अमेरिका की सूरत बदल देने को तैयार हैं ट्रंप

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कुछ विश्लेषकों की इस राय से सहज ही इत्तेफ़ाक रखा जा सकता है कि डॉनल्ड ट्रंप अमेरिकी इतिहास के नहीं, तो कम-से-कम हाल के दशकों का सबसे ताकतवर राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं। राजनीतिक सत्ता को निर्धारित करने वाले तमाम पहलू जिस हद तक ट्रंप के अनुकूल हैं, वैसा पीढ़ियों से नहीं हुआ।

1933 से 1945 में अपनी मृत्यु के दिन तक लगातार राष्ट्रपति रहने वाले फ्रैंकलीन डी. रुजवेल्ट अपनी न्यू डील योजना से श्वेत श्रमिक वर्ग में बनी अपनी जबरदस्त लोकप्रियता के बूते लगातार चार बार राष्ट्रपति चुनाव जीतने में जरूर कामयाब हुए थे, लेकिन देश के उद्योगपित-धनिक वर्ग के बीच उनका विरोध लगातार बना रहा था।

उसके बाद लोकप्रिय से लोकप्रिय राजनेता के लिए भी घरेलू राजनीति में वैसी चुनौती-विहीन स्थिति नहीं थी, जैसी आज ट्रंप के लिए दिख रही है।

ट्रंप के शासनकाल का अनुमान लगाने के लिए जरूरी है कि उनकी इस शक्ति के स्रोतों को समझा जाए। तो पहले उनकी राजनीतिक शक्ति पर नज़र डालेः

  • ट्रंप राष्ट्रपति पद पर अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत कांग्रेस के दोनों सदनों- सीनेट और हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में ‘वफादार’ सदस्यों के बहुमत के साथ कर रहे हैं। इसका अर्थ है कि दोनों सदनों में उनकी रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत तो हो ही गया है, पार्टी सांसदों के भीतर भी बहुसंख्या उन सदस्यों की जो है, जो ट्रंप के मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (मागा) आंदोलन में या तो भागीदार या उसके समर्थक हैं अथवा अपनी संसद सदस्यता के लिए इस आंदोलन के समर्थन पर निर्भर हैं।
  • अब अमेरिका के 50 में से 27 राज्यों में रिपब्लिकन गवर्नर हैं। इनमें ज्यादातर मागा खेमे में अपनी जगह बना चुके हैं।
  • रिपब्लिकन पार्टी अब वास्तव में ट्रंप और मागा की ही पार्टी है। पार्टी के अंदर ट्रंप विरोधी या तो हाशिये पर पहुंचा दिए गए हैं, अथवा उन्होंने पार्टी छोड़ देने में ही अपनी भलाई समझी है।

यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि 2017 में जब ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने, तब यह स्थिति नहीं थी। रिपब्लिकन पार्टी के अंदर उनके खिलाफ परंपरागत रिपब्लिकन नेताओं का बड़ा गुट मौजूद था। इस गुट से जुड़े सांसद सीनेट और हाउस के अंदर भी ट्रंप के तानाशाही किस्म के एजेंडे पर लगाम रखते थे।

  • 2016 में आश्चर्यजनक रूप से चुनाव हारने के बावजूद डेमोक्रेटिक पार्टी बिखरी अवस्था में नहीं थी। ट्रंपिज्म के खिलाफ उसने राजनीतिक मोर्चा तुरंत संभाल लिया था।
  • असल में तब ट्रंप की इस बार जैसी एकतरफा जीत भी नहीं हुई थी। डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन आधार अटूट था। इस बार यह बिखराव की अवस्था में है।
  • इसका एक अहम पहलू तब बर्नी सैंडर्स परिघटना का शक्तिशाली अवस्था में मौजूद बने रहना था। सैंडर्स ने अपने डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट एजेंडे से युवा वर्ग में जबरदस्त लोकप्रियता बना ली थी। डेमोक्रेटिक पार्टी के ऐस्टैबलिशमेंट ने अनुचित तरीके अपनाते हुए उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार नहीं बनने दिया, मगर सैंडर्स ने तत्कालीन प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन को अपने एजेंडे के कई पहलू स्वीकार करने पर मजबूर किया था। सैंडर्स तब ट्रंप की मागा धुरी के खिलाफ वामपंथी लोकप्रिय धुरी को निर्मित करते और उसे नेतृत्व देते दिख रहे थे। ट्रंपिज्म के खिलाफ यह एक प्रभावशाली काउंटर-वेट था।
  • बर्नी सैंडर्स ने 2020 के बाद जिस तरह डेमोक्रेटिक पार्टी एस्टैबलिशमेंट के सामने समर्पण किया और जो बाइडेन के शासनकाल में जिस तरह का समझौतावादी रुख उन्होंने अपनाया, उससे ना सिर्फ उनकी अपनी प्रतिष्ठा धूल में मिल गई, बल्कि उनका खेमा भी बिखरता चला गया।
  • 2016 में अमेरिका का लिबरल खेमा कंजरवेटिव्स से मजबूत नहीं, तो कम-से-कम उनके मुकाबले का जरूर था। तब ट्रंप के जीतते ही ब्लैक राइट्स संगठन, अल्पसंख्यक एवं नारीवादी समूह, और अन्य नागरिक अधिकार समर्थक गुट सड़कों पर उतर आए थे। देश भर में लाखों लोगों ने ट्रंप विरोधी प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था। ट्रंप के शासनकाल में anti-fa नाम से चर्चित हुए एंटी फासिस्ट समूह उभरे, जिनके बारे में चर्चा थी कि वे ट्रंप के कथित फासिज्म का विरोध करने के लिए हथियारबंद दस्ते तैयार कर रहे हैं।

आज क्या हाल है? ट्रंप की जीत के बाद इन खेमों पर जैसे पाला पड़ गया। जो खामोशी छायी है, उसके टूटने के फिलहाल सीमित संकेत ही हैं। इसके बीच क्या फिर से anti-fa समूह सक्रिय होंगे, यह एक बड़ा सवाल बना हुआ है।

ट्रंप की यह ताकत असल में देश के शासक वर्ग के प्रभावी हिस्सों के उनके पीछे लगभग एकजुट इकट्ठा हो जाने से बनी है। कॉरपोरेट्स, वित्त जगत के कर्ता-धर्ता और अन्य बिजनेस हित आज उनका खुल कर समर्थन कर रहे हैं। इसका नतीजा है कि सोशल मीडिया कंपनियां और मेनस्ट्रीम मीडिया का बड़ा हिस्सा, जो ट्रंप-1 के समय उनके अंदाज और एजेंडे के खिलाफ खड़ा था, आज उनके सामने नत-मस्तक है। इसके अलावा गुजरे आठ वर्षों में मागा समर्थकों ने अपना मीडिया भी खड़ा किया है, जिसकी अब व्यापक पहुंच और बड़ी दर्शक/श्रोता संख्या है।

ट्रंप की जीत के दो महीनों के अंदर हुई घटनाएं गौरतलब हैः

  • अनेक बड़ी कंपनियों के सीईओ व्यक्तिगत रूप से ट्रंप से मिलने गए। उनमें से ज्यादातर ने ट्रंप को उनके शपथ ग्रहण समारोह के लिए दस लाख डॉलर से अधिक के चेक सौंपे।
  • न्यूयॉर्क टाइम्स में हफ्ते भर से पहले छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह के लिए कंपनियों के सीईओ 17 करोड़ डॉलर से अधिक का चंदा दे चुके थे।
  • ट्रंप ने राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के बारे में लाइब्रेरी बनाने की इच्छा जताई है। इसके लिए छह नवंबर (जिस रोज चुनाव हुआ था) के बाद से उनके समर्थक 25 करोड़ डॉलर से अधिक की रकम जुटा चुके हैँ।
  • ट्रंप की निगाह में चढ़ने के लिए अमेरिकी अरबपति अपने विदेशी दोस्तों को अमेरिका में निवेश करने के लिए राजी कर रहे हैं। इसमें मिली कामयाबी की मिसालें फ्लोरिडा में मार-ए-लागो स्थित निवास पर हाल में हुई ट्रंप की बहुचर्चित प्रेस कांफ्रेंस देखने को मिलीं। वहां जापानी कंपनी सॉफ्टबैंक के सीईओ मासायोशी सोन ने अगले चार साल के दौरान अमेरिकी परियोजनाओं में 100 बिलियन डॉलर के निवेश की घोषणा की। उधर यूएई में ट्रंप परिवार के बिजनेस पार्टनर हुसैन सेजवानी ने अमेरिका में डेटा सेंटर बनाने में 20 बिलियन डॉलर के निवेश का एलान किया।
  • अमेजन कंपनी के मालिक जेफ बिजोस ने अपने प्राइम वीडियो प्लैटफॉर्म पर चार करोड़ डॉलर की लागत से एक डॉक्यूमेंटरी बनाने का एलान किया है, जिसकी एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर ट्रंप की पत्नी मेलानिया ट्रंप होंगी।
  • चुनाव से ठीक पहले उनके अखबार वॉशिंगटन पोस्ट के संपादकों ने डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस को समर्थन देने संबंधी संपादकीय लिखा था। जिसका छपना बिजोस ने ऐन वक्त पर रुकवा दिया। उस घटनाक्रम में कई संपादकों को इस्तीफा तक देना पड़ा था। ऐसी ही घटना अमेरिका के एक अन्य प्रमुख अखबार द लॉस एंजिल्स टाइम्स में भी हुई थी।
  • दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति इलॉन मस्क तो चुनाव अभियान के समय से ट्रंप का एजेंडा सेट कर रहे हैं। उन्होंने ट्विटर को खरीद कर सोशल मीडिया के क्षेत्र में जो ताकत अर्जित की, उसने भी उन्हें ट्रंप के लिए एक कीमती सहयोगी बना रखा है। ट्रंप के जीत में बड़ा योगदान करने के बाद मस्क अब दुनिया के अन्य देशों में धुर-दक्षिणपंथी एजेंडे को आगे बढ़ाने की मुहिम जुट गए हैँ। इस बीच दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में उनके कारोबार के लिए अनुकूल स्थितियां बन रही हैं।
  • इसी बीच फेसबुक, इंस्टाग्राम, ह्वाट्सऐप आदि की संचालक कंपनी मेटा के मालिक मार्क जकरबर्ग ने भी पाला बदला है। 2020 में ट्रंप के हारते ही फेसबुक पर उन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया था। वही जकरबर्ग अब अमेरिका में अपने मीडिया प्लैटफॉर्म्स पर धुर-दक्षिणपंथी दुष्प्रचार को जांचने का तंत्र भंग कर चुके हैं। उन्होंने अपनी कंपनी में बहुलता एवं सामाजिक न्याय की नीति को रद्द कर दिया है। इस तरह उन्होंने ट्रंप के धुर-कंजरवेटिव एजेंडे को गले लगा लिया है। इतना ही नहीं, उन्होंने जो बाइडेन प्रशासन पर सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया है कि उसने उनकी कंपनी की मीडिया प्राथमिकता तय करने के लिए दबाव डाला था। इस तरह उन्होंने ट्रंप खेमे में अपने अंक बढ़ाए हैँ। (https://www.ft.com/content/682ca921-ccfd-445e-b486-94f4b8542b12)
  • आज के दौर में अगर मेटा और एक्स प्लैटफॉर्म्स आपके साथ हों, तो उससे बड़ा मीडिया समर्थन और क्या हो सकता है! ट्रंप के साथ आज ये दोनों तो हैं ही, अन्य प्लैटफॉर्म्स भी उनके एजेंडे के आगे झुकते दिख रहे हैं।
  • लिबरल मेनस्ट्रीम मीडिया आज अपने साख के गंभीर संकट से जूझ रहे है। न्यूयॉर्क टाइम्स, सीएनएन, एमएसएनबीसी आदि अब 2016 जैसी अवस्था में नहीं है, जिससे उन्होंने तब ट्रंपिज्म का विरोध किया था।

ट्रंप अपने पहले कार्यकाल में ही न्यायपालिका को अपने अनकूल ढाल चुके थे। अमेरिका में जजों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर होती है। पहले कार्यकाल में उन्होंने और राज्यों में उनके मागा समर्थक गवर्नरों ने दक्षिणपंथी रुझान वाले जजों की नियुक्ति अभियान चला कर की। नतीजा है कि अदालतें दक्षिणपंथी एजेंडे के पक्ष में फैसले देती चली गई हैँ। उसकी सबसे चर्चित मिसाल सुप्रीम कोर्ट द्वारा गर्भपात को वैध ठहराने संबंधी 50 साल पुराने अपने फैसले को पलट देना रहा है।

लिबरल समझे जाने वाले न्यूयॉर्क की अदालत ने ट्रंप के खिलाफ अवैध यौन संबंध पर परदा डालने के लिए धन देने संबंधी मामले में जैसा फैसला दिया, उससे ट्रंप के आगे न्यायपालिका के लड़खड़ाने के साफ संकेत मिले हैं। कोर्ट ने इस मामले में ट्रंप को दोषी तो ठहराया, लेकिन बिना कैद या जुर्माने की सजा दिए मामला खत्म कर दिया। (https://theintercept.com/2025/01/10/trump-hush-money-sentencing-unconditional-discharge/)

  • आखिरी बात, लेकिन अमेरिकी सियासत के लिहाज जो बेहद अहम है, वो यह कि इजराइल समर्थक (Zionist) लॉबी पूरी तरह ट्रंप के पीछे खड़ी है। मीडिया के रिपोर्टों के मुताबिक ट्रंप इजराइल सबसे लोकप्रिय राजनेता हैं। उनकी लोकप्रियता बेंजामिन नेतन्याहू से भी ज्यादा है। यह भी Zionist लॉबी के ट्रंप के पीछे पूरी तरह खड़ी होने का संकेत है। अमेरिकी राजनीति और मीडिया ढांचे में इस लॉबी की गहरी पैठ है। उसका साथ वहां सियासी कामयाबी की पूर्व शर्त मानी जाती है।

इस रूप में अमेरिकी सत्ता के तमाम केंद्र आज ट्रंप के पीछे एकजुट नजर आ रहे हैं। इसका दूरगामी परिणाम अमेरिकी सियासत के साथ-साथ विश्व शक्ति संतुलन पर भी पड़ेगा। ट्रंप अमेरिका को मागा के रंग में ढालने पर आमादा हैं। उनका एजेंडा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक- तमाम दायरों में उन सारी प्रगतियों को पलट देने का है, जिनसे बीसवीं सदी में अमेरिका की उदारवादी छवि बनी थी। यानी उसे एक खास पहचान मिली थी। संक्षेप में कहें, तो सामाजिक-सांस्कृतिक उदारवाद का ट्रंप के मागा समर्थक नामो-निशां मिटा देना चाहते हैं। मसलन,

  • रिपब्लिकन शासित राज्यों में क्रिटिकल रेस थ्योरी पढ़ाने पर रोक लगाने का सिलसिला शुरू हो चुका है।
  • एलजीबीटीक्यू समुदायों के लिए हुए विशेष प्रावधानों को मिटाया जा रहा है।
  • फ्लोरिडा राज्य ने कथित कम्युनिस्ट उत्पीड़न के इतिहास को पाठ्यक्रम में शामिल किया है।
  • पारिवारिक मूल्यों को कट्टर ईसाई पहचान के साथ लागू करने की मुहिम तेज हो रही है।
  • अपराधियों को बेरहमी से कुचल देने की सोच फैलाई गई है। आव्रजकों को अपराध के प्रमुख स्रोत के रूप में चिह्नित किया जा रहा है और उनके प्रति किसी प्रकार के रहम का विरोध किया जा रहा है।
  • रिपब्लिकन पार्टी हमेशा से हथियार रखने के अधिकारों की समर्थक रही है। इसके पीछे यही सोच है कि समृद्ध और सक्षम तबके अपराधियों से अपने बचाव के लिए हथियार रखना चाहते हैं, तो इसका उन्हें हक है।
  • आव्रजकों को हर प्रकार की आर्थिक मुश्किलों के लिए दोषी ठहराने का अभियान मागा प्रचार का अभिन्न अंग है।
  • इस परियोजना का विरोध करने वाले समूहों या व्यक्तियों को मागा से जुड़े लोग कम्युनिस्ट बता देते हैं। अमेरिकी मेनस्ट्रीम मीडिया एवं विमर्श में यह इतिहास तो लंबा हो चला है, जिसमें कम्युनिस्ट- सोशलिस्ट शब्दों को अपराधी के समानार्थी समझा जाता है।

वैसे तो इनमें से कई बातें रिपब्लिकन-कंजरवेटिव्स का पुराना एजेंडा है, मगर मागा आंदोलन का समर्थन बढ़ने के साथ इन्हें जितनी लोकप्रियता मिली है, वैसा कम-से-कम दूसरे विश्व युद्ध के बाद से नहीं हुआ। ट्रंप और मागा की खूबी यह है कि इन्होंने इन मुद्दों को अमेरिकी समाज और मेनस्ट्रीम विमर्श का मुख्य एजेंडा बना दिया है, जिस पर पिछले आठ वर्षों में समाज बंटता चला गया है। इस ध्रुवीकरण में मागा के भारी पड़ने से ही ट्रंप को वह ताकत मिली है, जिससे आज वे और उनके निकट सहयोगी अमेरिका से आगे बढ़ते हुए यूरोप और अन्य देशों का एजेंडा तय करने की कोशिश में जुटे दिख रहे हैं।

इन सबकी आड़ में खुद अरबपति ट्रंप का असल खेल है। वे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को हैवियर मिलेय की तर्ज पर anarcho-capitalist ढांचे में ढालना चाहते हैं, जिससे अरबपति देश के धन एवं संसाधनों से बेलगाम अपनी तिजोरी भर सकें। हर धुर-दक्षिणपंथी एजेंडे के पीछे ऐसी ही ताकतें होती हैं और यही मकसद होता है। अमेरिका में यह एजेंडा आज अभूतपूर्व रूप से हावी हो गया है। मगर यह रास्ता जोखिमों भी भरा होता है। यह समाज को तीखे ध्रुवीकरण और आंतरिक अशांति की ओर ले जाता है। ट्रंप के काल में अमेरिका भी ऐसी संभावनाओं से मुक्त नहीं है। लेकिन यह एक अलग चर्चा का विषय है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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