महाराष्ट्र, झारखंड में हो रहे चुनाव व यूपी में हो रहे उप-चुनाव पर अगर सरसरी निगाह डाली जाए तो क्या ऐसा कहीं से लग रहा है कि जनता ने जो दिशा लोकसभा चुनावों में ली थी, उसमें कुछ बदलाव हो रहा है। या ये कि लोकसभा सभा चुनावों के दौरान, संघ-भाजपा की जो छवि बनी थी, उसमें कोई गुणात्मक परिवर्तन दिख रहा है क्या। क्या संघ-भाजपा के पाले में बेचैनी बढ़ रही है,किस रास्ते पर बढ़ा जाए, क्या इसको लेकर भारी द्वंद बना हुआ है?
भाजपा को एक तरफ, ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे बेहद नकारात्मक नारे का सहारा लेना पड़ रहा है, फिर ठीक उसी समय संविधान और सामाजिक न्याय पर भी बात क्यों करनी पड़ रही है। इन सब प्रश्नों पर विस्तार से बात करने की जरूरत है।
यूपी उपचुनाव की दिशा क्या है
उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान जनता ने भाजपा के आत्मविश्वास को तोड़ दिया था। उसे जोर का झटका मिला था, भाजपा अयोध्या की सीट भी हार गयी। राम मंदिर के भव्य उद्घाटन के बाद यह माना जाने लगा था कि पूरे देश में और खासकर उत्तर भारत में और उससे भी ज्यादा उत्तर प्रदेश में भाजपा की ताकत में गुणात्मक इज़ाफ़ा होने जा रहा है।
इसी अति आत्मविश्वास के चलते ही 400 पार का नारा दिया जाने लगा, और यह प्रचारित किया जाने लगा कि 400 पार इस लिए चाहिए ताकि संविधान को बदला जा सके। फिर क्या, ठीक चुनाव के बीच में ही पूरा विमर्श बदल गया, ताकतवर हिंदुत्व को सामाजिक न्याय और संविधान के लिए ख़तरे के बतौर देखा जाने लगा।
और फिर धीरे-धीरे चुनाव, धार्मिक अस्मिता से सामाजिक अस्मिता की तरफ तेजी से शिफ्ट होता गया। बाद में बार-बार सफाई दिए जाने के बावजूद,बाज़ी भाजपा के हाथ से निकलती गई,और अंततः जनता ने उत्तर प्रदेश जो कि हिंदुत्व का गढ़ था,उसे ही ढहा दिया।
आज़ अगर यूपी उपचुनाव के नजरिए से देखा जाए तो जनता के मूड में लोकसभा चुनाव से इतर कोई बड़ा बदलाव होता हुआ नही दिख रहा है,यानि भाजपा,संविधान बदलने वाली,सामाजिक न्याय को खत्म करने वाली व आरक्षण विरोधी छवि से मुक्त नही हो पायी है,या इसके लिए कोई बड़ा प्रयास करती हुई नही दिख रही है। सो यूपी उपचुनाव में भी लोकसभा चुनाव के दौर का नैरेटिव ही लगातार बना हुआ है, जिसके चलते भाजपा का संकट भी लगातार बरकरार है।
उपचुनाव में भाजपा को पुराने संकटों के साथ-साथ, नई-नई समस्याओं का भी सामना करना पड़ रहा है। जैसे अयोध्या में मिल्कीपुर का उपचुनाव,तकनीकी कारणों से, या कहिए कि कोर्ट में होने के चलते, चुनाव आयोग ने वहां चुनाव न कराने का फैसला लिया है। पर जनता में यह समझ बनती जा रही है कि भाजपा अयोध्या के किसी सीट पर चुनाव लड़ने की हिम्मत नही जुटा पा रही है, यानि उपचुनाव में उतरने से पहले ही अपना आत्मविश्वास खो चुकी है।और विपक्ष द्वारा इस मुद्दे को बार-बार हवा देने के चलते यह मुद्दा वास्तविक बन गया है।
बहराइच में भी जो दंगा कराने की कोशिश की गई, उसमें प्रशासन और शासन के शामिल होने की बात बहुप्रचारित हो गई है।
जिस तरह से दंगा कराने की कोशिश में शामिल दो नौजवान ने हिडेन कैमरे के सामने आकर कहा कि ज़िले के आला पुलिस अधिकारी ने हमें,यानि संगठित भीड़ को 2 घंटे की छूट दे दी थी,पर अपने लोग साथ नही दिए वर्ना पूरा बहराइच जल गया होता।
एक बेहद आश्चर्यजनक बात यह है कि भाजपा के विधायक खुद सामने आते है, और भाजपा नेताओं पर ही दंगा भड़काने का आरोप लगाते है। मोदी काल में ऐसा कही नही हुआ जब कोई भाजपा विधायक,अपनी सरकार को ही संकट में डाल दे,यह सोचने वाली बात है कि किसी विधायक को इतनी हिम्मत कहां से मिल रही है। और अभी तक इन विधायक महोदय पर,पार्टी की ओर से कोई कार्रवाई क्यों नही की गई।
बहराइच में कुल मिलाकर जो कुछ हुआ, वे सभी बातें भाजपा के ही खिलाफ चली गई। एक तो यह कि दंगा कराने, हिंदू-मुस्लिम टकराव कराने की कोशिश असल में राज्य प्रायोजित था और दूसरा यह कि भाजपा विधायक का खुद सामने आना, यह बतलाता है कि उत्तर प्रदेश भाजपा को अंदर से भी कोई नुक़सान पहुंचाना चाहता है।
यह समझना भी जरूरी है कि लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की जनता ने जो जनादेश दिया, उससे ब्रांड मोदी की छवि को धक्का लगा था। पर ब्रांड योगी को उतना झटका नही लगा। पर अब जबकि यूपी में उपचुनाव है, अगर भाजपा पिछड़ जाती है तो ब्रांड योगी की छवि भी संकट में पड़ेगी, जिसका असर 2027 के विधानसभा चुनाव पर भी पड़ेगा।
महाराष्ट्र की जनता क्या चाहती है ?
सबसे पहले ये देखना होगा कि महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव के दौर में मुख्य नैरेटिव क्या बना था,फिर देखना होगा कि क्या उसमें कुछ बदलाव आया है। महाराष्ट्र में बीते लोकसभा चुनाव के दौरान विदर्भ, मराठवाड़ा, पश्चिम महाराष्ट्र और मुंबई में, इंडिया गठबंधन यानि महा विकास अघाड़ी बेहद ताकतवर होकर उभरा था।
विदर्भ में कांग्रेस ने अपने गढ़ को दुबारा हासिल कर लिया, मुंबई में शिवसेना (उद्धव ठाकरे) को भारी समर्थन मिला, उसी तरह पश्चिमी महाराष्ट्र में, शरद पवार की एनसीपी फिर से ताकतवर होकर उभरी। हमे यह ध्यान से देखना चाहिए कि महाराष्ट्र में उस समय कौन से मुद्दे उभरे थे जिन्होंने भाजपा नेतृत्व वाले महायुति गठबंधन को संकट में डाल दिया था।
तो सबसे पहला व प्रमुख पहलू ये था कि इस बार ब्रांड मोदी मुख्य फैक्टर नही रह गया, यानि नरेंद्र मोदी अब जीत की गारंटी नही रह गए। जिसके चलते स्थानीय व इलाकाई मुद्दे, केंद्र में आ गए, कही किसान संकट तो कही मराठवाड़ा आरक्षण तो कहीं गुजरात बनाम महाराष्ट्र जैसे सवाल बहस में आ गए, जिसके चलते भाजपा संकट में पड़ गई।
अब जब कि विधानसभा चुनाव अपने अंतिम चरण में है तो हम देखते हैं कि मोदी ब्रांड की चमक अभी भी फीकी पड़ी हुई है, यानि ब्रांड मोदी अभी भी महाराष्ट्र में जीत की गारंटी नही हैं।
ठीक उसी तरह संविधान, सामाजिक न्याय, व आरक्षण बचाने के नारे के साथ,जिस तरह से लोकसभा चुनाव में, महा विकास आघाड़ी ने मराठा-दलित-मुस्लिम का गठजोड़ खड़ा किया था, उसको तोड़ पाने में अभी भी, महायुति गठबंधन कामयाब होता हुआ नही दिख रहा है।
और यह भी कि महाराष्ट्र में पूंजी व सत्ता के बल पर जिस तरह से सत्ता का अपहरण व तोड़फोड़ किया गया, उसके चलते शरद पवार व उद्धव ठाकरे के प्रति जनता में जबरदस्त सहानुभूति पनपता गया, जिसका असर लोकसभा चुनावों के परिणामों में दिखा,इसका असर अभी भी बना हुआ है, कितना बना हुआ है ये तो परिणाम बताएंगे पर इतना तय है कि विधानसभा चुनाव के परिणामों में इस मुद्दे का योगदान भी जरूर दिखेगा।
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव का दुहराव तो नही होने जा रहा है,पर वो सारे नैरेटिव जो लोकसभा चुनावों के केंद्र थे, विधानसभा चुनाव में भी भिन्न-भिन्न रूपों में असरकारी बने रहेंगे जिसके चलते महायुति गठबंधन का संकट जारी रहेगा।
झारखंड चुनाव-दांव पर आदिवासी अस्मिता
पिछले दो चुनावों से लगातार झारखंड के आदिवासी इलाकों में, भाजपा के लिए संकट हल होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है।पिछले चुनाव में भी भाजपा, आदिवासी बहुल 30 सीटों में से 28 सीटें हार गई।पिछले दो चुनावों से भाजपा के लिए लगभग इसी तरह की स्थिति बनी हुई है।
शुरुआती दिनों, यानि रधुबर दास के समय में आदिवासियों से जुड़े लोकप्रिय मांग,सरना कोड को मान लेने का वायदा भाजपा द्वारा कर लिया गया था।एक प्रस्ताव केंद्र को भेजा भी गया था,पर जल्दी ही संघ के दबाव में भाजपा इस मुद्दे से भी पीछे हट गई।
आज़ झारखंड में आदिवासियों और भाजपा के बीच कोई सकारात्मक रिश्ता नहीं रह गया है। आदिवासियों में यह समझ बनती जा रही है कि भाजपा उनके धर्म,संस्कृति और जमीन के लिए ख़तरा है। भाजपा इस समझ को बदलने के बजाय नकारात्मक आधार पर, भय पैदा कर उन्हें अपने साथ लाना चाहती है।
भाजपा ने आदिवासी बहुल इलाके में सभी मुस्लिम जनसंख्या को ही बांग्लादेशी घुसपैठिया क़रार दे दिया है, और उन्ही को आदिवासी औरतों और उनकी जमीनों के लिए ख़तरा बताकर बेहद घृणित अभियान छेड़ दिया दिया है। प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह, नड्डा से लेकर अपने घृणा अभियानों के लिए पहचाने जाने वाले हेमंता विश्व सरमा तक को इसी एक सूत्रीय कैंपेन में जोड़ दिया गया है।
इस अभियान में कई सारी एजेंसियों का भी इस्तेमाल किया जा रहा है, जैसे झूठे और जहरीले भाषणों पर चुनाव आयोग ने आपराधिक चुप्पी साध ली है। ईडी इस अवास्तविक मसले को वास्तविक बना देने के लिए पहले चरण के चुनाव के ठीक पहले 17 जगहों छापे मार चुकी है, और नोएडा मीडिया इस झूठ को 24 घंटे जनता के सामने परोस रहा है।
पर पिछले कई चुनावों की ही तर्ज पर इस बार भी घुसपैठिया मुद्दा, भाजपा के संकट को हल करता हुआ नही दिख रहा है।पहले किसी भी समय के मुकाबले झारखंडी व आदिवासी अस्मिता का सवाल,भाजपा के नकारात्मक कोशिशों के चलते, और बड़ा बनता जा रहा है।
बिना किसी अपराध के हेमन्त सोरेन को जेल भेज देने की भाजपाई रणनीति खुद भाजपा के संकट को कई गुना बढ़ा देने वाली साबित हुई है। एक तरफ तो हेमंत सोरेन के कद में भारी इजाफा हुआ है और दूसरी तरफ उनके जेल में रहने के चलते, कल्पना सोरेन की धमाकेदार इंट्री हुई है और देखते ही देखते वह आदिवासी अस्मिता की बड़ी नेता के रूप में तब्दील हो गई हैं।
इस तरह के कई नए-नए बदलावों का सामना न कर पाने के चलते भी, भाजपा और ज्यादा नफरती राजनीति की ओर बढ़ती जा रही है,जो उसके संकट को और बढ़ाने वाली साबित हो रही है।
वैचारिक घर वापसी के रास्ते पर भाजपा
लोकसभा चुनावों के बाद लिंचिंग, मस्जिदों, मदरसों पर हमले में भारी वृद्धि देखी गई थी,अगर उन हमलों की ठीक-ठीक पड़ताल की जाए तो उतने हमले पिछले 5 सालों में भी नही हुए होंगे। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक चकित थे कि भाजपा कमजोर हुई है फिर भी उसकी आक्रमकता पहले ही जैसी या उससे भी ज्यादा हो गई है।
यूपी उपचुनाव, झारखंड और महाराष्ट्र चुनाव को नफरती अभियानों से पाट दिया गया है। पर यह समझना बेहद जरूरी है कि यह आक्रमकता उसकी ताकत का नही कमजोरी का प्रदर्शन है। भाजपा जब ताकतवर रहती है तो अपने नफरती मुद्दों को थोड़ा धीमी रफ़्तार में रखती है, ताकि समाज के उन हिस्सों को भी संबोधित किया जा सके जो उसके साथ अन्य वजहों से जुड़े हुए रहते हैं।
अब जब कि लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा कमजोर हुई है, और सामाजिक अस्मिता का सामना करना उसके लिए मुश्किल होता जा रहा है। मजबूरन उसे घर वापसी करनी पड़ रही है, कोर नफरती रास्ते पर बढ़ना पड़ रहा है, घृणा अभियानों को प्राथमिकता देनी पड़ रही है, “बंटेंगे तो कटेंगे” या “घुसपैठिया भगाओ” या वोट जेहाद, लैंड जेहाद जैसे मुद्दे उछालने पड़ रहे हैं।
इस चुनाव में कठोर हिंदुत्व कितना काम आएगा, यह चुनाव परिणामों के आने के बाद पता चलेगा, पर यह तो अभी से साफ़ है कि भाजपा बेहद संक्रमणकालीन दौर से गुज़र रही है और कमजोर आत्मविश्वास के साथ इन चुनावों का सामना कर रही है।
(मनीष शर्मा पोलिटिकल एक्टिविस्ट और कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक हैं)
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