अमेरिका जैसे ढहते साम्राज्य से क्या मिलेगा भारत को? 

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 इस वर्ष नौ मई को नाजी जर्मनी पर सोवियत संघ की विजय की 80वीं सालगिरह है। ये वो दिन है, जिस रोज सोवियत संघ ने अंततः दुनिया को फासीवाद/ नाजीवाद के खतरे से मुक्ति दिलाई थी। सोवियत संघ के लगभग पौने तीन करोड़ लोगों ने उस विकराल संकट का साया टालने के अभियान में अपना बलिदान दिया। जोसेफ स्टालिन के अप्रतिम नेतृत्व में सोवियत संघ ने अंततः उस खतरे को परास्त किया और दुनिया ने राहत की सांस ली थी।

रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने उस विजय की 80वीं वर्षगांठ को इस मौके के महत्त्व एवं गरिमा के अनुरूप मनाने की योजना बनाई है। इस मौके पर अनेक राष्ट्र नेताओं को आमंत्रित किया गया है। इसी क्रम में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को व्यक्तिगत आमंत्रण भेजा था। मगर अब इस खबर की पुष्टि हो गई है कि मोदी ने आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया है। उनकी जगह अब विक्टरी डे समारोह में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भारत की नुमाइंदगी करेंगे। 

यह समझना मुश्किल है कि मोदी ने मास्को ना जाने का फैसला क्यों किया। इस सिलसिले में कई अनुमान लगाए गए हैं। उनके मुताबिक, 

  • इस समय जब अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के आक्रामक रुख से दुनिया के  समीकरण अस्थिर अवस्था में हैं, मोदी रूस के साथ ज्यादा निकटता का संकेत अमेरिका को नहीं देना चाहते।
  • चूंकि मास्को पहुंच रहे मुख्य अतिथियों में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी होंगे, तो इस मौके पर मोदी ने उनसे मुलाकात की संभावना को टालना चाहा होगा। 
  • मास्को में इकट्ठा हो रहे ज्यादातर नेता वो हैं, जिनके बारे में समझा जाता है कि वे अमेरिका केंद्रित विश्व व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। इसकी जगह वे नई बहु-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था बनाने के प्रयास में जुटे हुए हैं। मोदी संभवतः इस समूह से एक खास दूरी बना कर चलना चाहते हैं। 

तो वजह जो हो, मोदी एक बड़े अवसर पर अनुपस्थित रहेंगे। 

पुतिन ने उस मौके पर मास्को आ रहे ब्रिक्स समूह के नेताओं के साथ एक अनौपचारिक बैठक का भी आयोजन किया है। पुतिन, शी जिनपिंग और ब्राजील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वा के अलावा ईरान के राष्ट्रपति के भी उस बैठक में भाग लेने की संभावना है। समझा जाता है कि अगले 6-7 जुलाई को ब्राजील में होने वाले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से पहले इस बैठक में ब्रिक्स के सामने मौजूद प्रमुख चुनौतियों और मसलों पर चर्चा होगी। अब साफ है कि मोदी इस बैठक से भी गैर-हाजिर रहेंगे। 

इसके पहले शिखर सम्मेलन के एजेंडे को अंतिम रूप देने के लिए 28 और 29 अप्रैल को ब्राजील में ब्रिक्स विदेश मंत्रियों की बैठक हुई। इस बात ने वहां ध्यान खींचा कि भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर इस मौके पर गैर-हाजिर रहे। उनकी जगह पर भारत के ब्रिक्स शेरपा (प्रभारी अधिकारी) ने वहां भागीदारी की। बाद में ये सूचना भी आई कि भारत ने वहां उस प्रस्ताव को रोक दिया, जिसमें अमेरिका के व्यापार युद्ध का एकजुट हो कर मुकाबला करने का आह्वान किया गया था। 

चूंकि ब्रिक्स की परंपरा आम सहमति से प्रस्ताव पारित करने की है, इसलिए वहां एक भी देश की असहमति प्रस्ताव रोकने के लिए काफी होती है। सोशल मीडिया की चर्चाओं पर गौर करें, तो साफ होता है कि भारत के इस रुख से ब्रिक्स देशों में गहरा असंतोष है। इसे इस बात का संकेत माना गया है कि भारत अमेरिका से अपनी निकटता को प्राथमिकता देते हुए वैकल्पिक विश्व व्यवस्था के निर्माण की कोशिशों में रुकावट डाल रहा है। 

अब मोदी मास्को नहीं जा रहे हैं। जुलाई में वे ब्राजील भी जाएंगे या नहीं, इसको लेकर भी संशय है। इस साल के उत्तरार्द्ध में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की शिखर बैठक चीन में होने वाली है। उसमें मोदी के जाने की संभावना और भी कम है। इस संगठन में भारत अपनी भूमिका घटाने की कोशिश कम से कम दो साल से कर रहा है। 2023 में भारत एससीओ का मेजबान था। तब अचानक भारत सरकार ने शिखर बैठक को ऑनलाइन माध्यम से आयोजित करने का फैसला कर लिया था। और पिछले वर्ष इसकी शिखर बैठक में शामिल होने के लिए विदेश मंत्री एस जयशंकर को कजाखस्तान भेजा गया था। 

जाहिर है, मास्को ना जाने के मोदी के फैसले को इस पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। इसे संकेत माना जा रहा है कि एससीओ में अपने प्रतिनिधित्व का स्तर घटाने के बाद भारत अब ब्रिक्स से भी दूरी बनाने की कोशिश कर रहा है। यहां तक कि ब्रिक्स समूह से जुड़े नेताओं के अनौपचारिक मिलन से भी अपने को अलग रखने की नीति तय की गई है। 

ब्रिक्स और एससीओ समान परिघटना का हिस्सा हैं। यह परिघटना नई उभरती विश्व व्यवस्था का है। इस विश्व व्यवस्था की जमीन इसलिए तैयार हुई है, क्योंकि विशेष रूप से अमेरिका और आम तौर पर सामूहिक पश्चिम का दुनिया पर प्रभुत्व टूट रहा है।

पश्चिम की आर्थिक शक्ति में गिरावट ऐसा तथ्य है, जिसे अब वहां भी स्वीकार कर लिया गया है। तकनीकी क्षमता में भी पश्चिम अब अप्रतिम नहीं रहा। इसलिए देर-सबेर उसकी सैन्य क्षमता में गिरावट भी तयशुदा मान कर चला जा रहा है। इसी परिघटना की ताजा अभिव्यक्ति व्यापार युद्ध के रूप में हुई है। इसका दूसरा संकेत डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद पश्चिमी खेमे में आया बिखराव है।  

हैरतअंगेज है कि इस मौके पर भारत का राजनीतिक नेतृत्व उदीयमान व्यवस्था से दूरी बनाते हुए ढहते साम्राज्य से संबंध को प्राथमिकता दे रहा है। उस साम्राज्य को तरजीह दी जा रही है, जो खुद अपनी पुरानी हैसियत को वापस पाने के लिए अपने बनाए तमाम कायदे तोड़ कर दुनिया में अस्थिरता पैदा कर रहा है। 

जबकि अपनी ऐतिहासिक उपस्थिति के कारण भारत के पास अवसर है कि वह नई विश्व व्यवस्था के निर्माताओं की अग्रणी कतार में रहे। ऐसी दृष्टि-शून्यता पर सिर्फ अफसोस किया जा सकता है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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