भाजपा ने अपना मजबूत केंद्र, उत्तर प्रदेश को लगभग खो दिया है। आश्चर्यजनक रूप से भाजपा की सीटें 64 से घटकर मात्र 33 रह गयी हैं। इन जीती हुई सीटों में भी ज्यादातर जगहों पर हार-जीत का मामूली अंतर है। बनारस से सटे हुए 13 सीटों में से, जीतीं हुई 10 सीटें भाजपा हार गई है, ओम प्रकाश राजभर अपने बेटे की सीट भी नहीं बचा पाए, अमेठी ने स्मृति ईरानी को भी विदा कर दिया इस बार, और अयोध्या तक को नहीं बचा पायी भाजपा। जो लल्लू सिंह संविधान बदलने के लिए 400 सीट मांग रहे थे, अयोध्या के मतदाताओं ने उन्हें ही संसद जाने से रोक दिया।
खुद प्रधानमंत्री मोदी किसी तरह अपनी सीट तो बचा ले गए हैं, पर साख बचा पाने में नाकाम साबित हुए हैं। लगभग 10-12 फीसदी मतदाताओं ने इस बार प्रधानमंत्री मोदी को वोट नहीं दिया, जिन्होंने पिछली बार उन्हें वोट दिया था, जीत का अंतर भी सम्मानजनक नहीं रह गया, पिछली बार 479000 वोटों के अंतर से जीतने वाले मोदी इस बार मात्र डेढ़ लाख वोटों से ही जीत पाए।
उत्तर प्रदेश में भाजपा के पराजय को आखिर कैसे देखा जाए। क्या इसे केवल अन्य राज्यों की तरह एक और राज्य में हार मान लिया जाए या ये मान लिया जाए कि जनता को कुछ ऊब हो रही थी, बस इसलिए सत्ता बदल दिया। ऐसा बिल्कुल नहीं है, भाजपा की ये हार सामान्य नहीं है, हिंदुत्व की राजनीति के लिए बड़ा झटका है। इस शिकस्त ने हिंदुत्व के गढ़ को दरका दिया है। 1992 के बाद से ही और 2014 के बाद तो और भी ज्यादा यह स्थापित होता गया है कि उत्तर प्रदेश, अखिल भारतीय स्तर पर फैलने की कोशिश कर रहे हिंदू राजनीति की आधार भूमि है। ऐसे में आधार भूमि में दरार पड़ने पड़ने का सीधा सा मतलब है, अखिल भारतीय स्तर पर विस्तार के अभियान को धक्का लगना। उत्तर प्रदेश में हार को ठीक-ठीक इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए, तभी शायद उत्तर प्रदेश के नतीजों की गहराई को ज्यादा बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।
ब्रांड मोदी का बेअसर होना
पहले चरण के बाद से ही ज़मीनी कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और आम जनता से बात करते हुए, लगने लगा था कि इस चुनाव में कोई लहर काम नहीं कर रही है, मोदी अब कोई केंद्रीय फैक्टर नहीं रह गए हैं, हालांकि यह चर्चा भी साथ-साथ हो रही थी कि भले ही, मोदी कोई आशा या उम्मीद इस बार नहीं जगा पा रहे हैं, लोग निराश हैं और अपनी नाखुशी भी जाहिर कर रहे हैं पर मोदी को लेकर कोई गुस्सा जैसा नहीं है अभी। पर बीच चुनाव में भाजपा के कई सांसद प्रत्याशियों ने 400 पार के नारे को संविधान बदलने से जोड़ दिया।
चूंकि पहले से ही विपक्ष अपनी सभाओं में संविधान और आरक्षण बचाने की बात बार-बार कर रहा था और इससे पहले भी पिछले दस सालों में, सरकार की नकारात्मक कार्रवाइयों के चलते, जनता के अलग-अलग हिस्सों में, संविधान और आरक्षण को लेकर चिंता मौजूद थी। ये सारे पहलू एक बिंदु पर पहुंच कर, एक ताकतवर नैरेटिव में बदल गए। और फिर यह नैरेटिव पूरे देश में फैल गया, पर उत्तर प्रदेश में बहुप्रचारित और स्थापित विचार में बदल गया कि प्रधानमंत्री मोदी, संविधान और आरक्षण बदलना व खत्म करना चाहते हैं, इसीलिए 400 पार का नारा दे रहे हैं।
पांचवें चरण तक आते-आते प्रधानमंत्री मोदी, उत्तर प्रदेश में डर और भय के प्रतीक बनते गए, छठे-सातवें चरण तक आते-आते उत्तर प्रदेश में और खासकर पूर्वांचल में जो सामाजिक न्याय के सवाल पर बेहद संवेदनशील इलाका माना जाता है, मोदी ज़ी खुद भाजपा की ताकत के बजाय संकट बनते गए। नतीजन भाजपा को अंतिम चरण की तेरह सीटों में से 10 सीटें गंवानी पड़ी, और खुद प्रधानमंत्री मोदी वाराणसी सीट पर जैसे-तैसे जीते पर साख गंवा बैठे।
हिंदुत्ववादी राजनीति की उजागर होती सीमा
1992 में राजनीतिक भीड़ द्वारा बाबरी मस्ज़िद गिराए जाने के बाद से ही उत्तर प्रदेश की पहचान बदलती गई है। और अब 2014 के बाद से तो, उत्तर प्रदेश की जमीन को राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्ववादी राजनीति के केंद्र के बतौर ही देखा जाने लगा था, संघ-भाजपा को इस दिशा में लगातार सफलता भी मिलती गई है। 2014 और फिर 2019 में, हिंदुत्व के हर तरह के प्रयोगों को उत्तर प्रदेश में भारी समर्थन मिलता रहा।
इसी सफलता और समर्थन को लगातार ज़मीन पर उतरते देखकर, न केवल भाजपा बल्कि तमाम विश्लेषक, नागरिक एक्टिविस्ट भी यह मानकर चल रहे थे कि 2024 के चुनाव में, भाजपा की ताक़त का केंद्र इस बार भी उत्तर प्रदेश ही बनने जा रहा है। माना तो यहां तक जा रहा था कि उत्तर भारत के किन्हीं राज्यों में आयी कमजोरियों को उत्तर प्रदेश के जरिए कवर कर लिया जाएगा, यानि इन राज्यों में अगर कुछ सीटें कम हो जाती है तो यूपी में 10 से 15 सीटें और बढ़ाई जा सकती है। पर इस समझ और भाजपा के भरोसे को उत्तर प्रदेश की जनता ने पलट दिया, भाजपा को उत्तर प्रदेश ने जोर का झटका दिया।
ऐसा क्यों हुआ जब आप इस पर सोचेंगे तो पाएंगे कि इस बार यहां की जनता ने संघ-भाजपा के कोर मुद्दे को पूरी तरह नकार दिया। हिंदुत्व की वर्चस्ववादी राजनीति को मानने से न केवल इंकार कर दिया, बल्कि जनता, इसे अपने लिए आसन्न ख़तरे के बतौर देखने-समझने लगी।
जिस राम मंदिर उद्घाटन को मोदी ज़ी का मास्टरस्ट्रोक कहा और माना जा रहा था, और जिसे अखिल भारतीय स्तर पर केंद्रीय नैरेटिव के बतौर देखा-समझा जा रहा था, बहुत जल्दी, अपने केंद्र में ही, यानि उत्तर प्रदेश में ही अप्रासंगिक हो गया। पहले चरण के चुनाव से ही राम मंदिर, देश के किसी भी हिस्से में कोई मुद्दा ही नहीं रह गया। राम मंदिर के साथ-साथ अन्य सभी विभाजनकारी मुद्दे चुनाव के विमर्श से बाहर हो गए। 370, सीएए, मथुरा-काशी जैसे मसलों पर भी चौतरफा चर्चा बंद हो गई।
हाल-फिलहाल तक उत्तर प्रदेश और पूरे देश को संचालित करने वाले मुद्दे, इस हद तक अप्रासंगिक हो जाएंगे, यह अनुमान चुनाव विश्लेषकों को तो नहीं ही था, खुद भाजपा का नेतृत्व भी इस बदलाव को देर से समझ पाया। इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी पूरे चुनाव में बिना ये जाने-समझे कि बदली हुई परिस्थिति में, इसका क्या असर हो रहा है, अपने सभी भाषणों में घुसपैठिया, मटन, मछली, मुजरा, मुसलमान जैसे बेहद आपत्तिजनक शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते रहे, इन सांप्रदायिक उद्बोधनों के चलते ही, भाजपा के लिए उल्टा परिणाम ये हुआ कि जनता और जनता के बीच एकता तो बढ़ती गई, यानि दलित-पिछड़े समाज और मुसलमानों के बीच की एकता, यादव और अन्य पिछड़ी जातियों के बीच की एकता और इसी तरह जाटव और नान जाटव जातियों के बीच की एकता तो बढ़ती ही गई। पर भाजपा और जनता के बीच का अलगाव, चरण दर चरण और विस्तार लेता गया, जिसका नतीजा आज हम सबके सामने है।
सामाजिक न्याय व वास्तविक विकास जैसे मुद्दों की ओर लौटता उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश और खासकर पूर्वांचल का इलाक़ा सामाजिक न्याय जैसे मसले पर बेहद संवेदनशील रहा है। जब भी ऐसा कोई दौर आता है, यानि संविधान और आरक्षण पर कोई संभावित ख़तरा दिखता है, यह इलाका बेहद तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करता रहा है। पांचवे चरण तक आते-आते व्यापक बहुजन आबादी को लगने लगा था कि भाजपा, संविधान और आरक्षण के लिए ख़तरा है और अंत तक आते-आते खुद प्रधानमंत्री मोदी, डर और भय के प्रतीक बन गए, बनारस व आस-पास के तेरह लोकसभा सीटों में से भाजपा 10 सीटें हार गई, नरेंद्र मोदी खुद अपने लोकसभा में भी किसी तरह जीत तो गए पर अपनी साख गंवा बैठे।
मोदी के उदय के साथ ही 2014 और फिर 2019 में 13-14 फीसदी मतदाताओं का नया समूह भाजपा के साथ जुड़ा था। ये नए मतदाता समूह अति पिछड़े और दलित समाज से आए थे, वे सभी, नरेंद्र मोदी को, आशा और उम्मीद की नज़र से देखने लगे थे, और जमकर उनके नाम पर वोट भी किया था। पर इस बार कम से कम उत्तर प्रदेश में बात बदल गई, मोदी न केवल आशा और उम्मीद नहीं रह गए, बल्कि संविधान, आरक्षण और रोजगार के लिए ख़तरा बन गए। नतीजन मोदी के चलते पूर्वांचल और अवध में तो भाजपा वो सीटें भी हार गई जो अन्यथा नहीं हारती।
उत्तर प्रदेश के हाल-फिलहाल के इतिहास को अगर ध्यान से देखें तो आप पाएंगे कि जब भी सामाजिक सच्चाइयों को एक सीमा से ज्यादा दबाने की कोशिश की गई है तो विस्फोट हुआ है, उत्तर प्रदेश में बहुतेरी दलित-पिछड़ी जातियों के विकास, सामयिक न्याय और हिस्सेदारी की लोकतांत्रिक आकांक्षा को जब उनकी घोषित राजनीतिक धाराएं पूरा नहीं कर पाती है, तो इन समूहों को और अन्य राजनीतिक धाराओं के पास भी जाना पड़ा है, पर इन समूहों की बुनियादी आकांक्षाओं को दबा कर, ज्यादा देर तक अपने पास नहीं रखा जा सकता है, इन सामाजिक समूहों ने अपनी प्रतिक्रिया से ये बार-बार साबित किया है।
1991-92 के दौर को याद करिए जब बाबरी मस्जिद को राजनीतिक भीड़ ने गिरा दिया था, कमंडल के अंदर मंडल को समाहित कर लेने की जबरदस्त कोशिश की जा रही थी, संघ-भाजपा के इस अभियान को सफलता भी मिलती जा रही थी, पर एक हद के बाद सामाजिक सच्चाई को दबा पाना असम्भव हो गया, फिर 1993 आया और विस्फोट हो गया। राजनीतिक आसमान में एक नारा गूंजा, “मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम”, और फिर लंबे समय के लिए हिंदुत्व की राजनीति, हाशिए पर चली गई, 2024 में इतिहास को फिर से दोहराया गया है, उत्तर प्रदेश की बहुजन जनता ने संघ-भाजपा को करारा जबाब दिया, हिंदुत्व के पीछे छिपे सवर्णवादी चेहरे को सामने ला दिया है, और अन्य सभी राजनीतिक धाराओं को सीधा संदेश दिया कि उत्तर प्रदेश में, राजनीति के केंद्र में किन मुद्दों को होना चाहिए, और उसकी दिशा, क्या होनी चाहिए।
(मनीष शर्मा राजनीतिक कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक हैं )
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