अफगानिस्तान: सामने आ गयी अमेरिका की असलियत

काबुल हवाई अड्डे से उड़ने को तैयार अमेरिकी वायु सेना के विमान में जगह पाने के लिए जान की बाजी लगा रहे अफगानों की तस्वीर बाकी दुनिया के लोग जल्द ही भूल जाएंगे। भीड़ के पीछे से सीने में अपने बच्चे को चिपकाए भागती आ रही औरत का चेहरा भी उनके जेहन से गायब हो जाएगा। उन लोगों की गिनती भी याद नहीं रहेगी जिन्होंने देश से निकल भागने की कोशिश में अपनी जान गंवा दी। लेकिन अफगानिस्तान इन क्षणों को कभी नहीं भूल पाएगा जिसमें अमेरिकियों के भागने के बाद तालिबान ने इस मुल्क को अपनी गिरफ्त में लिया। लोग बदहवासी से भले ही बाहर निकल आएं और शायद बंदूक के डर से तालिबान का अपनी जिंदगी पर काबिज होना स्वीकार कर लें, लेकिन कल तक खुले आसमान के नीचे दौड़ रही लड़कियां यह नहीं भूल पाएंगी कि उनके सपने तहखाने में बंद हो गए हैं। बच्चे जुल्म सह लेंगे, लेकिन उन्हें यह याद रहेगा कि उनकी जिंदगी भी आजाद हो सकती थी।

इस बात के लिए अंतरराष्ट्रीय मीडिया की तारीफ करनी पड़ेगी कि उसने तालिबान के सत्ता में आने देने और लोगों को एक जुल्मी सरकार के सामने बेबस छोड़ने के के लिए अमेरिका की तीखी आलोचना की है। अमेरिका ने इस मुल्क को फिर से आतंकवाद और कट्टरपंथ के जबड़े में धकेल दिया है। सच्चाई यह है कि अमेरिका और नाटो ने आतंकवाद के खात्मे का नाटक चलाते-चलाते इसे जिंदा रखने का इंतजाम कर दिया है। यही नहीं दुनिया की दो अन्य बड़ी शक्तियां, चीन और रूस भी अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से इस खेल में शामिल हैं। सवाल उठता है कि क्या अमेरिका तथा पश्चिम की सदारत में चलने वाली विश्व-अर्थव्यवस्था के लिए आतंकवाद और कट्टरपंथ को जिंदा रखने के अलावा कोई रास्ता नहीं है? क्या अफगानिस्तान की महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति का फायदा उठाने और धरती के भीतर दबी खनिज संपदा को लूटने के लिए दुनिया के अमीर देश वहां वैसा ही खूनी खेल खेलने की तैयारी कर रहे हैं जिसे उन्होंने तेल के भंडारों वाले देशों में खेला है?  

यह सभी जानते हैं कि अमेरिका ने पाकिस्तान के जरिए सोवियत रूस के खिलाफ लड़ने वाले उग्रपंथी तैयार किए थे जिससे तालिबान पैदा हुआ। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद उसने उसके खिलाफ कार्रवाई की। लेकिन पाकिस्तान उसकी मदद करता रहा। अमेरिका ने ही अल कायदा को पैदा किया और फिर उसका खात्मा किया। इसी तरह उसने इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) को पैदा किया और उसे खत्म किया। अब अल कायदा और आईएस की कमर तोड़ दी गई तो तालिबान को उसने फिर से जिंदा करने का इंतजाम किया है। जाहिर है कि दुनिया के सारे आतंकवादी संगठन जश्न मना रहे हैं और नई जिंदगी की ओर बढ़ रहा अफगानी समाज बेचैन और बदहवास है। उधर अमेरिका दुनिया को यह बताने में जुटा है कि तालिबान बदल गया है।

वह चाहता है कि लोग इस झूठ को स्वीकार कर लें। वह यह भी बता रहा है कि अफगानिस्तान को गृह युद्ध से बचाने के लिए इस कथित सुधरे तालिबान को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं है। पिछले 20 वर्षों से अफगानी जनता तालिबान के हमले झेलती रही है। उसने हजारों लोगों की कुर्बानी दी है। खौफ और दहशत के बीच भी वहां की औरतें और वहां के नौजवान एक आधुनिक समाज बनाने की कोशिश कर रहे थे। देश में विकास तथा मानवीय मदद के लिए जो संसाधन वहां आ रहे थे उसके सहारे वे आगे बढ़ना चाहते थे। अफगानी जनता की इस जद्दोजहद को अंतरराष्ट्रीय मीडिया इस तरह दिखा रहा है जैसे यह सिर्फ और सिर्फ अमेरिकी तथा पश्चिमी देशों की देन है। असल में,  यह अमेरिका की आधी-अधूरी पहल थी, जिसे अफगानी समाज ने तिनके की तरह पकड़ लिया था और आगे बढ़ने की कोशिश में लगे थे। महलिाएं इसमें सबसे आगे थीं।

लेकिन इन देशों ने वही किया जो उपनिवेशवाद का चरित्र है। वह कभी भी लोकतंत्र और आधुनिकता का पूरा रास्ता तय नहीं करने देता है। अंग्रेजों ने हमारे साथ वही किया और अमेरिका ने अफगानिस्तान में उसी को दोहराया है। अशरफ गनी के भाग जाने तथा तालिबान से तीन गुना बड़ी अफगानी फौज के धाराशायी होने की कहानी में अमेरिका की नीयत छिपी है। अमेरिका ने ऐेसी फौज तैयार की थी जो अमेरिकी वायु सेना के बिना एक कदम नहीं आगे बढ़ सकती थी। इसके निकलते ही यह फौज धाराशायी हो गई। अमेरिका ने वहां ऐसा शासन खड़ा किया जिसका मुखिया अपने लोगों को मंझधार में छोड़ कर भाग गया। उसने एक ऐसी पिट्ठू सरकार बनाए रखी जिस पर चुनावों में धांधली तथा भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। वह एक कमजोर लोकतंत्र चाहता था जिसका इस्तेमाल मनचाहे ढंग से किया जा सके। यही नहीं, अमेरिका ने तालिबान से समझौता किया और चुनी सरकार की रही-सही साख भी खत्म कर दी । इन समझौतों में अमेरिका ने तालिबान पर युद्धविराम या हथियार से सत्ता पर कब्जा नहीं करने की कोई शर्त नहीं रखी। उसने तालिबान को सत्ता पर कब्जा करने की अलिखित अनुमति दे दी।

लेकिन इस घटना ने एक बार फिर अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के चेहरे को समाने ला दिया है। राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी सच्चाई बयान कर दी है कि उनका देश वहां राष्ट्र-निर्माण के लिए नहीं था। यह एक बेशर्मी से भरा बयान है। आतंक से युद्ध करने के नाम पर 20 साल तक उनकी धरती का इस्तेमाल करने के बाद अमेरिका ने तालिबान को लाकर बिठा दिया है और अब वहां हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन को खामोश होकर देख रहा है।

पहले की तरह ही संयुक्त राष्ट्र संघ बेअसर साबित हुआ है और कुछ नसीहतों के अलावा उसके पास कहने और करने के लिए कुछ नहीं है क्योंकि अमेरिका, चीन और रूस जैसे शक्तिशाली देश तालिबान के खिलाफ कुछ करने के पक्ष में नहीं हैं। इन देशों के पास अफगानिस्तान के लिए अलग-अलग योजनाएं हैं।
लेकिन कट्टरपंथ और लोकतंत्र विरोधी तालिबान के खिलाफ वहीं के लोग आवाज उठा रहे हैं। कुछ लोग तो मुल्क छोड़ कर अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं और बाकी वहीं रह कर प्रतिरोध में खड़े हो गए हैं। पुरुषवादी दुनिया भले ही अफगानिस्तान की औरतों के प्रतिरोध को पहचानने के लिए तैयार नहीं हो, वहां की औरतें तालिबान के खिलाफ खड़ी हो गई हैं।

विरोध के पोस्टर लेकर खड़ी औरतों की तस्वीर से इसका अंदाजा होता है। देश का 102 वां आजादी दिवस मनाने के लिए 19 अगस्त को कई शहरों में भीड़ उमड़ आई और उसने जगह-जगह तालिबान का झंडा उतार कर तीन रंगों वाला झंडा लगा दिया। इसे लेकर कई जगह हिंसा भी हुई। यह झंडा 1919 में अफगानिस्तान को ब्रिटिश संरक्षण के मुक्त करने के बाद अपनाया गया था। तत्कालीन शासक अमानुल्ला खान ने इसके बाद 1923 में नया संविधान भी लागू किया था जिसमें औरतों को शिक्षा पाने का हक दिया गया था और अल्पसंख्यकों को पूरी कानूनी सुरक्षा दी गई थी। यह एक उदार संविधान था। ब्रिटिश साम्राज्य के उत्कर्ष के उस काल में अफगानिस्तान ने न केवल अपने को ब्रिटिश संरक्षण से मुक्त किया बल्कि उसकी मदद के बगैर अपने यहा संविधान का राज स्थापित किया और कानूनी सुधार किए। जनता खौफ के इस दौर में राष्ट्रीय गौरव का प्रदर्शन कर यह साबित किया है कि शांति स्थापना के नाम पर तालिबान को स्वीकार करा लेने की पश्चिमी देशों की कोशिश कामयाब नहीं होगी।
(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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