अडानी मुद्दे पर संसद स्थगन से किसे हो रहा फायदा, विपक्ष गलती तो नहीं कर रहा?

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आज लगातार चौथे दिन भी संसद हंगामे की भेंट चढ़ गया। सरकार चाहती है कि वह अपना कामकाज सामान्य तरीके से  शुरू करे, नए-नए विधयेक लाये जबकि विपक्ष चाहता है कि संसद में अडानी विवाद, मणिपुर और संभल सांप्रदायिक हिंसा पर चर्चा हो, जिसके बारे में उसे आशंका है कि सत्तापक्ष कभी सुलझाना नहीं चाहता। लेकिन हर बार अडानी शब्द सुनते ही संसद के दोनों सदनों के सभापति संसद की कार्यवाही को अगले दिन तक के लिए स्थगित कर चल देते हैं।

यह पैटर्न नया है। ऐसा लगता है कि सरकार अडानी के मुद्दे पर सदन में एक शब्द भी सुनने को लिए तैयार नहीं है। जबकि हकीकत तो यह है कि अडानी का नाम देश ही नहीं दुनियाभर में बदनाम हो रहा है, और साथ ही भारत में निवेश को लेकर भी छवि दिनोंदिन खराब हो रही है। यहां तक कि भारतीय सार्वजनिक बैंक और निजी बैंकों ने भी अडानी समूह को लेकर आगे से सतर्कता का रुख अपनाने की बात कह दी है।

बता दें कि कल भारतीय स्टेट बैंक, बैंक ऑफ़ इंडिया, यूनियन बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, केनरा बैंक, आईडीबीआई बैंक और आईबीएल बैंक की ओर से इस बात के संकेत मिले हैं। हालाँकि स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया, जिसका करीब 33,800 करोड़ रुपया अडानी समूह में लगा हुआ है, की ओर से कहा गया है कि अडानी समूह के जो प्रोजेक्ट्स पूरा होने के करीब हैं, उनमें बैंक धन मुहैया कराता रहेगा। हालाँकि आगे से बैंक इस बात का ध्यान रखेगा कि समूह सभी नियम और शर्तों को पूरा कर रहा है या नहीं। 

यह एक बड़ी खबर है। याद कीजिये 2014 में क्या हुआ था? उस वक्त अडानी समूह ऑस्ट्रेलया में कोल-ब्लॉक की खरीदारी के लिए पैसे जुटा रही थी, और पीएम मोदी के साथ गौतम अडानी विदेशों की यात्रा कर पैसे जुटाने का इंतजाम कर रहे थे। अंत में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ने अडानी समूह के लिए 1 अरब डॉलर (8,000 करोड़ रुपये) ऋण की मंजूरी देकर इस सौदे को अंजाम पर पहुँचाने में बड़ी मदद की थी। तब एसबीआई की चीफ अरुंधती भट्टाचार्य का नाम सुर्ख़ियों में उछला था, जो कि रिटायरमेंट के बाद अब देश के सबसे बड़े कॉर्पोरेट घराने रिलायंस समूह में नॉन-एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर का पद संभाल रही हैं।

इस घटना को इसलिए याद करना जरुरी है क्योंकि भारतीय बैंकिंग और अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा मौजूदा समय में बिग कॉर्पोरेट और एनबीएफसी द्वारा बांटे गये अंधाधुंध कर्ज की चपेट में है। ये दोनों तत्व इतने भारी-भरकम हो चुके हैं कि एक भी खिसका तो भारतीय अर्थव्यवस्था की चूलें हिल सकती हैं। पिछले एक दशक से सरकार की नीति को आगे बढ़ाने का ही यह नतीजा है कि अब आरबीआई सहित सभी प्रमुख बैंकों के लिए ये कदम उठाना जरुरी हो गया है। 

लेकिन यहां पर मुख्य प्रश्न अभी यही बना हुआ है कि क्या विपक्ष के द्वारा अडानी विवाद पर चर्चा कहाँ तक उचित है, और भारत सरकार इस चर्चा से लगातार क्यों भाग रही है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि विपक्ष के द्वारा अडानी नाम का उच्चारण करते ही जगदीप धनकड़ पूरे दिन के लिए राज्यसभा को लगातार स्थगित कैसे और क्यों कर रहे हैं? सरकार और विपक्ष की इस रस्साकशी पर भारत की आम जनता को क्या समझ आ रहा है? क्या विपक्ष सिर्फ सदन के भीतर हंगामा काटकर देश को अडानी विवाद के बारे में अवगत करा पा रही है? यदि सरकार विरोध के पहले स्वर को सुनते ही संसद स्थगित करती जायेगी तो विपक्ष का मकसद कैसे पूरा हो सकता है?

अमेरिकी कोर्ट ने गौतम अडानी और उनके भतीजे सागर अडानी सहित कुल 8 लोगों के खिलाफ जो आरोपपत्र जारी किये हैं, उसमें भारत का हित कहाँ से आड़े आ रहा है? अमेरिकी कोर्ट और एफबीआई तो इस घूसखोरी कांड में अपने निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए कार्यवाही कर रहे हैं, लेकिन यह सारा कांड तो भारत की जमीन पर हो रहा है, और भारत के आम लोग इससे सीधे प्रभावित होने जा रहे हैं। 

क्या विपक्ष को समझ नहीं आता कि मोदी सरकार अगले 3 सप्ताह तक इस कवायद को दोहराने जा रही है और शीतकालीन सत्र के अंतिम दिनों में भारी शोर-शराबे और अराजकता के बीच अपने मनमाफिक बिलों को उसी तरह से पारित करा देगी, जिसका नमूना देश पिछले कार्यकाल में भी देख चुका है?

सोलर पॉवर की खरीद-फरोख्त का सारा बोझ आम बिजली उपभोक्ताओं पर पड़ने वाला है 

सीधी सी बात है। केंद्र सरकार का संस्थान, सोलर एनर्जी पॉवर कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया (एसईपीसीआई) एक ऐसे टेंडर के साथ प्रस्ताव लेकर बाजार में आता है जिसमें सोलर एनर्जी का खरीद मूल्य (2.92 प्रति यूनिट) औसत भाव (2.50 रुपये प्रति यूनिट) से काफी ऊंचे दाम पर तय किया जाता है। इसके लिए अडानी समूह और अजुरे पॉवर आगे आते हैं और उन्हें करीब 12 गिगावट का टेंडर अवार्ड कर दिया जाता है। लेकिन इतने ऊंचे दामों पर विभिन्न राज्य डिस्कॉम राजी नहीं होते। 

ऐसे में जब कोई बिजली खरीदेगा ही नहीं तो टेंडर अवार्ड होने के बाद भी बिजली उत्पादन का तो कोई तुक नहीं बनता। ऐसे में जो समाधान निकाला गया, उसमें राज्य डिस्कॉम को रिश्वत देने से लेकर कुल उत्पादन क्षमता 12 गिगावट की खरीद के लिए दो हिस्सों में बांटकर औसत टैरिफ को 2.66 रुपये प्रति यूनिट पर सहमति बनती है। 

अमेरिकी अदालत में अभियोग लगाया गया है कि इस कॉन्ट्रैक्ट को अंजाम देने के लिए अडानी समूह की ओर से 2,250 करोड़ रुपये की रिश्वत राज्य डिस्कॉम के अधिकारियों को दी गई, जिससे कंपनी को अगले 20 वर्षों में 2 अरब डॉलर का मुनाफा होता। 

सबसे अधिक 7 गिगावट की आपूर्ति आंध्रप्रदेश डिस्कॉम को की जानी थी, इसलिए कहा जा रहा है कि आंध्र प्रदेश को इस रिश्वत की सबसे बड़ी रकम दी गई थी। यही वजह है कि कल पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी को मीडिया के सामने आकर कहना पड़ा कि इस मामले में उनका और अडानी का कोई संबंध नहीं है, बल्कि यह सौदा तो केंद्र की SEPCI और राज्य डिस्कॉम और राज्य पॉवर निगम के बीच का करार है। लेकिन इसके साथ ही जगन मोहन रेड्डी यह कहते भी पाए गये कि अपने मुख्यमंत्रित्व काल में वे राज्य में कई बार गौतम अडानी से विभिन्न प्रोजेक्ट्स के सिलसिले में मिले थे। 

विपक्षी दलों में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के अन्य दलों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे इस मुद्दे को आम लोगों से जोड़कर उठाएं, न कि सिर्फ संसद में चर्चा कर जेपीसी से मामले का निपटान के बारे में सोचते रहें। उन्हें अच्छी तरह से पता होना चाहिए कि केंद्र की मोदी सरकार उनके किसी भी उचित सवालों को संबोधित नहीं करने जा रही है। 

लेकिन यदि विपक्ष इस मुद्दे पर एकजुट होकर पूरे देश में जन-जन के बीच इस बात को बता पाने में सफल होते हैं कि किस प्रकार क्रोनी कैपिटल अब राज्य सरकारों और डिस्कॉम को रिश्वत के बल पर बंधक बनाने जा रही है, और इस सबकी भरपाई आम जनता को और लूटकर की जायेगी। देश महंगाई और बेरोजगारी से यूँ ही पीड़ित नहीं है, इस सबके पीछे भी बिग कॉर्पोरेट और मौजूदा सरकार के बीच का नेक्सस जिम्मेदार है।

सिर्फ जनता की ताकत ही इस लूट और भ्रष्टाचार का मुकाबला कर सकती है

राहुल गांधी भी जब हर कोशिश करने के बाद ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकालकर आम भारतीय से जुड़ने का सबक सीख चुके हैं, तो विपक्ष को भी अब अहसास हो गया होगा कि संसद, ट्वीट, प्रेस कांफ्रेंस और प्रतीकात्मक आंदोलन करने से कुछ खास फायदा नहीं होने जा रहा है। यह सभी है कि हिंडनबर्ग की तुलना में अडानी समूह पर इस बार कहीं बड़ा ग्रहण लगा है। लेकिन आज भी संसाधन, मीडिया की ताकत और शासक वर्ग पूरी तरह से अडानी समूह के पीछे मजबूत चट्टान बनकर खड़ा है। 

यहां तक कि इंडिया गठबंधन के कई घटक दल (इनमें से कुछ राज्यों में तो इस कथित घोटाले में शामिल होने तक की बात है) यहां तक कि कांग्रेस की पूर्ववर्ती रमन सरकार की संदेह के घेरे में है। ऐसे में स्वयं कांग्रेस के भीतर इस मुद्दे पर लंबी लड़ाई लड़ने का कितना माद्दा है, यह भी देखना होगा। तमिलनाडु के एमके स्टालिन या एनसीपी (शरद पवार) सहित तृणमूल कांग्रेस का रुख कितना सहयोगात्मक रहता है, का कुछ-कुछ अंदाजा तो आम भारतीय तक जान रहा है।

लड़ाई अब उस मोड़ पर खड़ी हो गई है कि देश मोदी के पक्ष या विपक्ष के बजाय अडानी के पक्ष या विपक्ष में बंटता जा रहा है। जब संसद के दोनों सदनों के सभापतियों को इस बात को छिपाने में कोई संकोच नहीं हो रहा है, और वे अडानी नाम की भनक मात्र से संसद को ठप कर देते हैं तो समझा जा सकता है कि देश और आम लोगों के हित कितने गहरे संकट में घिरे हैं। यदि विपक्ष सच्चे मन से इस मुद्दे पर लड़ने के कृत संकल्प होना चाहता है तो उसे उसी जनता के पास जाना होगा, जिसे हर लूट-खसोट का भुगतान करना पड़ रहा है।    

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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