मंगलवार से पूरा देश भारत के मिनी स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले पहलगाम की खूबसूरत वादियों में आतंकियों द्वारा जघन्य वारदात को अंजाम देने की घटना से स्तब्ध है। इस घटना ने जहां केंद्र की मोदी सरकार के मजबूत हाथों में सुरक्षित देश वाले दावे की हवा निकाल दी है, तो दूसरी तरफ देश में सुरक्षा एजेंसियों और गृह मंत्रालय को कटघरे में खड़ा करने के बजाय बीजेपी की आईटी सेल और कथित गोदी मीडिया इसे एक धर्म विशेष के खिलाफ घृणा अभियान चलाने के औजार के रूप में इस्तेमाल कर रही है।
हिंदी क्या अंग्रेजी के चैनल भी इस नफरत की खाई को पाटने के बजाय नमक-मिर्च लगाने में सबसे आगे खड़े हैं। आजतक और अंग्रेजी में इंडिया टुडे की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। अंग्रेजी चैनल में एंकर गौरव सावंत दावा कर रहे हैं कि आतंकियों ने धर्म की पहचान के आधार पर इस आतंकी गतिविधि को अंजाम दिया है। इसके लिए उनका दावा है कि देश के विभिन्न प्रदेशों से आये पीड़ितों ने इस तथ्य की पुष्टि की है।
इससे पहले भी देश अनेक मौकों पर देख चुका है कि गोदी मीडिया की इसी प्रकार की गलीज हरकतों के कारण देश बुनियादी मुद्दों की ओर ध्यान देने के बजाय हिंदू-मुस्लिम नैरेटिव के जाल में उलझकर अपना नुकसान करता जा रहा है। वो चाहे कोविड-19 महामारी के दौरान दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में तबलीगी जमात की बैठक को कोरोना जिहाद नाम देना रहा हो, या नोटबंदी के समय 2000 रुपये के नोट की अद्भुत खूबियों को गिनाने का सवाल रहा हो।
अब तो अंधभक्तों तक को अहसास होने लगा है कि सरकार और गोदी मीडिया जिन मुद्दों को आज जोर-शोर से हवा देती है, कुछ समय बाद वह झूठी, अर्धसत्य या उलटी पाई जाती है। लेकिन उस मौके पर, जब घटना ताजातरीन रहती है और देश का बड़ा मीडिया उसे चीख-चीखकर कई गुना बड़ा बना रहा होता है, उस क्षण वह सबसे बड़ा सत्य बन जाता है, और देश उसी रौ में बहकर काफी कुछ अनर्थ कर जाता है।
श्रीनगर से इसके कई उलट तथ्य आ रहे हैं। कुछ को तो स्वंय गोदी मीडिया के चैनलों ने अपने जमीनी संवावदाताओं के माध्यम से जारी किया है। इसी तरह का एक उदाहरण ज़ी न्यूज़ के बांगला चैनल का मिलता है, जिसके संवावदाता ने कश्मीर के अस्पताल में घायल पर्यटकों से विस्तार में बातचीत की है। इसमें सभी पीड़ितों का साफ़ कहना है कि उन्होंने 12-15 मिनट तक ताबड़तोड़ गोलियों की आवाज सुनी थी, लेकिन वे चूँकि दरवाजे के पास थे, इसलिए उन्होंने अंधाधुंध नीचे की ओर भागना शुरू किया।
एक प्रत्यक्षदर्शी का कहना था कि नीचे सेना के जवान थे, लेकिन 2000 से अधिक पर्यटकों की भीड़ की सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं थे। एक वीडियो में तो यह भी देखा जा सकता है कि कई महिलाएं और बच्चे बदहवास जंगल से भागकर आ रहे हैं, जिन्हें भारतीय सेना के लोग रोकते हैं और पानी के लिए पूछ रहे हैं। ये लोग इतने दहशत में हैं कि जवानों को आश्वस्त करना पड़ता है कि वे भारतीय सेना से हैं।
लेकिन सशस्त्र बलों को पर्यटकों की सुरक्षा के लिए ऐसे महत्वपूर्ण स्थान पर क्यों तैनात नहीं किया, जहां हर रोज हजारों की संख्या में टूरिस्ट आते हैं? यह सवाल कोई भी अख़बार या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं पूछ रहा। अगर गलती से पूछ लिया तो न्यूज़ चैनल की शामत नहीं आ जायेगी। जिस मीडिया को पीएमओ के जोशी जी से रोज सुबह-शाम दिशानिर्देश लेने की लत लग चुकी हो, उसके लिए ऐसा जोखिम? कोई सवाल ही नहीं उठता।
एक मजेदार तथ्य यह भी है कि, यदि भूलवश किसी संवावदाता ने अपनी ग्राउंडरिपोर्ट में ऐसा कोई सवाल खड़ा भी कर दिया, तो उसे या तो दिखाया नहीं जाता या लाइव खबर को ही स्टूडियो में बैठा एंकर बंद कर दूसरी दिशा में बहस को ले जाने लगता है। न्यूज़ चैनल आजतक के ग्राउंड रिपोर्टर अशरफ वानी जब कल बयां कर रहे थे कि, “सुरक्षा एजेंसियों और गृह मंत्रालय के अधिकारियों का मानना है कि 2000 पर्यटकों की किसी टूरिस्ट स्पॉट पर मौजूदगी के बावजूद सुरक्षा बलों की तैनाती घटनास्थल पर क्यों नहीं थी, यह मजाक नहीं है, वहां पर पुलिसबल या सुरक्षा बलों की कोई तैनाती नहीं थी। ”
लेकिन इतने महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाने वाले वरिष्ठ पत्रकार अशरफ वानी की फुटेज को बीच में ही काटकर 2000 रुपये के नोट में चिप्स की खबर उड़ाने वाली मशहूर एंकर, श्वेता सिंह एक ब्रेकिंग खबर की बात कह एक गंभीर विषय को रफादफा कर देती हैं। यकीनन यह सब पर्दे के पीछे प्रोडूसर और उनके पीछे भी न्यूज़ चैनल के मालिक के स्पष्ट दिशानिर्देश का ही कमाल होता है।
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष, अखिलेश यादव ने भी इस खबर की कटिंग साझा कर आजतक को बेनकाब करने का काम किया है। लेकिन देश में लगभग सभी बड़े अख़बार भी एजेंडा चलाने में जुटे हुए हैं। दैनिक हिंदुस्तान ने भी न्यूज़ 18 के हवाले से डिजिटल संस्करण में खबर छापी है कि आतंकी धर्म की पहचान के लिए पर्यटकों को कलमा पढ़ने के लिए कह रहे थे। जो नहीं पढ़ पा रहा था उसे गोली मार दी गई। अख़बार ने असम यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर देवाशीष भट्टाचार्य का बयान प्रकाशित किया है, जिनका दावा है कि वे कलमा जानते थे, इसलिए उनकी जान बच गई।
अच्छी बात यह है कि मोदी सरकार और गोदी मीडिया अगले एक सप्ताह तक क्या नैरेटिव चलाएगी और मूल प्रश्नों को कैसे तिरोहित कर दिया जायेगा, इसके बारे में भी अब देश में अच्छीखासी संख्या में नागरिक सजग हो चुके हैं।
टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने धारा 370 के निरसन के बाद पीएम मोदी के एक दावे कि आतंकवाद की कमर टूट गई है, की पोल खोलते हुए उनके वीडियो को जारी करते हुए कहा है कि अब हकीकत सामने है, इसलिए थोथे दावों के बजाय कम से कम अब से सुरक्षा के बारे में सरकार को चुस्त हो जाना चाहिए।
सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आतंकियों के द्वारा यह कोई पहली घटना नहीं है। हाल के दिनों में जम्मू-कश्मीर से लगातार ऐसी खबरें आ रही थीं। हाँ, यह सही है कि इधर कश्मीर घाटी के बजाय जम्मू क्षेत्र में आतंकी वारदातें काफी बढ़ गई थीं। लेकिन गृहमंत्री अमित शाह ने तो अप्रैल के पहले सप्ताह कश्मीर का तीन दिवसीय दौरे पर दावा किया था कि कश्मीर में आतंक का इकोसिस्टम चरमरा चुका है।
सभी जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर अभी भी एक केंद्र शासित राज्य है, जिसके मुख्यमंत्री की हैसियत दिल्ली प्रदेश जैसी ही कर दी गई है। एलजी सिन्हा साहब के बारे में माना जाता है कि उनका मन कश्मीर से ज्यादा लखनऊ में लगता है, और हाल ही में उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के साथ उनकी मुलाकात राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बनी हुई थी। ऐसे में कश्मीर आने वाले पर्यटकों को प्रदेश के मुख्यमंत्री, उमर ओब्दुल्ला से कितनी उम्मीद रखनी चाहिए, जो पूर्ण राज्य के वायदे के आधार पर अपना चुनाव जीतकर आये हैं।
लेकिन इस ताजे आतंकी हमले पर भावावेश में आने के बजाय देश को गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है। क्या हम इस आतंकी हमले की मुंबई टेरर अटैक, पुलवामा या पठानकोट आतंकी हमले से तुलना कर सकते हैं? एक मायने में यह बेहद महत्वपूर्ण इसलिए है कि संभवतः पहली बार कश्मीर में इतने बड़े पैमाने पर पर्यटकों को आतंकियों ने अपना निशाना बनाया है। कश्मीर में पर्यटक का सम्मान देश के किसी भी दूसरी जगह से ज्यादा होता है, क्योंकि राज्य की आर्थिकी का वे सबसे बड़ा संबल होते हैं।
इसका सुबूत कश्मीर में कल जगह-जगह सड़कों पर कैंडल मार्च और आज कश्मीर बंद में नजर आया। सरकारी स्कूलों में छात्राओं ने इस हादसे पर शोक मनाया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो उस कश्मीरी मुस्लिम युवा ने अपनी जान देकर साबित किया है, जिसने आतंकियों को पर्यटकों पर गोलीबारी करने से रोकने की कोशिश की।
जिन 26 लोगों को आतंकियों की गोली का निशाना बनना पड़ा है, उसमें एक नाम सैय्यद हुसैन शाह का भी है जिसकी आजीविका ही पर्यटकों को घोड़े की सवारी पर निर्भर थी। उसने आतंकियों से बंदूक छीनने की भी कोशिश की, जिसके चलते उसे अपनी जान गंवानी पड़ी। अपने बूढ़े मां-बाप और छोटे भाइयों में इकलौता कमाने वाला सैयद हुसैन आज इस दुनिया में नहीं है, लेकिन भारतीय मीडिया में चंद ही उसके परिवार का पुरसाहाल लेने गये।
पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के दौर में मुंबई टेरर अटैक और 2014 के बाद पठानकोट, पुलवामा और अब पहलगाम टेरर अटैक की तुलना करें, तो मुंबई आतंकी हमला सबसे सुनियोजित हमला कहा जा सकता है। इसके बाद पठानकोट हमला था। लेकिन पुलवामा और पहलगाम हमले के लिए आतंकियों को कुछ खास योजना बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। पुलवामा में दो सप्ताह से बर्फ में फंसे सीआरपीएफ के हजारों जवान और पहलगाम में आबादी से दूर वादियों में बगैर किसी सुरक्षा इंतजाम के 2,000 से भी अधिक सैलानियों का जमावड़ा किसी खराब निशानची के लिए भी बेहद आसान था।
कश्मीर में प्रवेश से लेकर सड़क पर चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा इंतजाम के तथ्य की पुष्टि करने वाले सुरेन्द्र पाल सिंह बताते हैं कि अप्रैल के पहले सप्ताह वे परिवार सहित श्रीनगर की यात्रा पर गये थे। उनके अनुसार, “हर सड़क पर सेना और पुलिस के जवान गश्त करते हैं, एक जवान से दूसरे जवान की दूरी कुछ ही गज की होती है, इतनी कि आपस में बात की जा सकती है। सेना और अर्ध सैनिक बालों की हर तरफ पक्की बैरक हैं, श्रीनगर से बारामुला तक। गुलमर्ग और श्रीनगर से सोनमर्ग तक चप्पे चप्पे पर फौज तैनात है। हर जगह, हर टूरिस्ट स्पॉट के साथ ही आर्मी के कैम्प है। पहलगाम में भी पूरा आर्मी का बंदोबस्त है, एक पूरा बेस कैंप है, लेकिन बैसरन घाटी में जहां 2000 पर्यटक हर रोज जमा होते हैं, यह व्यवस्था क्यों नहीं की गई थी?
आखिर इन 2024 में कश्मीर में 2. 35 करोड़ की संख्या का रिकॉर्ड तोड़ देने का दावा करने वाली सरकार से इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई? आजतक के ग्राउंड रिपोर्टर को तो स्टूडियो की एंकर गोल कर देती हैं, लेकिन जम्मू के कठुआ में जब यही सवाल आज कुछ पत्रकारों ने किया तो बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने उन्हें लिंच करने की कोशिश की। अगर पुलिसबल ने तत्काल हस्तक्षेप कर मामले को काबू में न किया होता तो सवाल पूछने पर एक पत्रकार की जान भी जा सकती थी।
“पहलगाम हमले की जिम्मेदारी किसकी है?” यह सवाल जितना मौजूं है, इसका जवाब उतना ही कठिन बना दिया गया है। मुंबई आतंकी हमले पर पूर्व प्रधानमंत्री, मनमोहन सिंह और यूपीए सरकार को घेरने के लिए पड़ोसी राज्य के मुख्यमंत्री तक ने मुंबई का दौरा किया था। लेकिन आज सरकार से सटीक सवाल पूछना सबसे बड़ा गुनाह हो चुका है। यही नया भारत और उसकी हकीकत है। अच्छी बात यह है कि सोशल मीडिया पर पहले की तुलना में लाखों नागरिक यह सवाल करने लगे हैं।
आज कश्मीर से टूरिस्ट जल्द से जल्द वापस लौटना चाहते हैं। भारत सरकार ने प्राइवेट एयरलाइन्स से गुहार लगाई है कि वे ज्यादा संख्या में फ्लाइट्स की व्यवस्था करें और यात्रियों से ज्यादा चार्ज न करें। एयर इंडिया तो बिक गई, इसलिए सरकार के पास चाहे कुंभ हो या कोई भी राष्ट्रीय आपदा, कॉर्पोरेट मित्रों से सिर्फ हाथ जोड़कर प्रार्थना करने के सिवाय कुछ नहीं बचा।
जब इस सिलसिले में तहकीकात की तो पता चला कि श्रीनगर से दिल्ली और मुंबई के रेट अचानक से कई गुना हो चुके हैं. दिल्ली के लिए शाम 5 बजे तक सिर्फ एक फ्लाइट स्पाइस जेट की रात 10:30 पर थी, जिसका रेट उस समय तक 22,862 रूपये था। वेबसाइट पर 15,600 रुपया दिखा रहा है, लेकिन मिलेगा डेढ़ गुना दाम पर ही।
कल और परसों के लिए दाम यह फ्लाइट 9,620 रुपये में उपलब्ध है, और रविवार तक तो मात्र 5,892 रुपये में आप श्रीनगर से दिल्ली आ सकते हैं। समूचा देश आतंकी हमले से सदमे में है, लेकिन मौका देखकर खून चूसने वाला कॉर्पोरेट अपनी हरकत से बाज नहीं आ रहा। मुंबई के लिए फ्लाइट अपेक्षाकृत सस्ती है। इंडिगो की दो फ्लाइट हैं जो 20,168 और 21,000 रुपये चार्ज कर रही हैं, बस एक स्टॉप और 5-6 घंटे का सफर बर्दाश्त करना होगा। जबकि अगले सोमवार और मंगलवार का किराया इसका भी मात्र 5,828 रुपये है।
ठहर कर सोचिये! लाखों पर्यटकों के लिए हमारी सरकार और बिजनेसमैन का क्या रुख होना चाहिए? सरकार को इन पर सख्त कार्रवाई की धमकी भर देनी है, इनके लाइसेंस रद्द करने की घुड़की भर से ये रास्ते पर आ सकते हैं। लेकिन धंधे और चंदे का रिश्ता कड़े कदम उठाने से महाकुंभ में रोके रखा, आज भी वही स्थिति है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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