वाराणसी। उत्तर प्रदेश में पत्रकारिता के सामने निष्पक्षता और निर्भीकता का मुद्दा गंभीर हो गया है। पत्रकारों के खिलाफ फर्जी मुकदमे दर्ज होने के कारण वे अपनी पेशेवर स्वतंत्रता को लेकर चिंतित हैं। कई रिपोर्ट्स के मुताबिक, सरकार और प्रशासन की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर दबाव डाला जा रहा है और उन्हें झूठे आरोपों में फंसाया जा रहा है। इस स्थिति ने पत्रकारिता की स्वतंत्रता को खतरे में डाल दिया है, क्योंकि पत्रकार अब बिना डर के समाज की सच्चाई को उजागर करने में कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो गया है कि मीडिया संगठन और स्वतंत्रता समर्थक संगठन पत्रकारों की सुरक्षा के लिए आवाज उठाएं, ताकि उन्हें अपने काम को बिना किसी भय के करने की स्वतंत्रता मिल
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी (बनारस) में साप्ताहिक समाचार पत्र अचूक संघर्ष के संपादक अमित कुमार मौर्या पर एक नौकरशाह के इशारे पर आनन-फानन में दर्ज कराए गए मुकदमे ने भ्रष्टाचार और नौकरशाही के गठजोड़ को उजागर करने के साथ-साथ मौजूदा भाजपा सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को भी तगड़ा झटका दिया है। यह घटना सवाल खड़े करती है कि क्या सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को नाकाम करने में उसके अपने नौकरशाह और नेता ही संलिप्त हैं?
दरअसल, उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर फर्जी मुकदमे दर्ज होने की घटनाएं चिंताजनक रूप से बढ़ रही हैं, जो स्वतंत्र पत्रकारिता की स्वतंत्रता को प्रभावित कर रही हैं। हाल के वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं, जिनमें पत्रकारों को उनके कार्यों के कारण झूठे आरोपों का सामना करना पड़ा है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2021 में अलीगढ़ में एक पत्रकार ने सरकारी अधिकारी के कथित भ्रष्टाचार की रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसके बाद उसके खिलाफ झूठे आरोपों में मुकदमा दर्ज किया गया, जिससे उसकी स्वतंत्रता पर सवाल उठे। इसी तरह, 2022 में लखीमपुर खीरी में एक पत्रकार ने किसानों के विरोध प्रदर्शन की रिपोर्टिंग की थी। इसके बाद उसे पुलिस ने गिरफ्तार किया और उसके खिलाफ झूठे आरोपों में मुकदमा दर्ज किया गया।
वरिष्ठ पत्रकार अंजन मित्र कहते हैं, “ऐसी घटनाएं पत्रकारों की सुरक्षा और स्वतंत्रता के लिए गंभीर चुनौती साबित हुई हैं। यह आवश्यक है कि मीडिया संगठन, मानवाधिकार समूह और नागरिक समाज के सदस्य मिलकर इस मुद्दे पर ध्यान दें और सुनिश्चित करें कि पत्रकारों को उनके कार्यों के लिए प्रताड़ित न किया जाए।” पत्रकारों पर दर्ज होने वाले फर्जी मुकदमों को लेकर भारतीय सिस्टम और कानून की स्थिति काफी जटिल है, लेकिन कई कानूनी और संवैधानिक प्रावधान पत्रकारों की सुरक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा करते हैं।
कहना गलत नहीं होगा कि हाल के दिनों में उत्तर प्रदेश में कलम चलाना जोखिमपूर्ण हो गया है। सोनभद्र, मिर्जापुर, जौनपुर से लेकर लखीमपुर खीरी जैसे जनपदों में पत्रकारों को सरकारी कोप का शिकार होना पड़ा है। उन्हें सिस्टम में व्याप्त विसंगतियों के खिलाफ कलम चलाने की सजा फर्जी मुकदमों के रूप में भुगतनी पड़ी है। सीतापुर जनपद में प्रमुख समाचार पत्र दैनिक जागरण के संवाददाता को इसलिए छलनी करते हुए मौत के घाट उतार दिया गया, क्योंकि उन्होंने सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ रखा था। उन्हें अपने प्राणों की आहुति देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ी। ये घटनाएं भले ही मामूली प्रतीत हों, लेकिन इसके मायने बड़े हैं और यह गंभीर चिंतन का विषय है कि क्या हालात ‘आपातकाल’ जैसे हो रहे हैं? क्या मीडिया की स्वतंत्रता और उसकी आवाज को दबाने की साजिश रची जा रही है?
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से प्रकाशित होने वाले प्रमुख हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र अचूक संघर्ष के संपादक अमित मौर्या पर पिछले दिनों दर्ज कराए गए मुकदमे ने एक नहीं, अनगिनत सवाल खड़े कर दिए हैं। उनके खिलाफ दी गई तहरीर की तह में जाने से पहले कुछ बिंदुओं पर गौर करना आवश्यक हो जाता है, लेकिन शायद ही किसी शासन-प्रशासन या पुलिस प्रशासन के अधिकारी ने इस पर ध्यान दिया हो। पूरा सिस्टम इन दिनों अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात करते हुए इसे पंगु बनाने पर तुला हुआ प्रतीत होता है।
दरअसल, वाराणसी के निवासी और अचूक संघर्ष के संपादक अमित मौर्या ने अपने समाचार पत्र के 14 से 20 मार्च के अंक में उत्तर प्रदेश के परिवहन विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की परत-दर-परत खोलते हुए एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसमें उन्होंने सूबे के परिवहन विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार और पूर्व में एसआईटी जांच में दोषी सिद्ध हुए परिवहन कर्मियों को बचाने का उल्लेख किया था। यह अंक छपते ही वे परिवहन विभाग के मुलाजिमों की आंखों की किरकिरी बन गए। इसके बाद न कोई जांच-पड़ताल हुई, न नोटिस दी गई, न कोई पत्र भेजा गया। सीधे सहायक संभागीय परिवहन अधिकारी (प्रशासन), वाराणसी, सर्वेश कुमार चतुर्वेदी की तहरीर पर थाना बड़ागांव, गोमती (कमिश्नरेट वाराणसी) में मुकदमा दर्ज करा दिया गया। इतना ही नहीं, तहरीर में अपनी मर्जी की धाराएं लिखकर यह भी निर्देश दिया गया कि इन धाराओं में मुकदमा दर्ज करें। इसे देखकर उनकी बौखलाहट को आसानी से समझा जा सकता है।
सवाल उठता है कि आखिर परिवहन विभाग के सहायक संभागीय परिवहन अधिकारी (प्रशासन), वाराणसी, सर्वेश कुमार चतुर्वेदी को ऐसी क्या जल्दबाजी थी? उन्हें कौन सा भय सता रहा था कि जिस समाचार से उन्हें आपत्ति थी, उसके लिए संपादक को नोटिस देने या जांच-पड़ताल करने के बजाय मुकदमा दर्ज कराने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई?

वहीं, परिवहन विभाग के ही एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “सहायक संभागीय परिवहन अधिकारी (प्रशासन), वाराणसी तो महज एक मोहरा हैं। इसके पीछे विभाग के वे लोग जिम्मेदार हैं, जिन्हें अपनी कुर्सी खतरे में दिखाई दे रही थी। उन्हीं के इशारे पर यह मुकदमा दर्ज कराया गया है, ताकि अमित मौर्या आगे कुछ लिखने का साहस न करें। चूंकि मौर्या ने परिवहन विभाग के उस दबे हुए जख्म (एसआईटी जांच) पर उंगली रख दी थी, जिसे विभाग के आला अधिकारी ठंडे बस्ते में डालने पर आमादा थे, तो भला वे उन्हें कैसे पसंद आते? इसलिए दबाव बनाने के लिए मुकदमा दर्ज कराया गया।” आश्चर्यजनक बात यह है कि पुलिस ने भी बिना किसी जांच-पड़ताल के तुरंत मुकदमा दर्ज कर लिया।
संपादक अमित कुमार मौर्या का कहना है, “मेरे खिलाफ दर्ज कराया गया मुकदमा पूरी तरह से बदले की भावना से प्रेरित है। रिपोर्ट में भ्रष्टाचार और एसआईटी जांच का साफ उल्लेख करते हुए तथ्यों के साथ खबर प्रकाशित की गई थी। इसके बावजूद मुझे न तो कोई नोटिस दी गई, न ही कोई जांच-पड़ताल हुई। विभाग की नाकामियों को छुपाने के लिए मुकदमे का धौंस दिखाकर कलम को कुचलने का कुचक्र रचा गया है।”
प्रमुख सचिव गृह/सूचना से मुलाकात के बाद भी मुकदमा
पिछले दिनों 22 मार्च 2025 को अचूक संघर्ष के संपादक अमित कुमार मौर्या ने पत्रकार साथियों के साथ लखनऊ में प्रमुख सचिव गृह/सूचना, उत्तर प्रदेश शासन से मुलाकात की और उन्हें एक पत्रक सौंपा। इसमें ‘सरकार की आलोचना या किसी विभाग, किसी संस्थान की कमियों को उजागर करने पर’ पत्रकारों पर होने वाले फर्जी मुकदमों के संबंध में चिंता जताई गई थी।

उन्होंने अवगत कराया, “जब भी कोई समाचार पत्र, चैनल या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किसी विभाग या संस्थान का सच उजागर किया जाता है, तो संबंधित अधिकारी या उस संस्थान का मालिक अपने को बचाने के लिए साजिश रचकर रंगदारी व जान से मारने की धमकी जैसे मामलों में पत्रकारों पर मुकदमा दर्ज कराता है। बिना साक्ष्य के आधार पर प्रकाशित या प्रसारित खबरों से नाराज होकर कानून का दुरुपयोग किया जाता है। ऐसे कई मामले देखे गए हैं। पुलिस भी धनबल या सत्ता के दबाव में ऐसा करती है। जिस तरह आम जनता किसी अधिकारी या कर्मचारी पर रिश्वत मांगने का आरोप लगाती है, ठीक उसी तरह जब कोई समाचार पत्र किसी अधिकारी, कर्मचारी या संस्थान की कमियों को उजागर करता है, तो वे लोग यह आरोप लगाते हैं कि यह सब पैसे के लिए किया जा रहा है। अपनी गलतियों को सुधारने के बजाय तुरंत यही इल्जाम लगाया जाता है। यदि कोई पैसा मांग रहा है, तो उसे रंगे हाथ पकड़वाकर जेल भेजवाया जाए-इससे किसी को आपत्ति नहीं है। लेकिन सिर्फ यह आरोप लगाने से कि रंगदारी मांगी जा रही है, और पुलिस का बिना उचित साक्ष्य के तहरीर के आधार पर रंगदारी का मुकदमा दर्ज कर देना, यह सीधे-सीधे प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है।”
प्रमुख सचिव गृह/सूचना को सौंपे गए ज्ञापन में माननीय उच्चतम न्यायालय के 4 अक्टूबर 2024 के एक आदेश का हवाला देते हुए कहा गया, “लोकतांत्रिक देशों में अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाता है। पत्रकारों के अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत संरक्षित हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी पत्रकार के खिलाफ सिर्फ इसलिए आपराधिक मामला नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि वह सरकार की आलोचना करता है।” ज्ञापन में इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करते हुए दिशा-निर्देश जारी करने की मांग की गई, ताकि पुलिस इस आदेश का पालन करे और कानून का दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ कार्रवाई सुनिश्चित हो।
इसी के साथ, 27 मार्च 2025 को अमित कुमार मौर्या ने पुलिस आयुक्त, वाराणसी को भी परिवहन विभाग में भ्रष्टाचार के खिलाफ समाचार पत्र में प्रकाशित खबर को लेकर फर्जी मुकदमा दर्ज कराए जाने के संदर्भ में पत्र सौंपा। उन्होंने बताया, “मेरे पास एसआईटी की जांच रिपोर्ट की एक प्रति है, जिसमें दोषी सिद्ध परिवहन कर्मचारियों के नाम हैं। जांच आख्या में दोष सिद्ध पाया गया है। इस रिपोर्ट में तत्कालीन पुलिस महानिदेशक डॉ. देवेंद्र सिंह चौहान, वर्तमान प्रमुख सचिव एल. वैकेटश्वर लू और वर्तमान प्रमुख सचिव गृह संजय प्रसाद के हस्ताक्षर भी हैं, जो अपने आप में एक प्रमाणित तथ्य है। यह सिद्ध करता है कि परिवहन मंत्री और प्रमुख सचिव दोषियों को बचा रहे हैं।”
मौर्या ने मुख्यमंत्री के ट्विटर अकाउंट का हवाला देते हुए कहा, “मुख्यमंत्री के आधिकारिक ट्विटर अकाउंट @cmofficeup से ट्वीट किया गया है कि भ्रष्टाचार के घुन को समाप्त करने की आवश्यकता है। अगर कोई अनावश्यक रूप से धनराशि मांगता है, तो उसकी शिकायत करें, हम जांच कर जवाबदेही तय करवाएंगे। लेकिन यहाँ तो प्रकरण को सामने लाने पर फर्जी मुकदमे दर्ज कराए जा रहे हैं।” पत्र के साथ ट्वीट की छायाप्रति संलग्न करते हुए उन्होंने एक अन्य ट्वीट का भी जिक्र किया, जिसमें लिखा था, “खनन, वन तथा भू-माफिया पर कठोर कार्रवाई करते हुए उनकी गतिविधियों पर रोक लगाई जाए और सभी जनपदों के आरटीओ कार्यालयों में दलालों पर पूर्ण रूप से लगाम लगाई जाए।”

पुलिस आयुक्त, वाराणसी को दिए गए पत्र में उन्होंने कहा, “इससे प्रतीत होता है कि मुख्यमंत्री भी जानते हैं कि परिवहन विभाग में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।”
गौरतलब है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले दिनों सड़क सुरक्षा की बैठक में कहा था, “किसी भी हाल में ओवरलोडिंग न होने पाए।” इसके बावजूद पूरे प्रदेश में धड़ल्ले से ओवरलोडिंग वाहनों का संचालन हो रहा है। ऐसे में जिम्मेदारी परिवहन मंत्री और प्रमुख सचिव की बनती है, लेकिन विभाग इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है। ओवरलोडिंग के संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित आदेश, केंद्रीय मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा 113 व 114, और रिट याचिका संख्या 136/2003 (परमजीत भसीन व अन्य बनाम यूनियन बैंक ऑफ इंडिया व अन्य) में 9 नवंबर 2005 को दिए गए आदेश के अनुसार अनुमन्य भार क्षमता से अधिक माल का परिवहन नहीं किया जा सकता। फिर भी इसकी खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने 4 अक्टूबर 2024 को एक मामले की सुनवाई में कहा, “लोकतांत्रिक देशों में अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाता है। पत्रकारों के अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत संरक्षित हैं। किसी पत्रकार के खिलाफ सिर्फ इसलिए आपराधिक मामला नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि वह सरकार की आलोचना करता है।” जब भी कोई पत्रकार किसी अधिकारी, सरकार, मंत्री या संस्थान के खिलाफ समाचार प्रकाशित करता है, तो संबंधित व्यक्ति खुन्नस निकालने के लिए फर्जी मुकदमा दर्ज कराने का प्रयास करता है, ताकि पत्रकार या संपादक डरकर उससे जुड़े मामलों पर खबर न चलाएँ। यह सीधे-सीधे प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है। इसके बावजूद पूरे प्रदेश में इसका हनन जोरों पर है।
खबरों के खुन्नस में आकर कराया गया मुकदमा
अचूक संघर्ष के संपादक अमित कुमार मौर्या पर मुकदमा दर्ज कराने में उनके अखबार की जिस खबर को आधार बनाया गया, उसमें सहायक संभागीय परिवहन अधिकारी (प्रशासन), वाराणसी द्वारा तहरीर में लंबे-चौड़े दलीलें दी गईं, लेकिन उस बात का कोई उल्लेख नहीं किया गया, जिसे आधार बनाकर मौर्या ने खबर प्रकाशित की थी। बताते चलें कि प्रदेश के परिवहन विभाग में चल रहे गड़बड़झाले को लेकर 2020 में एसटीएफ ने बड़ी कार्रवाई करते हुए छापा मारा था। इसमें गोरखपुर के बेलीपार थाने में दो आरटीओ के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया था। एसटीएफ ने ओवरलोडिंग मामले में एफआईआर दर्ज की थी, जिसमें परिवहन अधिकारियों और ढाबा संचालकों की मिलीभगत से अवैध वसूली का मामला सामने आया था।

एसटीएफ ने बेलीपार के मेहरौली स्थित मधुबन होटल पर दबिश देकर छह लोगों को गिरफ्तार किया था और मौके से एक डायरी व रजिस्टर भी बरामद किए थे। गोरखपुर एसटीएफ को ओवरलोडिंग के मामले में सूचना मिली थी, जिसके बाद कार्रवाई हुई। जांच में परिवहन अधिकारियों और ढाबा संचालकों की मिलीभगत से ओवरलोड वाहनों से अवैध वसूली का खुलासा हुआ था। तब एसटीएफ ने छह लोगों को गिरफ्तार किया था, जिसमें एक होटल मालिक भी शामिल था। चूंकि मामला गोरखपुर से जुड़ा था, इसलिए इसकी गंभीरता को देखते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एसआईटी को जांच सौंपने का निर्देश दिया था।

मुख्यमंत्री के आदेश पर गठित एसआईटी की जांच में पाया गया कि ओवरलोडिंग का यह मामला कई जिलों तक फैला हुआ था। जांच में प्रदेश के 22 जिलों के आरटीओ, पीटीओ, सिपाही और बिचौलियों के नाम सामने आए थे। लेकिन मुख्यमंत्री के निर्देश पर गठित एसआईटी जांच और दोषी सिद्ध परिवहन कर्मियों पर कार्रवाई के बजाय उन्हें बचाने की कोशिश की गई। इस संबंध में खबर से नाराज प्रमुख सचिव परिवहन और परिवहन मंत्री के इशारे पर मुकदमा तो दर्ज कर लिया गया, लेकिन एसआईटी जांच की जद में आए लोगों और मौर्या द्वारा दिए गए पत्रों पर कोई विचार नहीं किया गया। इससे साफ होता है कि परिवहन विभाग का यह कदम खबरों से नाराजगी के बाद उठाया गया है, ताकि इनके भ्रष्टाचार की जड़ों को कोई छूने की कोशिश न करे।
वाराणसी पुलिस की तेजी पर सवाल
27 मार्च को वाराणसी के बड़ागांव थाने में संपादक अमित कुमार मौर्या के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया। इसी दिन मौर्या ने पुलिस आयुक्त, वाराणसी को परिवहन विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार और फर्जी मुकदमे के संदर्भ में पत्र दिया, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। इससे वाराणसी पुलिस की तेजी पर सवाल उठ रहे हैं।
यहाँ यह बताना जरूरी है कि बीते जनवरी माह में बिहार के सासाराम की रहने वाली एक छात्रा स्नेहा की संदिग्ध परिस्थितियों में फाँसी के फंदे पर लटकती लाश भेलूपुर थाना क्षेत्र स्थित एक गर्ल्स हॉस्टल के कमरे की खिड़की से मिली थी। परिजनों ने छात्रा की रेप के बाद हत्या का आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री तक शिकायत की थी। उनके मुताबिक, पुलिस ने तहरीर लेने के दस दिन बाद मुकदमा दर्ज किया था। ऐसे में सवाल उठता है कि छात्रा स्नेहा के मामले में मुकदमा लिखने में दस दिन का समय लगाने वाली वाराणसी पुलिस ने मौर्या के मामले में इतनी तत्परता क्यों दिखाई?
बुलडोजर एक्शन और पत्रकारों पर यूपी सरकार/पुलिस का प्रहार
पिछले दिनों यूपी सरकार के बुलडोजर एक्शन पर सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख सामने आया है। कोर्ट ने इस पर कठोर फैसला सुनाते हुए स्पष्ट आदेश दिए हैं। लेकिन लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का न तो सरकार को भय है और न ही राज्य की पुलिस को। जिस तरह से दबाव रहित फर्जी मुकदमे दर्ज करने की होड़ लगी है, खासकर मीडिया से जुड़े लोगों पर, उससे साफ है कि सरकार और इसके कारिंदे मीडिया को ‘पिछलग्गू’ की भूमिका में देखना पसंद करते हैं। इन्हें आईना दिखाना भी जुर्म बनता जा रहा है।
हद तो यह है कि जो शिकायत कर रहा है और व्यवस्था की विसंगतियों को उजागर कर रहा है, उस पर सुधार की पहल करने के बजाय उल्टा मुकदमा दर्ज कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन
भारतीय संविधान पत्रकारिता की स्वतंत्रता की सुरक्षा करता है। अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, जो पत्रकारों पर भी लागू होता है। यह अधिकार सुनिश्चित करता है कि पत्रकार अपने पेशेवर कर्तव्यों का पालन बिना डर या दबाव के कर सकें। कृष्णा स्वामी मामले (2017) में उच्चतम न्यायालय ने पत्रकारों के खिलाफ झूठे और अपमानजनक मुकदमों पर गंभीर चिंता जताई थी। कोर्ट ने कहा था कि पत्रकारों के खिलाफ गलत मुकदमे दर्ज करना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है।
धारा 41ए सीआरपीसी के तहत पुलिस को यह सुनिश्चित करना होता है कि आरोपी के खिलाफ गंभीर आरोप हों और गिरफ्तारी से पहले समन भेजा जाए। यदि किसी पत्रकार के खिलाफ मुकदमा दायर किया जाता है, तो यह सुनिश्चित करना कि आरोप सही हैं, एक महत्वपूर्ण कदम है।
लोकतंत्र की कार्यप्रणाली को कमजोर करते झूठे मुकदमे
कई स्वतंत्रता समर्थक और मीडिया संगठन जैसे पत्रकार सुरक्षा कानून, राजीव गांधी पुरस्कार, और केंद्रीय गृह मंत्रालय समय-समय पर पत्रकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयास करते रहे हैं। मीडिया और पत्रकारिता से जुड़ी समस्याओं को लेकर वकील और मानवाधिकार संगठन अदालतों में गुहार लगाते हैं। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की सुरक्षा के लिए अदालतें आमतौर पर पत्रकारों के खिलाफ झूठे मुकदमों को चुनौती देती हैं। यदि किसी पत्रकार के खिलाफ मुकदमा दायर किया गया है, तो वह अपराधिक आरोपों को अदालत में चुनौती दे सकता है। उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि झूठे मुकदमे लोकतंत्र की कार्यप्रणाली को कमजोर करते हैं और पत्रकारों के खिलाफ दायर ऐसे मुकदमे उनकी स्वतंत्रता को दबाने के प्रयास हैं।
हालांकि, कुछ पत्रकारों पर फर्जी मुकदमे दबाव डालने के प्रयास के रूप में दर्ज किए जाते हैं, खासकर जब वे भ्रष्टाचार, गड़बड़ियों या सरकारी नीतियों की आलोचना करते हैं। इसलिए सिस्टम और कानून में यह जरूरी है कि हर पत्रकार को बिना भय के स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अवसर मिले। भारतीय संविधान और कानून पत्रकारों के अधिकारों की रक्षा करते हैं, फिर भी कुछ जगहों पर फर्जी मुकदमे दर्ज करने का चलन है। ऐसे मामलों में पत्रकारों को न्याय के लिए कानूनी प्रक्रियाओं का सहारा लेना पड़ता है और अदालतें इस दिशा में कार्य करती हैं। सरकार और न्यायपालिका दोनों को इस मुद्दे पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है, ताकि पत्रकारों को डर के बिना निष्पक्ष रिपोर्टिंग करने का अधिकार मिले।
(वाराणसी से संतोष देव गिरी की रिपोर्ट)
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