डोनाल्ड ट्रंप की क्रूरता ने फिर दिखाया कि पूंजीवाद में सिर्फ मुनाफा ही सर्वोपरि है, बाकी सब दिखावा! अमेरिका में बहुचर्चित DEI (डाइवर्सिटी, इक्विटी और इन्क्लूजन) कार्यक्रमों पर हमला यह साफ करता है कि जब तक विविधता और समानता का दिखावा मुनाफे के अनुकूल था, तब तक कॉर्पोरेट कंपनियों ने इसे अपनाया, लेकिन जैसे ही राजनीतिक सत्ता ने इशारा किया, वे कदम पीछे खींचने लगीं।
Accenture, Google और Amazon जैसी कंपनियों ने वर्षों तक समावेशन का ढोंग किया, लेकिन अब जब ट्रंप और दक्षिणपंथी ताकतें इसे ‘अनावश्यक’ बता रही हैं, तो वे चुपचाप इसे खत्म कर रही हैं। आखिरकार, यह केवल मुनाफे और सत्ता के समीकरण का खेल है, न कि किसी नैतिक मूल्य का प्रश्न!
सदियों से सत्ता की बागडोर उन्हीं हाथों में रही है जो विविधता को कुचलने में अपनी विजय समझते हैं। अब जब समाज ने अपनी आवाज़ उठानी शुरू की, जब हाशिए पर पड़े लोगों ने अपने अधिकारों की बात करनी शुरू की, तभी सत्ता के केंद्र में बैठे लोगों को खतरा महसूस होने लगा।
ट्रंप जैसे नेता, जो सत्ता को अपने वर्ग और समुदाय की निजी संपत्ति समझते हैं, अब बौखलाए हुए हैं। इसलिए उन्होंने कुछ ही दिनों में वर्षों की मेहनत को मिट्टी में मिला दिया, जैसे कोई तानाशाह अपने दुश्मनों के नामोनिशान मिटा देता है।
DEI की नीतियां सिर्फ कागज़ों पर लिखे शब्द नहीं थीं, बल्कि यह उस समाज की नींव को मजबूत कर रही थीं, जिसे सदियों तक तोड़ा और कुचला गया। यह उन सैनिकों की आवाज़ थी जो युद्ध के मैदान में अपने देश के लिए लड़े लेकिन जब वे लौटे तो उनके अधिकार छीन लिए गए। यह उन विकलांगों की उम्मीद थी जो देश के लिए लड़ते हुए अपने अंग खो चुके थे, लेकिन सरकार ने उन्हें सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिया। यह उन ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब सैनिकों का सहारा था, जिनके लिए अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं अब भी सपना हैं। लेकिन सत्ता को इन सबकी कोई चिंता नहीं। उनकी प्राथमिकता सिर्फ वही वर्ग है जो हमेशा से विशेषाधिकार प्राप्त करता आया है।
ट्रंप ने जिस बर्बरता के साथ DEI को मिटाने की कोशिश की, वह केवल प्रशासनिक आदेश नहीं था, बल्कि यह ऐलान था कि अमेरिका में केवल एक ही रंग, एक ही वर्ग, और एक ही सोच की सत्ता रहेगी। यह उस सामाजिक व्यवस्था को फिर से स्थापित करने की साजिश है, जहां महिलाओं, अश्वेतों, और अल्पसंख्यकों को केवल शोभा की वस्तु समझा जाता था।
कुछ समझदार लोग इस सच को जानते हैं, इसलिए वे इसे रोकने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन यह लड़ाई कुछ व्यक्तियों की नहीं, बल्कि पूरे समाज की है। जब सरकार खुद अपने ही नागरिकों के अधिकारों को कुचलने लगे, जब सत्ता का उपयोग जनता के शोषण के लिए किया जाने लगे, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वह सरकार जनतंत्र की नहीं, बल्कि तानाशाही की राह पर चल रही है।
अमेरिका के सैनिक, जो कभी अपने देश के लिए गोलियां खाते थे, आज उन्हीं के अधिकारों पर गोलियां दागी जा रही हैं-लेकिन इस बार ये गोलियां बंदूकों से नहीं, बल्कि क़ानूनी आदेशों, बजट कटौती और नौकरियों से निकाले जाने की शक्ल में हैं। ट्रंप प्रशासन ने उन लोगों को ही निशाना बनाया जो इस देश के सबसे अधिक निस्वार्थ सेवा करने वाले नागरिक हैं। यह न सिर्फ एक राजनीतिक हमला है, बल्कि यह उस संवैधानिक सिद्धांत का सीधा अपमान है, जो समानता और न्याय की बात करता है।
ट्रंप समर्थकों की भाषा में DEI को अराजकता और व्यर्थ खर्च कहा जाता है, लेकिन यह असल में उनकी मानसिकता का प्रतिबिंब है। वे यह नहीं चाहते कि समाज के हर तबके को बराबरी मिले। वे नहीं चाहते कि हर कोई अपनी आवाज़ बुलंद करे।
वे केवल यह चाहते हैं कि सत्ता पर उनका एकाधिकार बना रहे। लेकिन इतिहास गवाह है कि कोई भी तानाशाही हमेशा के लिए नहीं टिकती। कोई भी अन्याय हमेशा सहन नहीं किया जाता। अगर आज कुछ लोग इस अन्याय के खिलाफ खड़े हो सकते हैं, तो कल पूरा अमेरिका खड़ा होगा।
यह लड़ाई केवल सरकारी नीतियों की नहीं, बल्कि इंसानियत की है। और इंसानियत की लड़ाई में जीत हमेशा उन लोगों की होती है जो न्याय के लिए संघर्ष करते हैं, न कि उन लोगों की जो केवल अपनी सत्ता बचाने के लिए इतिहास को पीछे धकेलने की कोशिश करते हैं।
लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत भी इस पूंजीवादी ढोंग का हिस्सा बनेगा? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारतीय शाखाओं पर भी इस फैसले का असर पड़ सकता है। Adipstick के सर्वे के अनुसार, 28% कंपनियों ने अपने DEI कार्यक्रमों को होल्ड पर डाल दिया है, जबकि 28% और कंपनियां अभी आगे के निर्देशों का इंतजार कर रही हैं।
हालांकि, राहत की बात यह है कि भारतीय कंपनियां अभी इस राह पर नहीं चल रहीं। BRSR (बिज़नेस रिस्पॉन्सिबिलिटी एंड सस्टेनेबिलिटी रिपोर्टिंग) के तहत सरकार की अनिवार्यता और विभिन्न कानूनों की वजह से भारतीय कंपनियां फिलहाल पीछे हटने को मजबूर नहीं हैं।
लेकिन क्या भारतीय कंपनियां वास्तव में समावेशन और समानता को लेकर प्रतिबद्ध हैं, या यह भी महज CSR की रणनीति भर है? सच तो यह है कि भारत में भी समावेशन के दावों की जड़ें उतनी गहरी नहीं हैं जितना दिखाया जाता है। कई कंपनियों के लिए यह सिर्फ छवि सुधारने का तरीका है, न कि मूल्यों पर आधारित कोई स्थायी परिवर्तन। अगर सरकार का दबाव हट जाए तो क्या ये कंपनियां भी अमेरिका की तरह अपने कदम पीछे नहीं खींचेंगी?
अमेरिका में ट्रंप जैसे नेताओं के हमले के बावजूद JPMorgan, Goldman Sachs और Deutsche Bank जैसी कंपनियां अब तक DEI कार्यक्रमों से पीछे नहीं हटी हैं। लेकिन क्या यह टिकाऊ रहेगा? क्या पूंजीवाद के भीतर समावेशन और समानता का कोई स्थान है? या यह सिर्फ वही तक सीमित रहेगा जहां तक सत्ता और मुनाफे को फायदा होता रहे?
भारत को इस अवसर को पहचानना चाहिए। यह समय है जब भारतीय कंपनियां खुद को अमेरिका की कंपनियों से अलग दिखा सकती हैं, न कि उनके नक्शे कदम पर चल सकती हैं। उन्हें सिर्फ कानूनी मजबूरियों से नहीं, बल्कि नैतिक आधार पर भी समावेशन और समानता को अपनाना चाहिए। नहीं तो भारत में भी जब सत्ता की हवाएं बदलेंगी, तो यही कंपनियां DEI को छोड़कर उसी पुराने, शोषणकारी पूंजीवादी मॉडल पर लौट आएंगी।
यह करो या मरो का समय है-या तो भारत समावेशन और समानता की राह पर टिकेगा, या फिर अमेरिका की राह पर जाकर सामाजिक न्याय को भी बाजारू खेल बना देगा!
(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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