हाथरस मुख्यालय से कोई 35 किलोमीटर दूर सहपऊ कस्बे के करीब के गांव रसगवां में एक 11 साल के मासूम बच्चे की हत्या खुद उसके स्कूल के प्रबंधक और प्रबंधक के पिता, प्रिंसिपल और शिक्षकों द्वारा किये जाने की खबर ने अनेक अभिभावकों को ही नहीं हिलाया, जिन तक वह खबर पहुंची उन्हें भी स्तब्ध कर दिया।
बच्चे की लाश को ठिकाने लगाने के लिए इधर-उधर घूम रहे आरोपी पकड़े जा चुके हैं और बताते हैं कि उन्होंने कबूल भी कर लिया है, उस मासूम कृतार्थ कुशवाहा की ‘बलि’ चढ़ाई गयी थी, ताकि ‘स्कूल तरक्की कर सके, प्रसिद्धि पा सके’ मतलब यह कि उसकी कमाई बढ़ सके।
स्कूल मालिक के पिता तांत्रिक हैं, उन्हीं की देख-रेख में यह काण्ड किया गया और इसमें प्रिंसिपल, अध्यापक, हॉस्टल वार्डन कुल मिलाकर 5 लोग शामिल हुए।
सवाल यह है कि पांचवीं तक की अनुमति वाले स्कूल में उससे आगे की कक्षाएं कैसे चल रही हैं, बिना अनुमति के ही हॉस्टल भी कैसे चलाया जा रहा है। स्कूल के पास ही तंत्र क्रिया का केंद्र बना हुआ है, जिसमें लगातार लोग आते-जाते रहते हैं।
मतलब यह कि कुछ भी छुपा ढंका नहीं है, सब कुछ खुल्लम-खुल्ला है। सवाल और भी हैं, उम्मीद है पुलिस उनके जवाब खोज लेगी लेकिन मुख्य बात वह है, जो कृतार्थ के पिता ने कही है कि “मैंने अपने इकलौते बेटे को खो दिया है, मुझे इंसाफ चाहिए, सरकार ऐसे कदम उठाये कि किसी और पिता को अपना बेटा न गंवाना पड़े।“
कृतार्थ की बलि के मुजरिम पकड़े जा चुके हैं, मगर जो पकड़े गए हैं सिर्फ अकेले वे ही अपराधी हैं। यह मान लेने से उसके पिता की फ़िक्र और वारदात की तह तक नहीं पहुंचा जा सकता। जब तक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह के शरीके जुर्मों की शिनाख्त नहीं कर ली जाती तब तक ऐसे जघन्य कांडों की पुनरावृत्ति नहीं रोकी जा सकती।
सवाल कई हैं, जैसे प्राइमरी की कक्षा में पढ़ने वाले एक मासूम बच्चे को एक निजी आवासीय स्कूल में जाने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा? एक छोटे से कस्बे के और भी छोटे से गांव के बाहर डोरीलाल पब्लिक स्कूल कैसे खड़ा हो गया?
इसका जवाब उसी गांव के एक नागरिक के कहे में मिलता है। उनका कहना है कि “मैं पेशे से ड्राईवर हूं और चाहता हूं कि मेरे बच्चे अच्छे से पढ़ें, सरकारी स्कूल में माहौल उतना अच्छा नहीं होता, इसलिए ऐसे स्कूल देखने पड़ते हैं।“
सवाल ये है कि सरकारी स्कूल कहां गए? जिन सरकारी स्कूल और कॉलेजों ने ही आजादी के बाद की अब तक की पीढ़ियां तैयार करने में अहम और निर्णायक भूमिका निबाही उनके माहौल को क्या हो गया?
15 अगस्त, 1947 के दिन आजाद हुए भारत में कुल 8431 प्राइमरी स्कूल थे। आजादी के बाद जनवादी आंदोलनों की जद्दोजहद के चलते सरकारें मजबूर हुईं, शिक्षा के प्रसार की नीतियां बनी और देश भर स्कूल और उच्चतर शिक्षा के केन्द्रों का जाल फैला।
एक समय आया जब प्राइमरी और सेकेंडरी मिलाकर स्कूलों की संख्या करीब 20 लाख तक पहुंच गयी। इनमें 90 फीसद से अधिक सरकारी या सरकार पोषित नियंत्रित स्कूल्स थे।
उदारीकरण के दौर के बाद शिक्षा के काम से सरकार ने हाथ खींचने का जो सिलसिला शुरू किया, वह मोदी राज में इसका पूरा भट्ठा बिठाने तक जा पहुंचा। मोदी की नई शिक्षा नीति ने तो जैसे इसकी कपाल क्रिया ही कर दी।
एक सर्वेक्षण के अनुसार 2014-15 में देश भर में 11,07,118 सरकारी स्कूल और 83,402 सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल थे। 2021-22 में इन स्कूलों की संख्या घटकर क्रमशः 10,22,386 और 82,480 रह गई।
वहीं, 2014-15 में निजी स्कूलों की संख्या 2,88,164 थी, जो 2021-22 में बढ़कर 3,35,844 हो गई, यानी 47,68 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। इनमें भी उत्तर प्रदेश सबसे आगे रहा, जिन तीन सालों के आंकड़े उपलब्ध हैं, उनके अनुसार प्राइमरी स्कूलों की संख्या सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में कम हुई है।
2017-18 में राज्य में सरकारी प्राइमरी स्कूलों की संख्या 1.14 लाख थी। जो 2020-21 में घटकर 87 हजार 895 रह गई। इसके बाद के आंकड़े जारी करना बंद कर दिए गए हैं।
अगर ज्यादा नहीं इसी अनुपात में कमी हुई मानें तो अब देश के इस सबसे बड़े प्रदेश में महज 60 हजार से भी कम सरकारी स्कूल बचे हैं।
शिक्षा विनाश की इस नीति का मोदी के नीति आयोग द्वारा व्यवस्थाओं और व्यय को समायोजित करने की नीति का विस्तार करते हुए देश के हजारों स्कूलों को बंद या उनका विलय कर दिया।
भविष्य में भी कई और स्कूलों को बंद करने की योजना है। कई सरकारी स्कूलों का भी निजीकरण किया जा रहा है या निजी प्रबंधन को सौंपा जा रहा है।
नई शिक्षा नीति के नाम पर हुए इस हमले का दूसरा आयाम जो स्कूल चल भी रहे हैं उनकी दुर्दशा का है। संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार शिक्षकों के राज्य स्तर पर स्वीकृत 62.71 लाख पदों में से 10 लाख पद खाली पड़े हैं।
लगभग एक चौथाई स्कूल्स ऐसे हैं, जिनमें न्यूनतम 6 शिक्षकों की बाध्यता की जो शर्त है, वह पूरी नहीं होती। इनमें से अनेक तो ऐसे हैं जो एक ही शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। शिक्षकों की यह कमी मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में हैं या फिर उन इलाकों में है जहां सामाजिक रूप से वंचित आदिवासी और दलितों का बाहुल्य है।
भविष्य में इस स्थिति के सुधरने की कितनी उम्मीद है यह शिक्षा पर घटते खर्च से समझा जा सकता है। स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग के लिए बजट आवंटन 2013-14 के 3.16% से लगभग आधा होकर 2024-25 में सिर्फ 1.53% रह गया है।
जबकि अब तक की मान्यता के हिसाब से शिक्षा पर कम से कम 6% का खर्चा होना चाहिए। नए स्कूली शिक्षकों की भर्ती के नाम पर भी किस तरह का मजाक हो रहा है यह यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल में कई-कई वर्षों से लटकी परीक्षाओं, परिणामों और न हो रही नियुक्तियों के खिलाफ युवाओं के आन्दोलनों में देखा जा सकता है।
कुल मिलाकर यह कि इस नई शिक्षा नीति ने सरकारी शिक्षा प्रणाली में इतनी तेजी के साथ जो सिकुड़न पैदा की उससे खाली हुई जगहों को भरने डोरीलाल पब्लिक स्कूल जैसे कत्लगाह खड़े होते रहे और कृतार्थ जैसे बच्चों के अभिभावक अपने बच्चों को इनमें दाखिल करने के लिए विवश किये जाते रहे।
सिर्फ वामपंथ शासित केरल ही ऐसा अपवाद था, जहां की सरकार ने सरकारी स्कूलों को इतना बेहतर और सुविधा संपन्न बनाया कि वे निजी स्कूलों के सामने न सिर्फ डट कर खड़े हुए हैं बल्कि उनमें पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं को भी अपनी तरफ आकर्षित करने में कामयाब हो रहे हैं।
इसलिए शरीकेजुर्म वह कथित नई शिक्षा नीति है, जिसने कुकुरमुत्तों की तरह उग आयी इन दुकानों को पांव पसारने का मौक़ा दिया और तालीम जैसी चीज को मुनाफे का जरिया बना दिया।
अब जब मुनाफ़ा ही एकमात्र लक्ष्य होगा तो वही होगा जो हाथरस के रसगवां के स्कूल में हुआ। यह मुनाफे को ही एकमात्र लक्ष्य मानने वाली इस जघन्य प्रणाली का एकमेव विशिष्ट स्वभाव है।
कोई 157 साल पहले लिखी अपनी किताब पूंजी में कार्ल मार्क्स ने एक मजदूर टीजे डनिंग की चिट्ठी को उद्धरित करते हुए इसे तभी उजागर कर दिया था।
इस मजदूर नेता ने लिखा था कि “जैसे-जैसे मुनाफ़ा बढ़ता जाता है पूंजी की हवस और ताक़त बढ़ती जाती है।
10% के लिए यह कहीं भी चली जाती है; 20% मुनाफ़ा हो तो इसके आह्लाद का ठिकाना नहीं रहता; 50% के लिए यह कोई भी दुस्साहस कर सकती है; 100% मुनाफ़े के लिए मानवता के सारे नियम क़ायदे कुचल डालने को तैयार हो जाती है और 300% मुनाफ़े के लिए तो ये कोई भी अपराध ऐसा नहीं जिसे करने को तैयार ना हो जाए, कोई भी जोख़िम उठाने से नहीं चूकती भले इसके मालिक को फांसी ही क्यों ना हो जाए।
अगर भूकम्प और भुखमरी से मुनाफ़ा बढ़ता हो तो ये खुशी से उन्हें आने देगी। तस्करी और गुलामों का व्यापार इसकी मिसालें हैं।”
इस तरह से कृतार्थ की हत्या के हालात पैदा करने वाली वह नई शिक्षा नीति भी है, जिसे मोदी निजाम ने इस देश पर थोपा है।
यह नई शिक्षा नीति ही है जिसने आधुनिक भारत की अवधारणा को पूरी तरह उलट-पुलट कर रख दिया। कथित हजारों वर्ष पुरानी ‘महान’ भारतीय शिक्षा प्रणाली की बहाली के नाम पर अंधविश्वास, कर्मकांड और जहालत को मान्यता और प्रतिष्ठा प्रदान की है।
फलित ज्योतिष से लेकर अच्छी बहू बनने, पोंगापंथ और जादू टोने तक के विषयों को पाठ्यक्रमों में शामिल करने से हुई शुरुआत और इन ‘ढोंग-धतूरों’ को प्रोत्साहन देने, महिमा मंडित करने में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री से होते हुए सत्ता शीर्ष पर बैठे हुक्मरानों की इस तरह की फूहड़ अवैज्ञानिकताओं को बढ़ावा देने के कामों में भागीदारी उस माहौल को बनाती है, जो डोरीलाल पब्लिक स्कूल की कमाई बढ़ाने की हवस में कृतार्थ की बलि चढ़ाने तक के हादसों तक जा पहुंचता है। यह काला जादू पहली बार नहीं हुआ था।
कृतार्थ की बलि के बाद उजागर हुआ है कि यही लोग इससे पहले भी दो अन्य छात्रों के साथ भी इसी तरह, गला दबाकर मारने की कोशिश कर चुके थे। अगर उन्हीं प्रकरणों को गंभीरता से ले लिया जाता तो इस हादसे को टाला जा सकता था। मगर होता कैसे? भगत जी अभयदानी परिधान भगवा धारण करते हैं और जैसा कि इन दिनों प्रचलन है, बड़े-बड़े नेताओं के साथ उनकी तस्वीरें टंगी हैं।
सत्ता पार्टी के नेताओं के स्वागत में उनकी ओर से पलक पांवड़े बिछाने वाले बैनर लगे हुए है। किसकी मजाल जो उनकी तन्त्र विद्या और काले जादू पर पूछ-ताछ करे।
योगी राज में क़ानून व्यवस्था की यह स्थिति चूक नहीं है। इस तरह के लोगों के प्रति अपनाए जाने वाले उदार रुख का नतीजा है। यह भाजपा राज का न्यू-नार्मल है और ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि कुछ दिनों बाद यह खबर मिले कि इस हत्यारे तांत्रिक और उसके गिरोह को सच्चा हिन्दू बताने वाली एक गैंग सामने आ गयी है।
सभ्य समाज वही होता है जो जानता है कि सिर्फ परिणामों से लड़ने से काम नहीं चलता उनके कारणों की शिनाख्त करके उनसे भी निजात पानी होती है।
छात्र और शिक्षकों के समावेश वाली देश की शिक्षा बिरादरी इसी तरह की कोशिशों में लगी है। इन्हें और अधिक व्यापक करने और सबके लिए मुफ्त और आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ उस वैज्ञानिक रुझान को बहाल करने की मुहिम तेज करने की जरूरत है जिसका प्रावधान भारत का संविधान इस देश के नागरिकों के कर्तव्यों में दर्ज कर चुका है।
(बादल सरोज लोकजतन के संपादक हैं।)
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