राहुल गांधी के जातीय एजेंडे को झटका तो जेजेपी और पीडीपी की राजनीति हो गई जमींदोज

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आंकड़ों में अभी जाने की जरूरत नहीं है। वह इसलिए कि आंकड़े तो कम या ज्यादा हो सकते हैं। आंकड़े की अहमियत सरकार बनाने के लिए होती है, जो इस बार फिर से हरियाणा में बीजेपी को मिल गई है।

बीजेपी इस बार फिर से सरकार बनाने जा रही है। यह बीजेपी की शानदार हैट्रिक मानी जा रही है। भूतो न भविष्यति ! हरियाणा के परिणाम से कई सवाल खड़े हो गए हैं।

पहला सवाल तो उन मीडिया खिलाड़ियों और एग्जिट पोल का धंधा करने वाली एजेंसियों पर खड़ा हुआ है, जो पिछले तीन दिनों तक देश के भीतर हड़कंप मचा कर जनता को तबाह कर रही थीं और जनता को भ्रमित भी।

इन एग्जिट पोल करने वाली एजेंसियों और गोदी मीडिया घरानों को जनता कितना माफ़ करती है, यह तो देखने की बात हो सकती है लेकिन एक बात साफ हो गयी है कि हरियाणा से जुड़े देश के सारे एग्जिट पोल झूठे साबित हो गए हैं। एग्जिट पोल का अब इकबाल कुछ भी नहीं रहा।

उनका कोई मोल नहीं रहा। सब जान गए कि यह सब एक धंधा है, जो देश को बरगलाने के लिए किया जाता है। लोकसभा चुनाव के वक्त भी सभी  एग्जिट पोल ध्वस्त हो गए थे। सभी पोल में बीजेपी को 350 से चार सौ सीटें जीतने की बात कही गई थीं।

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बीजेपी को मात्र 240 सीटें मिलीं। और इस बार हरियाणा चुनाव में कांग्रेस के लिए 50 से 65 सीटें मिलने की बात कही जा रही थी, लेकिन कांग्रेस 40 का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। बीजेपी सरकार बनाने जा रही है। बीजेपी की यह बड़ी जीत है। 

लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि जब हरियाणा में कांग्रेस और राहुल गांधी की आंधी चल रही थी, तब बीजेपी कैसे बन गयी? जब लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को पांच सीटें मिल गई थीं, तब इस चुनाव में बीजेपी की बड़ी जीत कैसे हो गई?

क्या हरियाणा की जनता ने कांग्रेस के साथ धोखा किया है? क्या कांग्रेस झूठे सपने पालने लगी थी या क्या बीजेपी ने अंतिम समय में कोई बड़ा खेला किया है? क्या चुनाव आयोग ने कोई बड़ा खेला किया है जैसा कि पिछले कई राज्यों के चुनाव में देखने को मिलते रहे हैं।

हालांकि इस सभी सवालों के जवाब अभी नहीं मिल सकते। इसकी जांच होगी। कांग्रेस इस पर मंथन करेगी और सबसे बड़ी बात कि कांग्रेस के भीतर हुड्डा बनाम शैलजा के बीच की लड़ाई पर भी बहुत सी जानकारी सामने आएगी। लेकिन अब जो हुआ सो हुआ। बड़ा सवाल तो राहुल गांधी और कांग्रेस की राजनीति पर भी उठेगी। 

हरियाणा में जिस तरह के परिणाम आये हैं उससे साफ़ लग रहा है कि राहुल गांधी ने जिस तरह से जातीय राजनीति और जातीय जनगणना को आगे बढ़ाने का काम किया है और हर राज्यों के चुनाव में इस एजेंडे को वे बढ़ा रहे हैं, उसे हरियाणा की जनता ने झटका दे दिया है।

हालांकि यह भी अभी जांच का विषय है। आंकड़ों में देखा जाए तो हरियाणा के चुनाव में कांग्रेस को पिछले चुनाव से ज्यादा सीटें मिलती दिख रही हैं और साथ ही वोट बैंक में भी इजाफा होता दिख रहा है लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि क्या हरियाणा के किसान, जवान और नौजवान के साथ ही जातीय आरक्षण चाहने वाली जनता को राहुल गांधी का एजेंडा सही नहीं लगा?

क्या हरियाणा के दलित और पिछड़ों को जातीय जनगणना की मांग पच नहीं पाई? जिस तरह से कांग्रेस को हरियाणा में हार का सामना करना पड़ा है, उससे साफ़ है कि वहां की जनता ने ऊपर से कांग्रेस का साथ दिया और कांग्रेस के एजेंडे को स्वीकार भी किया लेकिन भीतर ही भीतर वह बीजेपी के मोह को छोड़ नहीं पाए।

कांग्रेस के लिए यह गंभीरता से चिंतन करने की बात हो सकती है। इस भ्रम से भी कांग्रेस को आगे निकलने की ज़रूरत हो सकती है। 

हरियाणा चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी हर मंच पर जातीय गणना की बात कर रहे थे। उनकी सभा में काफी भीड़ भी रही थी। देखने वाले और भी चकित हो रहे थे। राजनीतिक जानकार भी कह रहे थे कि कांग्रेस के पक्ष में सुनामी चल रही है।

राहुल गांधी को यह भी लग रहा था कि जाति जनगणना की बात को बार-बार दोहराने से बड़ी संख्या में दलित मतदाताओं को लुभाने में पार्टी को मदद मिलेगी। लेकिन, जिस तरह के परिणाम आए, वह राहुल गांधी की जाति की राजनीति के लिए एक बड़ा झटका है।

पार्टी के घोषणापत्र और भाषणों में जाति जनगणना को प्राथमिकता के साथ और बार-बार उठाया गया, इसके जरिए राहुल गांधी सहित कांग्रेस नेताओं का लक्ष्य दलितों को प्रदेश में कांग्रेस की तरफ आकर्षित करना था। हरियाणा में यह आबादी का लगभग 21 प्रतिशत है।

ऐसे में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) वोटों पर पकड़ बनाने के लिए जाति सर्वेक्षण कराने का वादा किया था।

हरियाणा में दलितों को कई उप-जातियों में वर्गीकृत किया गया है। जाटव सबसे बड़े समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो कुल अनुसूचित जाति आबादी का लगभग 50 प्रतिशत है। दूसरा वाल्मीकि समुदाय है, जिसमें अनुसूचित जाति की आबादी लगभग 25-30 प्रतिशत है, जबकि तीसरा धानुक, मुख्य रूप से शहरी निवासी, 10 प्रतिशत से कुछ अधिक है।

इन समुदायों के मतदाताओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए कांग्रेस ने राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से सभी एससी आरक्षित सीटों पर 17 दलित उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था।

इसमें जाटव उम्मीदवारों के लिए 12 टिकट, वाल्मीकि के लिए दो और अन्य समूहों के लिए तीन टिकट शामिल हैं, जो इन जातियों के मतदाता आधार को मजबूत करने की पार्टी की रणनीति का संकेत देते हैं।

हालांकि यह सब अभी प्रारम्भिक बाते हैं। आगे इस खेल की जब परतें खुलेंगी तो बहुत सी बातें सामने आ सकती हैं लेकिन हरियाणा के चुनावी परिणाम ने कांग्रेस के साथ ही देश को भी कई सन्देश दिए हैं। अब इस सन्देश को देखते हुए झारखंड और महाराष्ट्र के चुनाव की पटकथा लिखी जा सकती है। 

अब इसी हरियाणा में एक पार्टी का खात्मा ही इस चुनाव में हो गया। जननायक जनता पार्टी ने पिछले चुनाव में बड़े अंदाज में प्रदेश की राजनीति को प्रभावित किया था। दस सीटें तब जेजेपी को मिल गई थीं और बीजेपी के साथ मिलकर उसने सरकार बना ली थी।

जेजेपी के नेता दुष्यंत चौटाला प्रदेश की राजनीति और सरकार की धुरी  बन गए थे लेकिन पांच साल बीतते-बीतते बीजेपी से उसके रिश्ते ख़त्म हुए और इस बार वह रसातल में चली गई। जेजेपी को कुछ भी हाथ नहीं लगा।

एक सीट भी वह जीत नहीं पाई। हरियाणा की राजनीति में अब जेजेपी भविष्य में क्या कुछ करेगी यह तो कोई नहीं जानता लेकिन एक बात की सम्भावना ज्यादा बढ़ गई है कि उसके अधिकतर नेता अब बीजेपी के साथ चले जायेंगे या फिर जो लोकल टाइप के नेता होंगे वे कांग्रेस या फिर आप की पार्टी से जुड़ जायेंगे।

हरियाणा की राजनीति में इस बार केवल जेजेपी को ही झटका नहीं लगा है। इनेलो के साथ ही कई और भी पार्टियों को झटका लगा है, जो हरियाणा की कुछ जातियों को अपने साथ रखकर राजनीति करते फिर रहे थे।

उस बसपा को भी बड़ा झटका लगा है जो कहने के लिए देश की एक राष्ट्रीय पार्टी रही है लेकिन हरियाणा में दलित वोटर होते हुए भी कुछ कर पाने में असमर्थ हो गई है। 

दुष्यंत चौटाला ने जींद जिले की उचाना कलां सीट से चुनाव लड़ा था। लेकिन उनकी हार हो गई। जेजेपी ने हरियाणा के विधानसभा चुनाव में इस बार सांसद चंद्रशेखर आजाद की आसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। जेजेपी के प्रदर्शन को देखकर ये कहा जा सकता है कि जेजेपी को किसानों का विरोध भारी पड़ा।

बता दें जेजेपी के नेताओं को किसान आंदोलन के दौरान बीजेपी के साथ खड़े रहने की वजह से जबरदस्त विरोध झेलना पड़ा था। लोकसभा चुनाव के दौरान भी जेजेपी को जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा था।

उधर जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के परिणाम से तस्वीर करीब साफ हो गई है। यहां पर नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनने जा रही है। रुझानों में एनसी-कांग्रेस गठबंधन ने बहुमत के आंकड़े को पार कर लिया है।

विधानसभा चुनाव में भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है। वहीं, महबूबा मुफ्ती की जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को बड़ा झटका लगा है।

पीडीपी 90 विधानसभा सीटों में से सिर्फ तीन पर ही जीत हासिल कर सकी है। महबूबा मुफ्ती ने इस बार विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा था। खास बात यह है कि इस चुनाव में पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती अपनी खानदानी सीट भी हार गईं।

पार्टी ने इल्तिजा को श्रीगुफवारा-बिजबेहरा सीट से चुनाव मैदान में उतारा था। उन्हें नेशनल कॉन्फ्रेंस के बशीर अहमद के हाथों हार का सामना करना पड़ा। महबूबा की बेटी दूसरे नंबर पर रहीं। उन्हें 23,529 मत प्राप्त हुए।

जम्मू-कश्मीर के चुनावी नतीजे भी इसलिए चकित करने वाले हैं कि श्रीगुफवारा-बिजबेहरा मुफ्ती परिवार की पारिवारिक सीट मानी जाती है। करीबी 25 साल से मुफ्ती परिवार का इस सीट पर दबदबा रहा है। यहां से मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती भी चुनाव में जीत का परचम लहरा चुकी हैं।

1996 में महबूबा ने बिजबेहरा से ही अपनी चुनावी शुरुआत की थी। लेकिन, पहली बार इल्तिजा मुफ्ती चुनावी मैदान में यहां से उतरी और उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

अब सवाल उठने लगे हैं कि क्या जम्मू-कश्मीर में पीडीपी का दौर खत्म हो गया है? पहले महबूबा मुफ्ती और अब बेटी इल्तिजा की हार इस बात की ओर साफ संकेत कर रही है। बता दें कि यह इलाका अनंतनाग-राजौरी लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जहां से पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी चीफ महबूबा मुफ्ती ने 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ा था।

लेकिन, उन्हें भी लोकसभा चुनाव में हार मिली थी। महबूबा मुफ्ती को नेशनल कॉन्फ्रेंस के मियां अल्ताफ ने 5 लाख से अधिक मतों के अंतर से करारी शिकस्त दी थी।

कश्मीर की घाटी से महबूबा की राजनीति की विदाई कोई मामूली बात नहीं है। लेकिन यह सब वक्त का तकाजा भी है। हरियाणा और जम्मू-कश्मीर की राजनीति में जिस तरह के बदलाव होते दिख रहे हैं, उससे साफ़ है कि आगामी चुनावों में कई राज्यों में छोटे दलों के सामने बड़ा संकट पैदा हो सकता है।

हाल में झारखंड और महाराष्ट्र में विधान सभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों में बहुत सी पार्टियां शिरकत करने वाली हैं।

ऐसे में जिस तरह के खेल हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में देखने को मिल रहे हैं, उससे साफ़ है कि कई पार्टियां ख़त्म हो सकती हैं। बिहार चुनाव में भी दर्जन भर पार्टियां शिरकत करती हैं और सभी पार्टियां कुछ जातियों को आगे बढ़ाने की बात करती हैं।

ऐसे में अगर हरियाणा और जम्मू कश्मीर की राजनीति को ही कसौटी पर रखें तो बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र की बहुत सी पार्टियां अब समाप्त हो जाएंगी। उनका खेल ख़त्म हो जाएगा और यह सब बीजेपी के खेल का ही हिस्सा है। बीजेपी कहती भी रही है कि उनके सामने कोई भी पार्टी टिक नहीं सकती। 

सबसे ज्यादा खतरा चिराग की पार्टी को है। जीतन राम मांझी की पार्टी के साथ ही उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ख़त्म हो सकती है और जदयू का भी खात्मा हो सकता है। इसके साथ ही दक्षिण की भी कई पार्टियां ख़त्म हो सकती हैं और लगे हाथ बीजेपी अबकी बार टीडीपी को ख़त्म करने को तैयार है।

इसकी शुरुआत भी हो चुकी है। आंध्रा में पवन कल्याण की पार्टी के सहारे बीजेपी टीडीपी पर निशाना साध रही है। पवन कल्याण को हिंदुत्व का बड़ा नेता बनता देखा जा सकता है। एक समय के बाद पवन कल्याण और बीजेपी मिलकर चंद्रबाबू नायडू को सबक सिखाने की स्थिति में पहुंच सकते हैं।

इसके बाद बीजेपी पवन कल्याण की पार्टी को भी खा जा सकती है।

(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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