केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और उनकी पार्टी वाले क्रोनोलॉजी की बहुत बात करते हैं। इसलिए सबसे पहले उन्हीं की भाषा में समझिए। जिस पाकिस्तान से आए आतंकियों ने पहलगाम पर हमला किया है उसको तो सबक सिखाना ही है। वह बालाकोट टाइप (जहां कहा जाता है कि महज दो कबूतर मरे थे) होगा या फिर उसका तरीका कुछ और इसका बाद में पता चलेगा। लेकिन उससे पहले जरूरी है उसका लाभ लेने की राजनीतिक जमीन की तैयारी। ऐसा किए बगैर अगर कुछ होता भी है तो फिर भला उसका क्या मतलब होगा? आप देख रहे होंगे कि पहलगाम घटना के बाद पाकिस्तान केवल रेफरेंस प्वाइंट भर है लेकिन सबसे ज्यादा फोकस भारत के अंदरूनी हिस्से में प्रचार-प्रसार पर है। सरकार ने उसके जवाब में जो भी कदम उठाए हैं उसका असर पाकिस्तान पर कम भारत पर ज्यादा पड़ा है।
मसलन पाकिस्तानी नागरिकों का वीजा तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया गया। जिसके जरिये एक साथ पूरे देश में हलचल पैदा करने की कोशिश की गयी। जिस सिंधु जल समझौते का तत्काल कोई असर नहीं पड़ना था। और पिछले सालों में कई बार रद्द किया जा चुका है। उसकी सबसे ज्यादा चर्चा मीडिया, आईटी सेल और सोशल मीडिया समेत तमाम प्लेटफार्मों पर हो रही है। वह मीम के रूप में हो या फिर किसी और तरीके से। इस तरह से प्रचारित किया जा रहा है कि पाकिस्तान बूंद-बूंद को तरस जाएगा, शौचालय के लिए उसके नागरिकों को पानी तक नसीब नहीं होगा। इस प्रचार का असर इतनी दूर तक है कि लंदन में पाक हाई कमीशन के सामने गुजराती बुजुर्ग तक हाथ में पानी लिए नाच-नाच कर अपना पृष्ठ प्रदेश दिखा रहे हैं।
उससे पहले आपने देखा ही प्रधानमंत्री भले ही दुबई से अपनी विदेश यात्रा बीच में रोक कर स्वदेश लौट आए हों। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे उनके लौटने को सार्थक कहा जाए। न ही वह पीड़ितों और उनके परिजनों से मिलने गए, न कश्मीर की यात्रा की। न ही सर्वदलीय बैठक में हिस्सा लिया। हां एक काम उन्होंने ज़रूर किया और वह थी बिहार में चुनावी सभा। यह इसलिए था जिससे आने वाले विधानसभा चुनाव में अपने वोटों को और पुख्ता किया जा सके।
इस पूरी कड़ी में आप देख सकते हैं कि बीजेपी-आरएसएस का पूरा जोर इस पूरे मामले को देश के अंदरूनी हिस्सों में ज्यादा से ज्यादा फैलाने पर है। दरअसल केंद्र सरकार सारे एजेंडों पर फेल हो गयी है। उसके पास न तो बेरोजगारी का कोई हल है। न महंगाई को खत्म करने की कोई तरकीब। और न ही किसानों के आय को दुगुना करने का कोई साधन। स्कूलों की फीस की मार हो या फिर अस्पताल में परिजनों के स्वास्थ्य की समस्या नागरिकों की पीड़ा बढ़ती जा रही है। और कहीं दूर-दूर तक उनसे राहत मिलने की उम्मीद नहीं दिख रही है। ऐसे में नागरिक होने के नाते वो सिर्फ और सिर्फ सरकार को इनके लिए जिम्मेदार मानता है। ऐसे में आने वाले चुनावों में यह बात तय है कि अगर ये बुनियादी मसले मुद्दे बनते हैं तो सरकार को मुंह की खानी पड़ेगी।
ऊपर से सामने उसके दो ऐसे चुनाव हैं जहां उसे अश्वमेधी विजय की पताका फहरानी है। दोनों राज्य हैं पश्चिम बंगाल और बिहार। इन सूबों में हार का मतलब है देश की सत्ता से उलटी गिनती की शुरुआत। ऐसे में बीजेपी-मोदी सरकार के लिए यह दौर किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। इस कड़ी में सबसे खास बात यह है कि जनता के बुनियादी मुद्दों पर चुनाव लड़ने का मतलब है अपनी जीत की संभावना को नगण्य कर देना। ऐसे में बीजेपी के पास केवल और केवल एक मुद्दा है सांप्रदायिकता। लेकिन चूंकि दोनों सूबों में सरकार का नेतृत्व दूसरे दलों के पास है इसलिए बीजेपी के लिए वहां अपने मुताबिक सांप्रदायिक माहौल खड़ा कर पाना मुश्किल है।
लिहाजा चाहकर भी वह चीजों को अपने पक्ष में नहीं मोड़ सकती है। ऐसे में यह काम बाहर से ही हो सकता था। हाल के दिनों में औरंगजेब से लेकर तमाम सांप्रदायिक मुद्दों को उठाने की कोशिशें ज़रूर की गयीं लेकिन उनका असर उस तरह से नहीं हुआ। अब इसे संयोग कहें या फिर प्रयोग बीजेपी को पहलगाम पर आतंकियों के हमले की घटना का मौका मिल गया है। बिल्ली के भाग से छींका टूटा है। लेकिन इसका भी लाभ तभी मिल सकता है जब उसको हासिल करने की उसकी अपनी पूरी अंदरूनी तैयारी हो।
अनायास नहीं बीजेपी-आरएसएस इस काम में लग गए हैं। और सरकार ने सभी चैनलों को उसी दिशा में लगा दिया है। इनको तो आशा थी कि घटना के बाद पूरे देश में सांप्रदायिक माहौल बन जाएगा और फिर पूरा देश कश्मीर समेत पाकिस्तान और मुसलमानों के खिलाफ उठ खड़ा होगा। वो तो कश्मीरी थे जिनके अंदर की कश्मीरियत है कि मरती ही नहीं है। उन्होंने जिस भाईचारे और मेहमानवाजी का परिचय दिया उससे सैलानी बन कर गए बीजेपी के नेता तक अभिभूत हैं और चाहकर भी उसके खिलाफ नहीं बोल पा रहे हैं।
आलम यह है कि गोदी मीडिया के रिपोर्टरों को सैलानियों से कश्मीरियों के खिलाफ बाइट देने के लिए विनती करनी पड़ रही है। लेकिन कोई इंसाफ पसंद और ज़मीर वाला इंसान भला ऐसा क्यों करेगा? ऐसे में इन्होंने कश्मीर के बाहर देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ाई कर रहे कश्मीरी छात्रों को निशाना बनाकर सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की। लेकिन कई जगहों पर उसका कड़ा प्रतिरोध हुआ। कुछ छिटपुट घटनाएं ज़रूर हुईं लेकिन फिर वह सिलसिला ठप हो गया। क्योंकि उसके लिए लोग ही तैयार नहीं थे। इससे भी आगे जाकर जब लगा कि कश्मीर में बहुत भाईचारा बन रहा है और पूरा कश्मीर न केवल आतंकवाद के खिलाफ खड़ा है बल्कि भारत के बाकी हिस्सों के लोगों के दुख दर्द साझा कर रहा है।
तब इन्होंने कुछ आतंकियों (जिनके बारे में उनका कहना है कि उसी घटना से जुड़े हैं) के रिश्तेदारों से लेकर पड़ोसियों तक के मकानों को बुलडोजर नहीं बल्कि बमों से ध्वस्त करने का कार्यक्रम चलाया। सामूहिक सजा के इस मध्ययुगीन बर्बर कबीलाई रवैये को अपनाकर वह कश्मीर के भीतर विरोध का एक स्वर खड़ा करना चाहते हैं जिसका लक्ष्य अंतत: भारत विरोधी ही होगा। अब उसमें कितना सफल हो पाते हैं यह अलग बात है लेकिन यह तो अन्याय है और इसका विरोध तो होना ही चाहिए। किसी शख्स की गलती की सजा उसके परिवार और रिश्तेदारों को कैसे दिया जा सकता है?
और मोदी सरकार को ऐसा करने से पहले अपने गिरेबान में ज़रूर झांक लेना चाहिए। अगर किसी कश्मीर के एक आतंकी के खिलाफ इस तरह की सजा वह मुकर्रर करती है तो ऐसी ही आतंकी घटनाओं को अंजाम दे चुके देश के बाहर के लोगों के साथ भी उन्हें ऐसा ही करना चाहिए। ऐसे में खुद मोदी सरकार जिनको दोषी मान चुकी है उनके खिलाफ इस तरह की कार्रवाइयां क्यों नहीं हो रही है? इस मामले में सबसे पहला नाम प्रज्ञा ठाकुर का आता है। उसके बाद कर्नल पुरोहित समेत वो सातों आतंकी हैं जिन्हें मालेगांव ब्लास्ट में एनआईए ने दोषी माना है और उनके लिए कोर्ट से फांसी की सजा की मांग की है। इसलिए देश को मोदी सरकार को यह ज़रूर बताना चाहिए कि बुलडोजर का रुख कब प्रज्ञा ठाकुर की घर की तरफ होगा।
बहरहाल इस सरकार से जिसका हर मामले में न केवल अन्यायपूर्ण बल्कि दोहरा रुख होता है उससे भला किसी न्याय की क्या उम्मीद की जा सकती है? अभी जबकि देश में न तो उस स्तर का सांप्रदायिक माहौल बना है कि पाकिस्तान पर हमले का लाभ लिया जा सके और न ही उसकी तैयारी पूरी की जा सकी है। इसलिए उसको बनाने के काम में मीडिया और आईटी सेल को लगा दिया गया है। हीरेन जोशी जो इस समय पीएमओ की तरफ से मीडिया को गाइड करते हैं उन्होंने अपने नोएडा के भोपुओं को अपनी पैनल चर्चा में पाकिस्तान के मेहमानों को बैठाने का निर्देश जारी किया है। और उनसे पाकिस्तानियों को खुल कर बोलने देने के लिए कहा गया है। इसके जरिये वह देश में न केवल राष्ट्रवाद की भावना को जगाना चाहते हैं बल्कि उसे सांप्रदायिक भी बनाना चाहते हैं। जिससे उनके लिए ध्रुवीकरण की लहलहाती फसल को काटना आसान हो जाएगा।
उसी कड़ी में आईटी सेल और भक्तों की पैदल सेना को सड़कों पर जगह-जगह पाकिस्तानी झंडे को चस्पा करने और फिर उसे रौंदने समेत हर तरीके से अपमानित करने का काम सौंप दिया गया है। अब चूंकि उस झंडे में चांद-तारा लगा है जो चिन्ह के तौर पर इस्लाम से भी जुड़ता है लिहाजा कोई मुस्लिम किसी भी रूप में उसे अपमानित करने की कोशिश नहीं करेगा। और ऐसा न होने पर उस शख्स को सवालों के घेरे में खड़ा करना आसान हो जाएगा। कुछ तस्वीरें भी अगर इसकी वायरल हो गयीं तो उनका काम आसान हो जाएगा। इस तरह से एक पूरी कौम को पाकिस्तान परस्त और देशद्रोही साबित करने की साजिश की जा रही है। वैसे तो किसी भी देश के झंडे को अपमानित करने का किसी को भी हक नहीं है। और कोई भी सभ्य देश और उसका नागरिक ऐसा करना पसंद नहीं करेगा। लेकिन इनका मकसद चूंकि इसके जरिये सांप्रदायिक उन्माद खड़ा करना है इसलिए निशाने पर केवल और केवल मुस्लिम होंगे।
अनायास नहीं इसी दौरान अपने सबसे सफल प्रयोग स्थली गुजरात में रातों-रात एक हजार बांग्लादेशियों को एक साथ खोज लिया गया और न केवल उन्हें हिरासत में लिया गया बल्कि पूरे अहमदाबाद में उनकी परेड करायी गयी। इस परेड से गोधरा में मारे गए उन हिंदुओं की यादें ताजा हो गयीं जब चुनाव से कुछ महीनों पहले ही उनके लाशों की परेड करायी गयी थी। बहरहाल इन कथित बांग्लादेशियों के परिजन जब उनके कागज लेकर थाने पहुंचे तो ज्यादातर को उन्हें छोड़ना पड़ा। लेकिन उससे क्या फर्क पड़ता है उनका मकसद तो पूरा हो गया।
लोगों की जेहन में एक हजार लोगों की परेड की तस्वीर स्थाई तौर पर चस्पा हो गयी जिसमें मुस्लिम ही मुस्लिम थे। इनके घृणा और नफरत का विष यहीं तक नहीं रुका। एक झील के किनारे रहने वाले गरीब मुसलमानों की झुग्गियों पर सैकड़ों बुलडोजरों से एक साथ हमला कर दिया गया। बुलडोजरों की उन कतारों को देखकर किसी भी इंसान मन सिहर जाए। लेकिन लोगों के सिरों से उनके आसमान छीन लेने पर इन उन्मादियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। चूंकि इसके संदेश को बहुत दूर तक ले जाना है लिहाजा उसी स्तर की कार्रवाई की भी दरकार थी।
बची खुची कसर सरकार के ऊपर सवाल उठाने वालों से निकाली जा रही है। कोई पाकिस्तानी या फिर उसके सरकारी महकमे द्वारा किसी की पोस्ट को एंडोर्स किए जाने पर उसे न केवल देशद्रोही घोषित कर दिया जा रहा है बल्कि उसके खिलाफ देशद्रोह की धाराओं के तहत एफआईआर भी दर्ज कर दी जा रही है। भोजपुरी गायिका नेहा सिंह राठौर से लेकर अध्यापिका मेडुसा तक सभी इस कतार में खड़े कर दिए गए हैं।
दरअसल फासीवाद यही होता है। जब एक दौर की खुराक उसके लिए कम पड़ने लगती है तब उसे और ज्यादा भोजन की जरूरत पड़ती है जो न केवल मात्रा में ज्यादा हो बल्कि तीव्रता में भी उसकी मार अधिक होनी चाहिए। ऐसे में हर स्तर पर आप देख रहे होंगे कि अपने किस्म की एक अतिश्योक्ति है जो यह बताती है कि सत्ता बेहद संकट में है और उसको उससे उबारने के लिए उतनी ही ताकत की जरूरत है। और सरकार वही ताकत लगा रही है। अनायास नहीं कहा जाता है कि युद्ध आखिरी विकल्प होता है। लेकिन मोदी सरकार ने देश को लाकर उसी मुहाने पर खड़ा कर दिया है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)
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