एक बार फिर कंगना राणावत (या रनौत जो भी है) ने एक बयान दिया और फिर उसके बाद जैसा कि इस कुनबे का रिवाज, परम्परा, लत, अदा और अंदाज जो भी कह लीजिये, है वह कर्मकांड हुआ: पहले उनके दल के प्रवक्ता बोले कि भाजपा सांसद का बयान भाजपा का बयान नहीं है और उसका खंडन कर दिया, उसके बाद खुद कंगना ने उससे पल्ला झाड़ लिया और अपने शब्द वापस ले लिए।
अभी तक यह समझ नहीं आया कि ये वापस लिए शब्द वापस कैसे और कहां जाते हैं? वापस जाते भी हैं या नहीं; काहे कि बचपन से जो कहावत से सुनी है वह यह है कि “कमान से निकला तीर और मुंह से निकले शब्द कभी वापस नहीं होते” बाद में कुछ प्रयोगधर्मियों ने इसमें टूथपेस्ट से निकला पेस्ट भी जोड़ दिया था।
बात सही भी है-बोलना कहना सिर्फ सुनना समझना या संप्रेषित करना भर नहीं होता।
शायराना अंदाज में कहें तो ; शब्द महके तो लगाव करते हैं-शब्द बहके तो घाव करते हैं। सुधी समाज मानता भी है, जानता भी है कि साधारण घाव तो फिर भी भर जाते हैं, शब्दों के घाव मरते दम तक नहीं मिट पाते हैं। शब्दों के अर्थ भर नहीं होते, उनके निहितार्थ होते हैं और उनका असर होता है; कभी धीमा कभी जोर का, कभी तात्कालिक कभी दूरगामी।
वे जिस भाव से कहे जाते हैं कथित रूप से वापस लिए जाने तक वे अपना प्रभाव छोड़ चुके होते हैं। इसलिए उन्हें वापस लेने के दावे से उस भाव के प्रभाव को निष्प्रभावी नहीं किया जा सकता।
कंगना जी ने कहा कि “तीन कृषि क़ानून दोबारा से लाये जाने चाहिए और इस बार खुद किसानों को प्रधानमंत्री मोदी से इन कानूनों को लाने का अनुरोध करना चाहिए।” यह अनायास मुंह से निकल गयी बात नहीं थी, क्योंकि इस बात को कहते हुए स्वयं उन्होंने कहा कि “मुझे पता है कि मेरी इस बात से विवाद होगा।”
मतलब यह कि उन्होंने जो कहा सोच समझ कर कहा था और जो होने वाला है, उसका अंदाजा भी उन्हें पहले से था। अभी हाल में ही वे जिस किसान आन्दोलन में, 726 किसान जो शहीद हुए थे, उसके बारे अत्यंत ही अश्लील और बेहूदी बात बोल चुकी हैं, उसका भी उनकी पार्टी ने खंडन किया था, उन शब्दों को भी वापस लिया गया था।
कंगना जी के मुताबिक़: उन्हें इसके लिए नड्डा जी की डांट भी पड़ी थी। यह डांट अभी ताज़ी-ताज़ी बात है सो ऐसा नहीं है कि वे उसे भूल गयी होंगी। इसके बाद दिए कई इन्टरव्यूज में उन्होंने खूब विस्तार से बताया था कि भाजपा उनकी मां, दादी, दाई और आया, मोह और माया सब कुछ है।
फिर अचानक एक बार फिर उनके ये बोल क्या सचमुच वैसे ही, निजी विचार हैं जैसे बताये जा रहे हैं या उनके पीछे कुछ और है। पत्रकारिता का पहला सबक होता है कि खबर वह नहीं है जो बताई गई है, खबर वह है जो छुपाई गयी है। असली बात वह होती है जो पंक्तियों के बीच अनलिखे में कही जाती है।
कंगना के बयान और उनके खंडन के प्रहसन और शब्द वापसी के स्वांग को इसी तरह से पढ़ा जाना चाहिए। क्योंकि वे जो भी हों सिर्री बिलकुल नहीं है। सिर्री यों तो लोकभाषा का बोलचाल का शब्द है, किन्तु इसका मूल संस्कृत का शब्द श्रृणीक है, जो उच्चारण में कठिन होने की वजह से जन के बीच पहुंचते तक सिड़ी हो गया।
सिड़ी मतलब झक्की, सनकी इत्यादि !! कंगना जी सिर्री नहीं हैं। वे बहुत व्यवस्थित और स्पष्ट समझ रखती हैं और अंग्रेजी में बोले तो आर्टिकुलेट हैं।
लल्लनटॉप के सौरभ द्विवेदी को दिया उनका एक घंटे का लंबा साक्षात्कार इसका गवाह है। बताया तो ये गया था कि वे अपनी जो फिल्म तब तक रिलीज ही नहीं हुई थी उसका प्रमोशन करने आयी थीं। मगर असल में वे अत्यंत संयत और सधी भाषा में अपनी नफरती विचारधारा की मार्केटिंग कर रही थीं।
होने को तो इस इंटरव्यू को लेने वाले पन्डज्जी की बंधी हुई घिग्घी भी जोरदार थी, अब वे भी क्या करें पापी पेट धरे का दण्ड है मेरुदण्ड का झुकना!!
कुलजमा यह कि कंगना बिलकुल भी वाचाल या स्वतःस्फूर्तता से नहीं बोलतीं। वे जो भी बोलती हैं तय करके बोलती हैं; अभिनेत्री हैं, इसलिए मन से नहीं बोलतीं जो भी बोलती हैं दी हुई, लिखी हुई स्क्रिप्ट के अनुसार बोलती हैं।
मतलब यह कि उनका बोलना, फिर खंडन का आना और उसके बाद शब्द वापस लेना एक स्क्रिप्ट का हिस्सा है। उसे उसी तरह पढ़ने देखने से ही अंत में तंत तक पहुंचा जा सकता है।
कंगना जिस कुनबे का हिस्सा हैं, उसकी ख़ास विशेषता एक ही समय में एक साथ दो परस्पर विरोधी बातें बोलना है। ऐसा करके वे कई लक्ष्य एक साथ साधते हैं जिनमें से एक लक्ष्य है पानी में कंकर फेंककर उससे उभरने वाली उछाल को नापना और उसके अनुरूप धीरे धीरे तीव्रता बढ़ाना।
दूसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण मकसद होता है कभी हां कभी ना करते-करते असामान्य और अस्वीकार्य को धीरे-धीरे चर्चा में लाकर लोगों के चौंकने या हैरत में आने के भाव खत्म कर देना और फिर चुपके से उसे सामान्य और स्वीकार्य बनाकर अपनी आधिकारिक नीति का हिस्सा बनाकर अपना लेना।
प्रवक्ता के खंडन और कंगना के शब्द विखंडन, इसी तरह की अदा है।
आरक्षण को लेकर यह कुनबा यही कलाकारी दिखाता है, संविधान को लेकर भी इसका अभियान इसी अदा का विस्तार है। हाल के सिर्फ तीन अनुभव बजरंग दल, बाबरी मस्जिद विध्वंस और गोडसे महिमामंडन ही देख लें। 1984 में जब बजरंग दल का गठन हुआ था तब उसके किये धरे पर यही दोमुंहा रुख होता था।
बजरंगी हुड़दंग करते थे और इसके अटल जी जैसे कुछ नेता तब थोड़े संवेदनशील बचे मध्यम वर्ग को बहकाने के लिए उनके किये पर “काम न धाम जयश्री राम” जैसे जुमले उछालते थे।
बाबरी मस्जिद के गिराए जाने पर तो यह दोमुंहापन जैसे चरम पर था। तब सिर्फ अटल जी का ‘कवि ह्रदय’ ही नहीं कलपा था जब उन्होंने 6 और 7 दिसंबर 92 को दिए अपने बयानों में कहा था कि “अयोध्या में 6 दिसम्बर को जो हुआ, वो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था।
ये नहीं होना चाहिए था। हमने इसे बचाने की कोशिश की थी, लेकिन हम कामयाब नहीं हुए। हम उसके लिए माफी मांगते हैं। कारसेवकों का एक हिस्सा बेकाबू हो गया था और फिर उन्होंने वो किया जो नहीं होना चाहिए था।”
यह भी कि “एक स्पष्ट वादा किया गया था, कि विवादित ढांचे को किसी भी तरह का नुकसान नहीं होने दिया जाएगा, उस वादे का पालन नहीं किया गया। इसलिए हम माफ़ी मांगते हैं।” यहां तक कहा था कि ”यह मेरी पार्टी द्वारा किया गया सबसे खराब और गलत आकलन है।”
इसकी अगुवाई करने वाले ‘लौह हृदयी’ लालकृष्ण आडवाणी ने भी लगभग बिलखते भाव से बाबरी मस्जिद गिराने के बाद इण्डियन एक्सप्रेस में लिखे तीन लेखों में कहा था कि “यह मेरे जीवन का सबसे दुखद दिन-सैडेस्ट डे-है।” कि “इमारत को गिराया जाना एक “भयानक गलती थी” और अपनी आंखों के सामने ऐसा होने देना नेतृत्व की विफलता थी।”
उन्होंने तो यहां तक दावा किया कि “बचपन से मेरी परवरिश जिस संगठन-आरएसएस में हुयी है, वह जिस अनुशासन के लिए जाना जाता है, यह घटना उसके अनुरूप नहीं थी।”
औरों की छोड़िये 7 दिसम्बर 1992 को जारी संघ की आधिकारिक विज्ञप्ति में तत्कालीन सह सरकार्यवाह, जो बाद में सर संघचालक बने, राजेन्द्र सिंह रज्जू भैया ने भी कहा था कि “आरएसएस मस्जिद-विवादित ढांचा-गिराए जाने की भर्त्सना करता है। जो हुआ वह संघ की प्रकृति और आचरण के विरुद्ध है। ऐसा करने (मस्जिद गिराने) से संघ के मकसद को नुकसान पहुंचा है।”
आज यही सब उस मस्जिद को गिराए जाने और उसे हिन्दू गौरव बताने को लेकर कितनी ऊंची कुदाने मार रहे हैं यह सब जानते हैं।
तीसरा प्रसंग गोडसे की प्राण प्रतिष्ठा का है। कोई पांचेक साल पहले जब गोडसे के मंदिर निर्माण का काम हुआ तब भी यही माना गया। तत्कालीन भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर के गोडसे गांधी बयान पर ग्रेनाईट ह्रदय नरेंद्र मोदी तक बोले थे कि ‘इसके लिए वे उन्हें दिल से माफ़ नहीं करेंगे।‘
संघियों की आईटी सेल देख लीजिये आज ये तीनों मुद्दे भारतीय फासीवाद की अधिकृत भुजा और फरहरे हैं। यह ठीक वैसी ही कार्यशैली है, जैसी सोते हुए मनुष्य को काटते समय चूहा अपनाता है; वह पहले कुतरता है फिर उसी जगह फूंक कर राहत देता है, फिर कुतरता है, फिर फूंकता है, और इस फूंकने-कुतरने के बीच जिसे काटा जा रहा है वह सोता ही रह जाता है।
भारतीय समाज के विवेक और उसके पांच हजार साल के हासिल को इसी तरह फूंक-फूंक कर कुतरा जा रहा है।
यह फासिस्टों की आजमाई कार्यशैली है; कंगना कहे और फिर वापस लिए को इसी तरह देखने की जरूरत है। वे फ्रिंज एलिमेंट नहीं है माननीय सांसद महोदया, अभिनेत्री, निर्देशिका, पटकथा लेखिका और न जाने क्या क्या हैं; वे सिर्री नहीं हैं, वे अपने कुनबे की बैरोमीटर हैं, जिनसे कहलवा कर उसकी प्रतिक्रिया मापी जाती है।
वे जो कुछ बोल रही थीं वह स्क्रिप्ट का हिस्सा है। ध्यान रहे 19 नवंबर 2021 को तीन कृषि कानूनों की वापसी का एलान करते हुए दिए अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें गलत या अनुचित नहीं बताया था बल्कि किसानों की अज्ञानता को ही कोसा था कि वे इतने अच्छे कानूनों को समझ नहीं पाए।
उन्होंने बहुत मानीखेज अंदाज में कहा था कि “शायद मेरी तपस्या में ही कोई कमी रह गयी होगी” इस तरह उस तपस्या को जारी रखते हुए पूरा करने का संकेत दिया था। उनकी पार्टी की सांसद अपने बयान से उसी अधूरी तपस्या को पूरा करने के लायक मौसम बना रही हैं।
तीन कृषि क़ानून मोदी निजाम पर देसी-विदेशी कारपोरेट घरानों की उधारी है। भारत की अर्थव्यवस्था पर सम्पूर्ण वर्चस्व कायम करने की कारपोरेट पूंजी की आदमखोर मुहिम का निर्णायक चरण है। वे इसकी नकद अदायगी मोदी को महानायक बनाकर और उनके चुनाव जीतने के लिए हजारों करोड़ देकर कर चुके हैं।
मोदी की भाजपा भी उनका ऋण चुकाने के लिए तत्पर है, मगर यह देश और उसके किसान इसे नहीं मान रहे-यह सारी लीला इसीलिए है कि ऐसा माहौल बन जाए जिसमे अंतत: वे इसे नियति मानकर कबूल कर लें।
पढ़े-लिखे समझे जाने वाले लोगों का एक तबका होता है, जो इस तरह की घटनाओं को कुछ उत्साही लगुओं-भगुओं फ्रिंज एलीमेंट्स की करतूत मानकर मुंह बिचकाकर हास्यास्पद करार दे देता है और छुट्टी मान लेता है।
मूर्खों के स्वर्ग की तरह इस तरह के पढ़े-लिखे समाज का भी अपना एक स्वर्ग होता है-जिन्हें ऐसे स्वर्ग में रहना है वे रहें, मगर जो इनकी कार्यप्रणाली को जानते हैं उन्हें इसके निहितार्थ समझने होंगे और इसके मुकाबले के लिए तत्पर और सन्नद्ध रहना होगा।
(बादल सरोज लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)