राष्ट्रपति के रूप में डॉनल्ड ट्रंप की ताजपोशी के साथ अमेरिका की राज्य-व्यवस्था का रूपांतरण पूरा होने जा रहा है। इसका संदेश ट्रंप ने अपने शपथ ग्रहण से एक दिन पहले वॉशिंगटन में आयोजित ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ रैली में फिर से दिया। वहां उन्होंने उस दिशा को और स्पष्ट किया, जो राजनीति में उनके प्रवेश के बाद से उनके नाम के साथ जुड़ी रही है।
ट्रंप ने एलान किया- ‘हम अमेरिका वासियों को सर्वोत्तम प्रथम दिन, सर्वोत्तम प्रथम सप्ताह और सर्वोत्तम आरंभिक 100 प्रदान करने जा रहे हैं।’ यानी उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले दिन, पहले हफ्ते, और पहले 100 दिनों के एजेंडे (या इरादे) का संकेत अपने देशवासियों को दिया।
चूंकि अमेरिका आज भी दुनिया की सबसे बड़ी सैनिक और कूटनीतिक प्रभाव वाली ताकत है, इसलिए इन बातों का सहज संबंध बाकी दुनिया से भी जुड़ जाता है।
ट्रंप ने पहला इरादा यह जताया कि निवर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जो फैसले कार्यकारी आदेश (executive order) के जरिए लागू किए, उन्हें वे रद्द कर देंगे। इस तरह उन्होंने अमेरिका पर से बाइडेन की छाप को मिटा डालने का इरादा जताया है।
बाइडेन को वे अमेरिकी इतिहास का सबसे खराब राष्ट्रपति कहते रहे हैं। लेकिन किसी पूर्व राष्ट्रपति के सभी कार्यकारी आदेशों को रद्द करने ट्रंप का इरादा अमेरिका की सामान्य सियासी रवायत के खिलाफ है।
वैसे अपने लिए ट्रंप खेमे में नाराजगी बढ़ाने में जो बाइडेन ने कम योगदान नहीं किया है। पिछले छह नवंबर को चुनाव में अपनी पार्टी की बुरी हार से अप्रभावित रहते हुए उन्होंने गुजरे ढाई महीनों में एकतरफा फैसले लिए।
जबकि परंपरा रही है कि पराजय के बाद निवर्तमान हुआ राष्ट्रपति कार्यवाहक भूमिका में फैसले लेता है। ऐसी कोई संवैधानिक व्यवस्था तो नहीं है, मगर राजनीतिक जनादेश का अनुपालन इस परंपरा का हिस्सा रहा है। चूंकि बाइडेन ने परंपरा नहीं निभाई, तो अब ट्रंप ने उनसे आगे बढ़ कर उन्हें जवाब देने का इरादा जताया है।
ये पूरा घटनाक्रम अमेरिकी राजनीति के हुए विखंडन का परिचायक है। ट्रंप दरअसल, इसी विखंडन के प्रतीक हैं। सरकार के विभिन्न हितों के बीच समन्वयक होने की भूमिका की समाप्ति प्रक्रिया इस विखंडन के साथ अपनी मंजिल पर पहुंच रही है। समन्वयक भूमिका की कहानी बहुत पुरानी नहीं है। सरकार की ऐसी भूमिका अमेरिका में 1929 की महामंदी के बाद बनी।
चुनावी लोकतंत्र वाले अन्य देशों में दूसरे विश्व युद्ध के बाद सरकारों की ऐसी भूमिका अस्तित्व में आती दिखी। मगर 1970-80 के दशकों में नव-उदारवाद की शुरुआत के साथ इस भूमिका पर दबाव बनने लगे।
1990 के दशक में नव-उदारवादी नीतियों पर सियासी आम सहमति उभरने के साथ सरकारों का पूंजीशाहों के साथ सीधा गठजोड़ बनने लगा। अब सरकार और पूंजीशाहों के बीच रही-सही दूरी भी खत्म हो रही है।
ट्रंप खुद अरबपति हैं। इस बार अरबपतियों का राज कायम करने का जनादेश वे ले आए हैं। उसका खुला प्रदर्शन वे कैसे कर रहे हैं, उसकी एक मिसाल बीते शुक्रवार को देखने को मिली, जब ट्रंप ने कार्यभार संभालने से दो दिन पहले अपनी क्रिप्टोकरेंसी लॉन्च की। इसका मार्केट वैल्यू तेज़ी से बढ़ा।
एक समय यह साढ़े पांच बिलियन डॉलर तक पहुंच गया। इस क्रिप्टोकरेंसी का नाम ‘डॉलरट्रंप’ ($Trump) रखा गया है, जिसे ट्रंप की सहयोगी कंपनी सीआईसी डिजिटल एलएलसी लेकर आई है। यह कंपनी पहले ट्रंप के नाम से ब्रांडेड जूते और इत्र बेचती थी।
मीम क्वाइन श्रेणी में आने वाली इस क्रिप्टोकरेंसी के लॉन्च होने ऐलान खुद ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म ट्रूथ सोशल पर किया। उन्होंने लिखा- “मेरा नया आधिकारिक ट्रंप मीम यहां है! हम जिसके लिए जाने जाते हैं उसका जश्न मनाने का समय आ गया है: जीत!” बीबीसी के मुताबिक डॉलरट्रंप की वेबसाइट के मुताबिक़ कंपनी ने क़रीब 20 करोड़ टोकन जारी कर दिए हैं, जबकि क़रीब 80 करोड़ डिजिटल टोकन आने वाले तीन वर्षों में जारी किए जाएंगे।
क्या ट्रंप के आलोचकों की इस बात में दम नहीं है कि ट्रंप राष्ट्रपति पद का व्यक्तिगत लाभ उठा रहे हैं? क्रिप्टो वेंचर कैपिटलिस्ट निक टोमैनो ने एक सोशल मीडिया पोस्ट में कहा- “ट्रंप के पास 80 फ़ीसदी की हिस्सेदारी है। राष्ट्रपति पद की शपथ से पहले क्रिप्टो लॉन्च करने से उन्हें आर्थिक लाभ होगा।
उधर कई लोगों को इससे नुक़सान होने की आशंका है।” एक निवेशक ने कहा कि ट्रंप का कार्यकाल आर्थिक धोखाधड़ी का “ग्रेट” दौर होने जा रहा है।
डोनल्ड ट्रंप ने पिछले साल बिटक्वाइन कॉन्फ्रेंस में कहा था कि उनके राष्ट्रपति बनने पर अमेरिका “धरती पर क्रिप्टो राजधानी” बन जाएगा। उन्होंने क्रिप्टोकरेंसी को अमेरिका के विदेशी मुद्रा भंडार में जगह देने का वादा वहां किया है।
उस वादे के प्रति उन्होंने बार-बार प्रतिबद्धता जताई है। उधर उनके बेटे एरिक और डॉनल्ड जूनियर ने पिछले साल अपना क्रिप्टो वेंचर लॉन्च किया था।
तो ट्रंप के इस कार्यकाल में सरकार और कारोबार का अंतर मिटने जा रहा है। ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह में जिस तरह अमेरिका के टेक अरबपतियों को आमंत्रित किया गया है और बैठाने के क्रम में उन्हें जैसी अहमियत दी जा रही है, उससे भी इसी बात की पुष्टि होती है।
सरकार और व्यापार के जुड़ने की परिघटना का एक दौर वो था, जिसे क्रोनी कैपिटलिज्म के नाम से जाना गया। उस दौर में सरकारें अपने पसंदीदा पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए खास फैसले लेती थीं। दूसरा दौर वो आया, जब मोनोपॉली कायम कर चुके पूंजीपति (प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से) चुनावों में अपना उम्मीदवार स्पॉन्सर करने लगे।
अब नया दौर वह है, जिसमें खुद अरबपति नेता बन कर राजसत्ता पर बैठने जा रहे हैं। वे उसका राजसत्ता को अपने व्यक्तिगत तथा वर्गगत हितों को साधने का माध्यम बना रहे हैं। ट्रंप इस दौर के प्रतीक हैं।
इस दौर में ये राजनेता अपना लाभ जहां देखेंगे, उसके मुताबिक नीतियां बनाएंगे। ट्रंप ने चुनाव अभियान के दौरान खुद को शांति का उम्मीदवार घोषित किया था। उनके साथ जो कारोबारी जुटे हैं, उन्हें देखें, तो ये बात का अर्थ समझना आसान हो जाएगा।
पिछले चुनाव में औद्योगिक पूंजीपति डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ थे, जिनके हित हथियार से उद्योगों में है। नतीजतन बाइडेन-हैरिस प्रशासन ने युद्धवादी नीति अपनाई- यहां तक कि गजा में इजराइल के हाथों फिलस्तीनियों के मानव संहार में सहयोगी बने।
दूसरी ओर ट्रंप के साथ टेक-फाइनेंस अरबपति इकट्ठे हुए हैं, जिन्हें युद्ध से ज्यादा शांति में फायदा नजर आता है। खासकर चीन के साथ उनके गहरे कारोबारी हित जुड़े हैं। तो फिलहाल ट्रंप शांतिवादी मुद्रा में हैं।
बहरहाल, उनकी विदेश नीति के बारे में अभी कोई ठोस एवं निश्चित अनुमान लगाना कठिन है। इसीलिए ट्रंप की ताजपोशी के साथ अमेरिका की विदेश नीति को लेकर दुनिया भर में अनिश्चय और अंदेशे गहरा गए हैं।
गौरतलब है कि ऐसा माहौल अमेरिका के सहयोगी देशों में भी बना है। कारण यह कि आरंभिक तौर पर ट्रंप ने सहयोगी और पड़ोसी देशों के खिलाफ भी मोर्चा खोला है। जबकि जहां उनसे सख्त रुख की अपेक्षा की गई थी, वहां उन्होंने अप्रत्याशित रूप से नरम नजरिया अपनाया है।
मसलन, ट्रंप इजराइल का घोर समर्थक माने जाते हैं, मगर ह्वाइट हाउस में प्रवेश से पहले ही उन्होंने इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को हमास के साथ युद्धविराम करने के लिए मजबूर किया।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को ट्रंप ने खुद फोन किया। बातचीत के बाद सोशल मीडिया पर उन्होंने कहा कि शी के साथ मिल कर वे दुनिया में शांति लाने के लिए काम करेंगे।
जबकि कनाडा जैसे पिछलग्गू दोस्त को उन्होंने आहत किया है। पड़ोसी मेक्सिको को उन्होंने आशंकित कर रखा है। नाटो के सदस्य डेनमार्क के इलाके ग्रीनलैंड को हड़पने का इरादा जताया है।
यूरोपीय सहयोगियों को धमकाया है कि उन्होंने अपने जीडीपी का पांच प्रतिशत हिस्सा सेना पर खर्च ना किया, तो अमेरिका उनकी सुरक्षा नहीं करेगा। और भारत को चेताया है कि उसने अमेरिकी उत्पादों पर शुल्क नहीं घटाया, तो उसी अनुपात में भारतीय उत्पादों पर वे भी आयात शुल्क लगाएंगे।
ऐसे में ट्रंप के कार्यकाल की शुरुआत में भारत के नीतिकार अंदेशे में हों, तो इस बात को समझा जा सकता है। यहां ये बात ध्यान में रखनी चाहिए कि चीन से अमेरिका के बढ़ते तनाव का अमेरिकी रणनीति में भारत का महत्त्व बढ़ने से सीधा संबंध रहा है।
ट्रंप अपने टेक अरबपति साथियों के हितों के अनुरूप चीन के प्रति नरम रुख अपनाते हैं, तो उसका असर भारत-अमेरिका संबंधों पर पड़ेगा।
उधर आयात शुल्क बढ़ाने की राह पर ट्रंप कायम रहते हैं, तो भारत के कृषि क्षेत्र के लिए नई चुनौतियां पैदा होंगी। विशेषज्ञों के मुताबिक ट्रंप प्रशासन भारत पर अमेरिकी कपास, दुग्ध उत्पादों, इथेनॉल, ताजा फल, ड्राइ फ्रूट, वन उत्पादों, खाद्य एवं पेय पदार्थों, और दालों के लिए बाजार खोलने के लिए दबाव डाल सकता है।
आखिर ट्रंप का मकसद सभी देशों के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा कम करना और अमेरिका में अपने समर्थक वर्ग को लाभ पहुंचाना है।
विदेश नीति में ट्रंप किस ओर जाएंगे, उसका अनुमान लगाना फिलहाल कठिन है। अभी इतना ही कहा जा सकता है कि अमेरिकी व्यापारियों के हित जिधर सधेंगे, वही उनकी पसंदीदा राह होगी। ये हित कहां और कितना सधेंगे, यह शायद उभरती हुई परिस्थितियों से तय होगा।
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(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)