तंबाकू-एक ऐसा शब्द जो न तो अब अनपढ़ तबक़े की जुबान तक सीमित है, न ही झोपड़पट्टियों की धूल में गुम एक लत भर है। आज यह एक “संवेदनशील फैशन”, “मर्दानगी का प्रतीक” और “कॉर्पोरेट ब्रेक टाइम” का हिस्सा बन चुका है। इसकी बदबू अब सिर्फ़ किसी मज़दूर की हथेलियों से नहीं आती, बल्कि इंजीनियरों, डॉक्टर्स, चार्टर्ड अकाउंटेंट्स और यहां तक कि शिक्षकों की सांसों में भी घुल चुकी है। अफ़सोस ये है कि तंबाकू का ज़हर अब अज्ञानता की देन नहीं, बल्कि समझदारों की अपनी पसंद बन चुका है।
तंबाकू आज महज़ एक पदार्थ नहीं, बल्कि उस सामाजिक और मानसिक ढांचे का आइना बन चुका है जहां शिक्षा सिर्फ़ अंक तालिका में कैद होकर रह गई है, और जीवन के असली इम्तिहान में हम लगातार मात खा रहे हैं। यह विडंबना नहीं, त्रासदी है कि जिस देश में युवा सबसे बड़ी ताक़त माने जाते हैं, वहीं के युवा सबसे बड़े उपभोक्ता बनते जा रहे हैं उस चीज़ के, जो उनकी सांसें ही छीन लेती है।
पढ़े-लिखे समाज की धुएं में लिपटी हार
दिल्ली विश्वविद्यालय के वल्लभ भाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट द्वारा किए गए हालिया राष्ट्रीय अध्ययन के आंकड़े चौंकाने वाले नहीं, शर्मसार कर देने वाले हैं। अध्ययन के अनुसार 66% से अधिक तंबाकू सेवन करने वाले कम से कम 12वीं तक शिक्षित हैं। यानी वे लोग जो किताबों में फेफड़ों की कार्यप्रणाली पढ़ते हैं, जो विज्ञान में “स्वास्थ्य और जीवन” पर निबंध लिखते हैं, वही लोग अपने होंठों से जहर पीते हैं, और आंखों से भविष्य खो देते हैं।
इसी रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि 76.84% उपभोक्ताओं के घरों में पहले तंबाकू का कोई इतिहास नहीं था। यानी यह कोई खानदानी लत नहीं, बल्कि समाज से उपजी संक्रामक बीमारी है-जिसका ज़रिया दोस्ती, दिखावा, और डिजिटल दुनिया है।
क्या यह शिक्षा की हार नहीं है? क्या यह समाज की चेतना का पतन नहीं है कि हम डरावनी तस्वीरों, कैंसर की वार्निंग, और जानलेवा आंकड़ों को नज़रंदाज़ कर देते हैं, सिर्फ़ इसलिए कि “एक कश से क्या होता है”?
आंकड़ों की भाषा में बर्बादी का नक्शा
भारत में हर साल तंबाकू से जुड़ी बीमारियों से लगभग 13.5 लाख लोग दम तोड़ते हैं। यानी रोज़ लगभग 3500 लोग ऐसे हैं जो इस ज़हर के कारण अपने परिवार, सपनों और ज़िंदगी से विदा ले लेते हैं। और सबसे ख़तरनाक पहलू यह है कि 27 करोड़ से अधिक भारतीय तंबाकू के किसी न किसी रूप में लती हैं। इनमें सबसे बड़ा प्रतिशत युवाओं का है-जो न केवल इस लत में डूबे हुए हैं, बल्कि इसे आगे बढ़ाने वाले “इनफ्लुएंसर” भी बनते जा रहे हैं।
शिक्षा बनाम समझ: कहां चूक हो रही है?
हमारे देश में शिक्षा का मतलब आज भी अंकों में मापा जाता है। हम बच्चों को किताबें याद कराते हैं, मगर ज़िंदगी समझाना भूल जाते हैं। स्कूलों में ‘स्मोकिंग इज इंजूरियस टू हेल्थ’ पढ़ाया जाता है, लेकिन प्रैक्टिकल लाइफ में वही बच्चा कॉलेज में जाकर सिगरेट की पहली कश मारता है-अपने सीनियर्स की देखा-देखी या किसी वेब सीरीज़ के नायक की नक़ल में।
क्या यही है हमारी शिक्षा व्यवस्था की गहराई?
हम अपने बच्चों को विज्ञान पढ़ा सकते हैं, लेकिन विवेक नहीं दे पा रहे। उन्हें भौतिकी सिखा सकते हैं, लेकिन आत्मचिंतन नहीं। यही कारण है कि शिक्षित युवा भी तंबाकू के विज्ञापनों में दिखने वाली नकली मर्दानगी और आत्मविश्वास को असली मान बैठते हैं।
दोस्ती का नया ‘नशा’
एक और डरावना पहलू यह है कि तंबाकू अब नशा नहीं, “समाज में घुलने-मिलने का ज़रिया” बन चुका है। स्कूलों के बाहर, कॉलेज के कैंपस में, दफ़्तर के कोनों में-हर जगह ‘चलो एक सिगरेट हो जाए’ अब बातचीत की शुरुआत बन गया है। जो मना करे, उसे ‘बोर’, ‘बच्चा’, या ‘गंवार’ कह दिया जाता है। क्या हमारी दोस्ती की परिभाषा इतनी खोखली हो गई है कि अब वो स्वास्थ्य नहीं, बल्कि धुएं की साझेदारी पर टिकी हो?
मीडिया और मार्केटिंग की चालें
जब सिनेमा के परदे पर हीरो कश लगाता है, जब वेब सीरीज़ में सिगरेट “तनाव घटाने” का सबसे ‘स्मार्ट’ तरीका बन जाती है, तो तंबाकू सिर्फ़ उत्पाद नहीं रहता, वह स्टाइल बन जाता है। यह समझना ज़रूरी है कि कैसे प्रचार तंत्र हमारी सोच को जहर में रंगता है-जहां ‘गुटखा’ अब किसी ब्रांड का नाम है और ‘पान मसाला’ एक बॉलीवुड स्टार का चेहरा।
तमीज़, तहज़ीब और तंबाकू: हमारी ज़िम्मेदारी
अब वक़्त आ गया है कि हम तंबाकू के खिलाफ़ लड़ाई को केवल स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं, सामाजिक और मानसिक सुधार का आंदोलन बनाएं। हमें अपने स्कूलों, कॉलेजों, मोहल्लों और दफ़्तरों में ऐसी संस्कृति बनानी होगी जहां नशा नहीं, नफ़ासत हो। जहां प्रेरणा हो, प्रदूषण नहीं।
हमें अपने बच्चों को सिर्फ़ डर दिखाकर नहीं, समझ देकर रोकना होगा। यह ज़रूरी है कि शिक्षा सिर्फ़ किताबों में सीमित न रह जाए, बल्कि जीने की समझ, सोचने की क्षमता और सही-ग़लत की पहचान दे। हमें उन्हें बताना होगा कि असली ‘कूल’ वही है जो ज़िंदगी को पूरे होश में, पूरे जोश में जीता है- न कि धुएं में गुम होकर।
हमें क्या करना चाहिए?
शिक्षा में सुधार- स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम में स्वास्थ्य शिक्षा को केवल एक अध्याय नहीं, बल्कि व्यवहारिक कार्यशाला के रूप में शामिल किया जाए।
कैंपस-संस्कृति में बदलाव- शैक्षणिक संस्थानों में सख़्त रूप से तंबाकू निषेध क्षेत्र लागू हो, और ‘स्मोकिंग एरिया’ जैसी अवधारणाओं को खत्म किया जाए।
मीडिया निगरानी- फिल्मों और डिजिटल कंटेंट में तंबाकू के प्रयोग को ग्लैमराइज करने वालों पर सख्त कार्रवाई हो। हर दृश्य में चेतावनी दिखाना काफी नहीं, उस मानसिकता को तोड़ना ज़रूरी है जो इसे ‘कूल’ बनाती है।
परिवार की भूमिका- माता-पिता को अपने बच्चों से सिर्फ़ अंक पूछने नहीं, उनकी आदतें, दोस्त और डिजिटल जीवन भी समझने की कोशिश करनी चाहिए।
युवाओं को नेतृत्व देना- कॉलेज और विश्वविद्यालयों में ऐसे युवा अभियान चलाए जाएं, जहां खुद युवा अपने साथियों को नशे के खिलाफ़ जागरूक करें।
अंतिम बात: धुएं के उस पार की सोच
यह ज़हर केवल शरीर नहीं, समाज को भी खोखला कर रहा है। अगर पढ़ा-लिखा वर्ग ही समझदारी की बुनियाद को खो दे, तो अनपढ़ों से क्या उम्मीद की जाए? अगर युवा ही मौत को स्टाइल मानने लगें, तो भविष्य की सांसें कौन बचाए?
हमें आज यह तय करना होगा कि क्या हम तंबाकू के खिलाफ़ लड़ेंगे, या फिर अपनी ज़िंदगी की कीमत पर धुएं में खोते रहेंगे। क्या हम अपने बच्चों को विरासत में किताबें देंगे या कैंसर की कगार?
हमें तंबाकू नहीं, तमीज़ का स्वाद देना है। सिगरेट नहीं, सोच की रौशनी जलानी है। कश नहीं, कल की उम्मीद देनी है।
वरना एक दिन आएगा जब हमारी सड़कें, कॉलेज, और कैबिन- सभी होंगे धुएं से भरे, और हमारे श्वास-ग्रंथियों में सिर्फ़ अफ़सोस बचेगा।
इस धुएं को रोकिए-क्योंकि यही वक़्त है चेतने का।
क्योंकि जो आज धुआं है, वही कल राख बनकर हमारे सपनों पर गिर सकता है।
(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)