में इसका मतलब यह है कि राजनीतिक दलों के मन में जन-जरूरत और  जन-भावनाओं की कोई वास्तविक फिक्र या कद्र नहीं होती है। कहा जाता है कि राजनीति संभावनाओं का खेल है। वास्तव में सत्ता की राजनीति संभावनाओं से अधिक दुर्भावनाओं का खेल हुआ करती है।

इस बीच राजनीति की युवा जमीन तैयार हो चुकी है, इसकी कोई खबर पारंपरिक राजनीति के पुराने नेताओं को है ही नहीं। बहुत पुराने नेता जो अधिकतर आजादी के आंदोलन के दौर से निकलकर आये थे उनकी राजनीति में थोड़ा-बहुत मूल्य-बोध सक्रिय था। सातवें दशक तक आते-आते नेताओं की आभा बुझने लगी थी। आठवें दशक तक यह पूरी तरह से बुझ गई। इंदिरा गांधी ने राजनीतिक आपातकाल देश पर लादा था। बुरा किया था। राजनीतिक आपातकाल लगाने के राजनीतिक कारण तो‎ रहे ही होंगे, लेकिन इससे बचा भी जा सकता था। दुनिया में आवाज उठी भारत में ‘नेहरू की बेटी’ तानाशाह हो गई! हिंदी के जन-कवि नागार्जुन ने कविता लिखी, ‘इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको?, बेटे को तार दिया बोर दिया बाप को!’

आपातकाल का ग्रहण जल्दी समाप्त होना अप्रत्याशित ही था। इंदिरा गांधी के सामने राजनीतिक परिस्थितियों की ऐसी कोई ‎ चुनौती या मजबूरी नहीं थी कि चुनाव जरूरी हो गया हो। संजय गांधी एवं चौकड़ी की असहमति और विरोध के बावजूद कुछ ही महीने बाद इंदिरा गांधी ने अचानक चुनाव में जाने का फैसला कर लिया। चुनाव की घोषणा के अपने कारण रहे होंगे, लेकिन बचा जा सकता था। चुनाव हो गया। इंदिरा गांधी और उन की कांग्रेस पार्टी चुनाव हार गई। ‎बात इतनी सहज नहीं रही होगी, लेकिन सहज ढंग से कहने की कोशिश की गई है।

आठवें दशक के जो राजनीतिक सितारे नौवें दशक में चमक उठे। ये इक्कीसवीं सदी के पहले तीसरे दशक में बुझने के कगार पर पहुंच गये हैं। इन बुझते हुए सितारों में कोई नैतिक आभा नहीं है, यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। मुख्य बात यह है कि बहुत मुश्किल से ‎‘हम भारत के लोगों’‎ ने संविधान और लोकतंत्र को मताधिकार से प्राप्त मत-शक्ति और विवेक की मति-शक्ति से बचाया है। यह खतरा कितना बड़ा था जो फिलहाल टल गया है, इसे पारंपरिक राजनीति के सितारे इतनी जल्दी भूल गये यकीन नहीं होता है!

राजनीतिक जोर आजमाइश और गठबंधनों के बीच जोड़-तोड़ जारी है। किसी-न-किसी तरह से किसी-न-किसी गठबंधन की सरकार तो बन ही जायेगी। राजनीतिक दलों के गठबंधन को सत्ता मिल जायेगी, सत्ता का संतुलन मिल जायेगा। सवाल तो‎ यह है कि जनता को क्या मिलेगा? क्या जनता को उसका शतांश भी मिल पायेगा, जिसका वायदा किया गया था! जनता दल (यू) सहित भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सभी घटक दलों ने कांग्रेस पार्टी और विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) पर अनाप-शनाप आरोप लगाने और अवतारी होने के शोर में जनता से क्या-क्या वायदा किया, किया भी या किया ही नहीं, ये तो‎ वही लोग जानते हैं।

कांग्रेस के न्यायपत्र में जरूर कुछ ठोस वायदे किये गये हैं। आम तौर पर न्यायपत्र के साथ विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की सहमति रही है। नरेंद्र मोदी के दस साल के शासन में सत्ता-वर्ग में जो घमासान छिड़ा हुआ था, उसका बुरा नतीजा राजनीतिक दलों के साथ-साथ जनता को भी भोगना पड़ा है। सत्ता-वर्ग में घमासान हो या मिलीभगत के प्रेरणा से उत्पन्न संतुलन और सौहार्द का वातावरण हो जनता के जीवन में उसका गहरा प्रभाव पड़ता है।

नरेंद्र मोदी के शासन काल में जैसे-जैसे आक्रमकता बढ़ती गई, नागरिक जमात की बेचैनी भी बढ़ती गई थी। ध्यान रहे, सूचना प्राप्त करने के अधिकार का निरंतर इस्तेमाल करनेवालों, ‘आंदोलनजीवियों’, मुख्य-धारा की मीडिया के बाहर सक्रिय पूर्व-पत्रकारों, अंध-विश्वास फैलाने और बनाये रखने के विरोध में सामाजिक आंदोलन करनेवालों और सही मुद्दों को सामने रखनेवाले यूट्यूबरों आदि को भी नागरिक जमात में शामिल समझना चाहिए। विभिन्न प्रकार से इन्हें नरेंद्र मोदी के शासन की दुर्भावनाओं का शिकार होना पड़ा। जान-माल से हाथ धोना पड़ा और जीवनयापन के विविध संकटों का सामना करना पड़ा।

चुनाव के दौरान ही नहीं, मतगणना के सवाल पर भी नागरिक जमात के लोग अपने ढंग से सक्रिय रहे। नरेंद्र मोदी की सरकार ‘स-कुशल’ सत्ता में वापस आ गई होती तो‎ उन पर कैसा कहर टूटता कहना मुश्किल है, समझना तो बहुत मुश्किल नहीं है। ‎‘अवतारी आभा’ और तानाशाही के मनोरथ की टूट से निकली लोकतांत्रिक आभा में नागरिक जमात की हिम्मत की चमक के भी शामिल होने से इनकार नहीं किया जा सकता है।

प्रसंगवश, नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में खुद को ‘उत्तम-पुरुष’ यानी ‎‘थर्ड पर्सन’‎ में पेश करते रहे हैं। उनके समर्थन में लगे लोग ‘मोदी-मोदी’ चिल्लाते हुए ‘पागल’ की तरह अपनी मानसिकता की गहन-गुहाओं में दौड़ लगाते थे मानो मोदी कोई अन्य है! नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उस काल्पनिक मोदी का पीछा किया जा रहा हो, जिसकी झोली में विकसित भारत का गुलाबी सपना हो। अब जबकि ‎‘अवतारी आभा’ भंग हो चुकी है, ऐसी आशंका कम ही है कि वे ‎‘थर्ड पर्सन’‎ में अपने को पेश करने की कोशिश कर सकें। बड़े पत्रकार और समझदार लोग इस बात पर संदेह व्यक्त कर रहे हैं कि अपराजेय बहुमत के समर्थन से शासन करनेवाले नरेंद्र मोदी की अपनी स्थिति से उत्पन्न कठ-अहं का आर्तनाद क्या उन्हें गठबंधन की राजनीति में सफल होने देगा!

परिस्थिति के कारण पिघलते हुए कठ-अहं के मवाद से विनम्रता के पोशाक का धागा बनते क्या देर लगती है! लोक की शब्दावली में कहें तो‎ खुली जमीन पर ऐंठ-ऐंठकर रेंगनेवाला सांप बिल में घुसते समय अपने-आप सीधी चाल पकड़ लेता है! अब नरेंद्र मोदी कभी ‎‘मोदी की गारंटी’‎ की बात नहीं करेंगे, कभी अपने को ‎‘थर्ड पर्सन’‎ में पेश नहीं करेंगे। करेंगे क्या!  

हर बात का जवाब ‎‘मोदी की गारंटी’‎ और ‎‘जय श्री राम’‎ का उद्घोष अब ‘उस दौर’ एवं गये जमाने की बात हो गई है। मजे की बात है कि अयोध्या के भव्य और दिव्य मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बावजूद अयोध्या और अयोध्या-मंडल के अधिकतर संसदीय क्षेत्र के चुनाव हार जाने और उड़ीसा में अप्रत्याशित चुनावी जीत के बाद ‎‘जय श्री राम’‎ के बदले ‎‘जय जगन्नाथ’‎ का उद्घोष करने का मतलब समझना तो बहुत मुश्किल नहीं है।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में फिर से प्रासंगिक हो गई, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय ‎जनतांत्रिक गठबंधन का समर्थन करनेवालों को इस ‘उद्घोष बदल’ का मतलब बिल्कुल समझ में नहीं ‎आ रहा है! बिल्कुल नहीं? अचरज है। निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी इस समय ‘राजनीतिक आपदा’ में हैं, लेकिन ‘आपदा को अवसर’ में बदल लेने में वे कितने माहिर हैं इससे उनके नव-मित्र अनजान बने रहें तो‎ वे जानें! वैसे प्रसंग तो नहीं है, फिर भी कहना जरूरी है कि अगली बार, नरेंद्र मोदी शायद ही कभी उत्तर प्रदेश और बनारस से लोकसभा का चुनाव लड़ें। तकनीकी रूप से बनारस संसदीय सीट पर निस्संदेह मोदी जीत गये हैं, लेकिन नैतिक रूप से क्या कहा जा सकता है! न समझें इतने अबोध तो‎ वे नहीं हैं।  

इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि संविधान और लोकतंत्र की रक्षा का यह जनादेश कहीं फिर से लोक को ही न आहत करने लग जाये! हालांकि औपचारिक रूप से जनता और मतदाताओं के प्रति आभार तो‎ राजनीतिक दल स्वीकार कर रहे हैं, सिर झुका कर जनादेश के प्रति सम्मान भी व्यक्त कर रहे हैं, लेकिन जनता के मुद्दों की चर्चा तो दूर उन मुद्दों का इशारा करते भी नहीं दिख रहे हैं। यह सच है कि ‎‘हम भारत के लोगों’‎ ने संविधान और लोकतंत्र को खतरे से बाहर निकाला है, लेकिन उससे बड़ा सच राहुल गांधी ने कहा कि भारत के ‘हम भारत के गरीब लोगों’ ने भारत में संविधान और लोकतंत्र को खतरे से बचाया है। सवाल तो‎ अब यह है कि सत्ता की हवस से उत्पन्न खतरनाक परिस्थितियों से ‘गरीब लोगों’ को बचाने के लिए कौन आगे आयेगा!

इस समय तो सत्ता अर्जन और रक्षण की राजनीति गुप-चुप दबे पांव अपने कदम बढ़ा रही है। पारदर्शिता! पारदर्शिता ऐसे मौकों के लिए नहीं होती है। किसी को, किसी से किसी तरह का कोई परहेज नहीं है। चुनाव के मैदान में राजनीतिक स्वार्थ के लिए कही गई, जनता को बताई गई सारी बातें झूठी थीं, इधर की भी, उधर की भी!  यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता की राजनीति और रणनीति में अकेले नरेंद्र मोदी ही झूठ के व्यापारी हैं, हां वे सब से बड़े व्यापारी बनकर उभरे जरूर हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। क्या लोगों का क्या राहत की सांस लेनी चाहिए कि कम-से-कम अब ‘मंगलसूत्र’ सुरक्षित है, दो में से एक ‘भैंस’ खोलकर कोई नहीं ले जायेगा? दम साध कर इंतजार करना होगा कि आगे होता क्या है, बल्कि क्या-क्या होता है।

चुनौती नागरिक जमात के लिए बड़ी है। सत्ता की राजनीति में लगे लोग तो‎ सत्ता परिवर्तन के लिए भिड़ रहे थे। नागरिक जमात का मकसद तो‎ ‘स्थिति परिवर्तन’ था। ‘सत्ता परिवर्तन’ और ‎‘स्थिति परिवर्तन’ ‎में फर्क तो होता ही है, न! स्वाभाविक है कि ‘स्थिति परिवर्तन’ की दशा-दिशा के संकेत अभी मिले नहीं हैं। अभी न सही, कभी तो ‎‘स्थिति परिवर्तन’ ‎ के सकर्मक लक्षण दिखेंगे! सामाजिक न्याय हो या आर्थिक न्याय का मसला हो या संसाधनिक संतुलन और जन-हित से जुड़ा कोई मसला हो नागरिक जमात को सचेत और सक्रिय रहना होगा।

अभी तो‎ कौन पक्ष है, कौन विपक्ष है, कौन किसके पक्ष में है, कौन किसके विपक्ष में है, कहना मुश्किल है। न्याय-निष्ठता और जन-हित के पक्ष में कौन या कौन-कौन है यह कहना तो और भी मुश्किल है। सत्ता-आकांक्षा के दबाव में जनप्रतिनिधियों की ‘दलीय निष्ठा’ और जन-पक्षधरता के द्वंद्व और दुविधा में कौन ‎‘परीक्षा पास’‎ करेगा, किसका ‘पेपर लीक’ होगा, किसका विवेक विक्षिप्त होगा अभी कहना ‘तीसमारों’ के लिए भी मुश्किल ही है। रूठने, बीमार पड़ जाने, मनाने, मान जाने का खेल होगा, नहीं होगा कुछ भी कहना मुश्किल है। 

मातृभूमि की जय कहते हुए भी, 2024 के आम चुनाव के विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) और न्याय योद्धा राहुल गांधी ने छोड़ दिया तो‎ भविष्य की लोकतांत्रिक राजनीति के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो जायेगी। इस दौर में राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव आजाद समाज पार्टी (कांशी राम) के नेता चंद्रशेखर जैसे युवा नेताओं के और अधिक निखरने-बिगड़ने का अवसर है। वामपंथ से जुड़े जो लोग हैं वे तो खैर निखरते-बिगड़ते लगातार चुनौतियों का सामना करते आये हैं। एक बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि इस समय भारत में वाम-दलों की राजनीति में प्रातनिधिक ताकत जो भी हो, भारत की राजनीति में ‘वाम-अंतर्वस्तु’ का स्थान महत्वपूर्ण और संवेदनशील है।

अभी जन-हित की बात करते-करते जन-कवि नागार्जुन का याद करें तो‎ संतोष की बात इतनी ही है कि ‘कौए ने खुजलाई पांखें, बहुत दिनों के बाद’। ‘पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है’ लेकिन सवाल जिंदा है कि ‘किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है’? फिलहाल, रघुवीर सहाय को याद करें। इस समय उस ‘भारत भाग्य विधाता’ की खोज जारी है, ‘फटा सुथन्ना पहने जिसका, गुन हरचरना गाता है।’ नागरिक जमात के लिए इस समय जरूरी है कि उस ‎‘भारत भाग्य विधाता’ की खोज जारी रखने के आंदोलन में बिना रुके शामिल रहे। नागरिक जमात को याद रखना होगा कि ‘भारत भाग्य विधाता’ की इस खोज में आंदोलन के निष्फल रहने पर आगे अधिक गहन जन-आंदोलन और जन-युद्ध का दौर शुरू हो सकता है।

जन-आंदोलन और जन-युद्ध के अंतर पर ध्यान देना जरूरी है। इस सवाल का जवाब बड़े धीरज से खोजना ही होगा कि ‎‘किस की है जनवरी, किसका अगस्त है’? ‎इतिहास का सबक याद करें तो‎ यह हो नहीं सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था राजनीतिक विलास और हास-परिहास में मस्त रहे और जनता के जीवन में अनंत काल तक ‎‘बसंत का बज्रनाद’ ‎स्थगित रहे। जी, ऐसा हो नहीं सकता। लेकिन अभी तो‎ इंतजार है!   

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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