टनल हादसा: अब हर पल 40 जिन्दगियों पर भारी, रेस्क्यू के नाम पर सिर्फ जुगाड़बाजी

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उत्तराखंड में यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर हुए टनल हादसे को अब 80 घंटे से भी ज्यादा वक्त गुजर गया है। 12 नवंबर की सुबह 5 बजे से 40 मजदूर इस टनल में फंसे हुए हैं। रेस्क्यू के नाम पर सिर्फ जुगाड़़बाजी हो रही है। चिन्ताजनक पहलू यह है कि अब तक के सभी जुगाड़ असफल हुए हैं। घटना के बाद से ही प्रशासन लगातार दावे कर रहा है कि बचाव अभियान तेजी से चल रहा है और फंसे हुए लोगों को जल्द सुरक्षित निकाल लिया जाएगा। लेकिन अब 80 घंटे के बाद हर नया पल टनल में फंसी 40 जिन्दगियों पर भारी पड़ता प्रतीत हो रहा है।

हालांकि प्रशासन का दावा है कि पाइप लाइन के जरिये ऑक्सीजन पानी और खाने के छोटे-छोटे पैकेट भेजे जा रहे हैं। लेकिन अंधेरी सुरंग में 40 लोग 80 घंटे से फंसे हुए हैं। कल्पना की जा सकती है कि वे किस हालत में होंगे। उधर अगले कुछ घंटों में बचाव अभियान पूरा हो पाएगा और फंसे हुए लोगों तक पहुंच बन पाएगी, इसकी कोई संभावना नजर नहीं आ रही है।

12 नवंबर की सुबह निर्माणाधीन टनल के मुहाने से करीब 250 मीटर भीतर हुए भूस्खलन के कारण सुरंग में काम करने वाले मजदूर फंस गये थे। मौके पर ऐसा कोई उपकरण नहीं था, जिससे तुरंत बचाव अभियान शुरू किया जा सकता। एक जेसीबी मशीन थी, लेकिन टनल में आये मलबे को जेसीबी से हटाकर फंसे हुए मजदूरों तक पहुंच पाना संभव नहीं था। ऐसे में टनल को ऊपर से ड्रिल कर मजदूरों तक पहुंचने की योजना बनाई गई। लेकिन आसपास कोई वर्टिकल ड्रिलिंग मशीन ही उपलब्ध नहीं थी। शाम तक वर्टिकल ड्रिलिंग मशीन मौके पर पहुंची और घटना के करीब 15 घंटे में काम शुरू हुआ। लेकिन, ड्रिल करने के साथ ही फिर से टनल में भूस्खलन होने लगा और काम बंद कर देना पड़ा।

इसके बाद मलबे को काटकर मोटे पाइप अंदर डालने का जुगाड़ लगाया गया। लेकिन मौके पर न तो ऐसे पाइप थे और न ही पाइप डालने के लिए मलबा ड्रिल करने के लिए ऑगर ड्रिलिंग मशीन। एक बार फिर से हाथ-पांव मारे गये और 900 मिमी व्यास के पाइप हरिद्वार से मंगवाये गये। ऑगर ड्रिलिंग मशीन का भी जुगाड़ कर लिया गया। 14 नवंबर की दोपहर तक मशीन के लिए प्लेटफार्म तैयार करके पाइप डालने के प्रयास शुरू किये गये। लेकिन, यह जुगाड़ भी फेल हो गया।

हरिद्वार से मंगवाए गए 900 मिमी के पाइप बचाव में काम नहीं आए

14 नवंबर की शाम तक यह प्रयास भी छोड़ दिया गया। अब हैवी ऑगर मशीन की जरूरत महसूस हुई। लेकिन, यह मशीन आस-पास तो क्या पूरे उत्तराखंड में भी कहीं नहीं मिली। दिल्ली में मशीन मिली। दिल्ली से मशीन एयर लिफ्ट करवाने का फैसला हुआ। 15 नवंबर दोपहर को मिले अपडेट के अनुसार हेवी ऑगर ड्रिलिंग मशीन चिन्यालीसौड़ हवाई पट्टी पर पहुंच चुकी थी। इस मशीन का वजन 25 टन बताया जा रहा है। एयरफोर्स के तीन हेलीकॉप्टरों से यह मशीन चिन्यालीसौड़ पहुंचाई गई है। जहां से मशीन के पार्ट अलग करके इसे यहां तक लाया गया है।

अब मशीन को ट्रकों के माध्यम से सिलक्यारा घटनास्थल पहुंचाया जाना है। इसके बाद मशीन असेंबल की जाएगी और तब जाकर काम शुरू हो पाएगा। इसका सीधा अर्थ यह है कि आने वाले कई घंटों तक काम शुरू हो पाने की कोई संभावना नहीं है। एक सूचना के अनुसार इस मशीन से प्रति घंटे 5 मीटर मलबा हटाया जा सकेगा। टनल में 60 मीटर से ज्यादा मलबा होने की आशंका है। यानी कि आधी रात तक काम शुरू हो पाएगा और अगले 12 घंटे तक लगातार काम करने के बाद ही मलबा हटाकर फंसे लोगों तक पहुंच पाना संभव हो पाएगा, वह भी तब जबकि यह योजना सफल हो पाये। पिछले 80 घंटों में टनल में फंसे लोगों की स्थिति काफी बिगड़ चुकी होगी और अब कम से कम और 20 घंटे तक उन तक पहुंच पाना संभव नहीं हो पाएगा।

दिल्ली से मंगवाई गई हेवी ऑगर ड्रिलिंग मशीन

सिलक्यारा घटना को लेकर भूवैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने एक बार फिर से चारधाम सड़क परियोजना पर सवाल उठाने शुरू कर दिये हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट कही जा रही इस परियोजना पर शुरू से ही सवाल उठते रहे हैं। उत्तराखंड के चारों धामों तक सड़कों को चौड़ा करने वाली इस परियोजना के तहत करीब 900 किमी लंबी सड़कों का चौड़ीकरण किया जाना है। केन्द्र सरकार इस परियोजना को लेकर इतनी जल्दबाजी में थी कि परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों के आकलन की बाध्यता को भी बाइपास कर दिया गया।

इसके लिए इस पूरी योजना को 53 हिस्सों में बांट दिया गया। इससे एक-एक परियोजना का आकार छोटा हो गया और परियोजना पर्यावरणीय प्रभावों के आकलन से मुक्त हो गई। बाद में मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरणीय प्रभावों के आकलन के लिए जाने-माने पर्यावरणविद् डॉ. रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक हाई पावर कमेटी भी बनाई। कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट भी दी। लेकिन, बाद में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहकर सड़कों का चौड़ी करने की अनुमति ले ली कि बॉर्डर एरिया होने के कारण इन सड़कों को चौड़ा करना जरूरी है।

टनल में फंसे लोगों की सूची को भी लेकर अब सवाल उठाया जा रहा है। पूछा जा रहा है कि 40 लोगों की इस सूची में स्थानीय लोगों की संख्या केवल दो क्यों है। आशंका जताई जा रही है कि ऐसा जानबूझ कर और साजिश के तहत किया गया है। इससे कंपनी को दोहरा फायदा हुआ है। पहला फायदा तो यह कि दूर के राज्यों से आने वालों को कम मजदूरी देकर उनसे ज्यादा काम लिया जा सकता है और दूसरे यह कि इस तरह की घटना हो जाने पर उनके परिजन दूर के राज्यों से विरोध दर्ज करने नहीं आ सकते।

सिलक्यारा में टनल में फंसे हुए 40 लोगों में सिर्फ एक व्यक्ति का परिजन मौके पर पहुंच पाया है। वह व्यक्ति उत्तराखंड के कोटद्वार का रहने वाला है। अन्य लोगों के परिजन संभवतः इस स्थिति में नहीं हैं कि अपने गांव से इतनी दूर आ सकें।

भू-वैज्ञानिक और उत्तराखंड फॉरेस्ट्री एंड हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी के पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष डॉ. एसपी सती का कहना है उत्तराखंड में रेल लाइन, सड़कों और हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के लिए टनल निर्माण के दौरान भारी मात्रा में विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्होंने आशंका जताई कि सिलक्यारा में टनल बन जाने के बाद भूस्खलन होने की घटना कहीं न कहीं इस तरफ इशारा करती है कि यहां कोई बड़ा विस्फोट किया गया है। वे कहते हैं कि इस क्षेत्र के लिए बनाई जाने वाली योजनाओं के लिए जो जियोलॉजिकल और जियोटेक्नीक सर्वेक्षण किया जाता है, वह बहुत फौरी होता है और एक तरह से केवल खानापूर्ति के लिए किया जाता है।

हिमालयी मामलों के जानकार भूवैज्ञानिक और इसरो के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. नवीन जुयाल ने सिलक्यारा की घटना को लेकर एक वीडियो जारी किया है। उन्होंने कहा कि इस तरह की योजनाओं पर काम शुरू होने से पहले जियोलॉजिकल और जीयोटेक्नीक जांच की जाती है। इस जांच की रिपोर्ट निर्माण करने वाली एजेंसी को दी जाती है और एजेंसी रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए निर्माण करती है।

डॉ. जुयाल के अनुसार सिलक्यारा टनल की भी इस तरह की जांच हुई होगी। जांच में यह बात भी जरूर होगी कि इस क्षेत्र में कच्ची और कतरनी चट्टानें हैं, जो भूस्खलन का कारण बन सकती हैं। ऐसे में निर्माण एजेंसी ने इससे बचने के लिए क्या उपाय किये यह साफ किया जाना चाहिए। अपने वीडियो में उन्होंने कहा है कि उत्तराखंड में टनल बनाने के दौरान अचानक पानी निकल आना या फिर अप्रत्याशित रूप से कतरनी यानी घिसी हुई चट्टानों के मिलने की घटनाएं पहले भी होती रही हैं। इसके बावजूद टनल बनाने में लगातार की जा रही लापरवाहियां भी समाने आती रही हैं।

वे कहते हैं कि अब बहुत हो चुका है। सरकारों को चाहिए कि वे इस तरह की परियोजनाओं की डीपीआर की गहनता से जांच करें और इसके साथ ही जिम्मेदारियां तय की जाएं। वे यह भी सवाल उठाते हैं कि ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन जिसका ज्यादातर हिस्सा टनल से गुजरेगा, इस परियोजना के बन जाने के बाद कोई ऐसा हादसा हो गया तो फिर क्या स्थिति होगी, इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

(उत्तराखंड से वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट।)

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