हिंदुस्तान एक पुर-सुकून मुल्क है-मगर ख़ामोश नहीं। इसकी रगों में ठहराव है, मगर बेहोशी नहीं। इसकी सरज़मीं पर अमन की दुआएं तो हैं, मगर इज़्ज़त की हिफ़ाज़त के लिए ये हर वक़्त मुस्तैद रहता है।
ये मुल्क जंग को इब्तिदा नहीं, बल्कि आख़िरी चारा-गर समझता है।
मगर जब जज़्बात अंगारों की तरह धधकने लगें, जब हर गली-कूचे से एक ही सदा बुलंद हो-“अब और नहीं!”-और फिर किसी पराए मुल्क की सोशल मीडिया पोस्ट के ज़रिये अचानक सीज़फायर का एलान हो जाए, तो ये महज़ एक सियासी मोड़ नहीं, बल्कि एक ज़ख़्म होता है… मुल्क की रूह पर।
हम जंग के ख़्वाहां नहीं, मगर बे-इज़्ज़ती को भी कबूल नहीं करते।
तारीख़ गवाह है-जब-जब मुल्क की आन पे बात आई, इस सरज़मीं ने शिवाजी, भगत सिंह, अशफ़ाक़, सुभाष और अब्दुल हमीद जैसे नौजवान पैदा किए।
हमारे लिए इज़्ज़त कोई कूटनीतिक लफ़्ज़ नहीं, बल्कि सांस लेने का अंदाज़ है।
इस बार फ़िज़ा बदली हुई थी-
शहरों से गांवों तक, हर दिल में एक लावा-सा उबल रहा था।
सत्ता और विपक्ष एक लहजे में बोले: “अब सबक़ देना लाज़िमी है।”
और अवाम ने भी अपने इरादे साफ़ कर दिए: “अगर वक़्त बुलाएगा, तो हम पीछे नहीं हटेंगे।”
मगर फिर… सब कुछ थम गया।
वॉशिंगटन से एक पोस्ट आई और जंग की दस्तक चुप हो गई।
क्या ये वही मुल्क है जिसने कल IMF की मदद पाकिस्तान की झोली में डाली थी?
और आज वही हमें अम्न का सबक़ सिखा रहा है?
क्या हमारे फ़ैसले अब भी दूसरों के इशारों पर होंगे?
क्या हमारे जवानों की शहादत का जवाब अब भी वाइट हाउस से आएगा?
ये ना मज़हब का सवाल है, ना पार्टी का।
ये सवाल है मज़लूमियत का, सवाल है मुल्क के वजूद का।
फ़ौज ने अपना फ़र्ज़ अदा किया।
बर्फ़ में, धूप में, मौत की आगोश में-हमारे जवान सरहद पर डटे रहे।
मगर क्या उनके जज़्बे का इनाम यही था?
एक सीज़फायर जो दिल्ली से नहीं, वॉशिंगटन की चौखट से जारी हुआ?
ये महज़ एक सियासी फ़ैसला नहीं,
बल्कि हमारी ख़्वाहिशों, जज़्बातों और उम्मीदों का कत्ल है।
अवाम देख रही है-
और इस बार वो सिर्फ़ देख नहीं रही, महसूस भी कर रही है।
उसकी आंखों में अब सवाल हैं-
तेज़, जलते हुए, और जवाब मांगते हुए।
क्या हर बार एक आम इंसान दहशतगर्दी का निशाना बनेगा?
क्या हर बार माएं अपने बेटों की तस्वीरें चूमकर सब्र पी जाएंगी?
क्या हमारी तक़दीर बस ताज़ियतों और शोक-संदेशों में लिपटी रहेगी?
और जब एक मुल्क की रूह में सवाल जनम लेते हैं,
तो जवाब ताख़ीर से नहीं, तहरीर से मिलते हैं।
अब ये महज़ एक जंग का मसला नहीं,
बल्कि हमारी ख़ुदमुख्तारी और सियासी इख़्तियार का इम्तिहान है।
क्या हिंदुस्तान अब भी अपने फ़ैसले दूसरों की मर्ज़ी से करेगा?
क्या हमारी सरहदों पर लहू बहने के बाद भी,
हमारी ज़बानें पराए इशारों की मोहताज रहेंगी?
क्या हमारी तहरीरें दूसरों के ट्विटर से लिखी जाएंगी?
नहीं! अब बहुत हो चुका।
भारत की अवाम अब महज़ ख़बरों की गवाह नहीं,
बल्कि इस दौर की तहरीर बन चुकी है।
अब वो सिर्फ़ सुनना नहीं चाहती-
वो जवाब चाहती है-
ख़ालिस, सच्चा, और इस मुल्क की पेशानी पर लिखा हुआ।
वो जवाब, जो किसी प्रवक्ता की मुस्कराहट में न हो-
बल्कि किसी सच्चे सिपाही की आंखों में चमकता नज़र आए।
अब वक़्त है कि हिंदुस्तान ये कहे-
“हम अम्न के हामी हैं, मगर अपनी शान पर ख़ामोश नहीं।
अगर कोई हमारी सरज़मीं पर नज़र डालेगा,
तो हम मुस्कुराएंगे नहीं-
बल्कि उसे आईना दिखाएंगे।”
और ये आईना अब दिल्ली या वॉशिंगटन नहीं,
बल्कि अवाम की आंखों में है-
जो सब देख रही है, सब समझ रही है,
और अब चुप रहने के मूड में नहीं है।
क्योंकि ये लड़ाई अब सरहदों की नहीं,
ज़मीर की है।
और जब ज़मीर जागता है-
तो इंक़लाब की ख़ामोश दस्तक हर दरवाज़े पर सुनाई देती है।
(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)