‘चलती हुई लाशों तुम्हें आज़ादी मुबारक’

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(पाकिस्तान आज 14 अगस्त को अपनी आज़ादी की सालगिरह मना रहा है। एक मुल्क के तौर पर 1947 से आज तक उसका सफ़र बार-बार तख़्तापलट, तानाशाही, फ़ौज़ और अमेरिका की कठपुतली सरकारों, युद्धों और आतंकवाद में डूबते-उतरते हुए ही यहाँ तक पहुंचा है। फ़िलहाल, अवाम कोरोना और दूसरे मुश्किल हालात से जूझ रहा है। पाकिस्तान के मशहूर युवा शायर अहमद फ़रहाद ने आज़ादी के इस जश्न पर तंज़ कसा है। अहमद फ़रहाद की पैदाइश ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ की है और ग़ज़ल में उसी का ज़िक्र है।)

उतरे हुए चेहरों तुम्हें आज़ादी मुबारक
उजड़े हुए लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक

सहमी हुई गलियों कोई मेला कोई नारा
जकड़े हुए शहरों तुम्हें आज़ादी मुबारक

ज़ंजीर की छन-छन पे कोई रक़्सो तमाशा
नारों के ग़ुलामों तुम्हें आज़ादी मुबारक

अब ख़ुश हो? कि हर दिल में हैं नफ़रत के अलाव
ऐ दीन फ़रोशों (धर्म बेचने वालों) तुम्हें आज़ादी मुबारक

बहती हुई आँखों ज़रा इज़हारे मसर्रत(प्रसन्नता)
रिसते हुए ज़ख़्मों तुम्हें आज़ादी मुबारक

उखड़ी हुई नींदों मेरी छाती से लगो आज
झुलसे हुए ख़्वाबों तुम्हें आज़ादी मुबारक

टूटे हुए ख़्वाबों को खिलोने ही समझ लो
रोते हुए बच्चों तुम्हें आज़ादी मुबारक

फैले हुए हाथों इसी मंज़िल की तलब थी?
सिमटी हुई बाहों तुम्हें आज़ादी मुबारक

हर ज़ुल्म पे ख़ामोशी की तसबीह में लग जाओ
चलती हुई लाशों तुम्हें आज़ादी मुबारक

मसलक के, ज़बानों के, इलाक़ों के असीरों (क़ैदियों)
बिखरे हुए लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक

ऐ काश लिपट के उन्हें हम भी कभी कहते
कश्मीर के लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक

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