पहलगाम आतंकी हमले के बाद बने उत्तेजक और युद्धोन्मादी माहौल में मोदी सरकार ने देश में जातिवार जनगणना कराने का चौंकाने वाला फैसला लिया। केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में लिया गया जातिवार जनगणना का फैसला जितना दिलचस्प है, उतना ही विस्मयकारी है ! पर इसके ऐतिहासिक महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता।
इस फैसले में भारत-पाकिस्तान के बीच लगातार बढ़ता सरहदी तनाव और टीवीपुरम् के एंकरों-रिपोर्टरों व सत्ता-पक्ष के कुछ खास समर्थकों द्वारा फैलाया जा रहा युद्धोन्माद कुछ कम हो सकता है। इसके साथ ही सरकार का यह फैसला अगर सही ढंग से लागू किया गया तो इससे कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी के राजनीतिक तरकस का एक प्रमुख सत्ता-विरोधी तीर निष्रभावी भी हो सकता है।
हाल के दिनों में जातिवार जनगणना की मांग को राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय करने और एक बडा मुद्दा बनाने में राहुल गांधी के योगदान को स्वीकार करना होगा। अपने आपको सामाजिक न्याय की समर्थक कहने वाली कई पार्टियां और संगठन पिछले काफी समय से जातिवार जनगणना की मांग उठाती रहीं। इसके लिए धरना-प्रदर्शन और सेमिनार-कांफ्रेंस करती रहीं। जातिवार जनगणना की आवाज इन्हीं समूहों ने सबसे पहले उठाई। लेकिन एक राष्ट्रीय पार्टी के शीर्ष नेता के तौर पर जब से राहुल गांधी ने इसे अपने राजनीतिक अभियान का मुद्दा बनाया; यह मांग ज्यादा लोकप्रिय हुई और इसकी स्वीकार्यता बढ़ी। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और आर एस एस पर इसका दबाव बना।
पर मोदी सरकार पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय जनगणना कराने के बेहद जरूरी कार्यभार से बच रही थी। 2021 में भारतीय जनगणना होनी थी, वह कोविड-19 के कारण नहीं कराई गयी। उस समय भी विपक्ष का एक हिस्सा जातिवार जनगणना की आवाज उठा रहा था। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तब इस मांग के विरोध में थे। लंबे समय तक फैसला टलता गया। कोविड का दौर खत्म हो गया. सरकार के सारे काम होते रहे पर 2021 की जनगणना लगातार स्थगित होती रही। आजादी के बाद जनगणना में ऐसा विलम्ब कभी नहीं हुआ।
इस बीच जब से मुख्य विपक्षी पार्टी-कांग्रेस ने सपा, बसपा, राजद, द्रमुक, अन्नाद्रमुक और और भाकपा (माले) की तरह जातिवार जनगणना का समर्थन कर दिया; माहौल बदलने लगा। कांग्रेस और खासतौर पर राहुल गांधी ने इस मुद्दे को उठाकर भाजपा और मोदी सरकार की भारी फजीहत की। ‘पिछड़े प्रधानमंत्री’ के भाजपाई जुमले को राहुल ने एक तरह से ध्वस्त कर दिया। देखते ही देखते इस मुद्दे पर राहुल गांधी विपक्ष के किसी भी दल या नेता से आगे हो गये।
पिछड़े् वर्ग के कई प्रमुख नेताओं और सबाल्टर्न समूहों से भी ज्यादा शिद्दत के साथ उन्होंने जातिवार जनगणना का मुद्दा उठाना शुरू किया। कांग्रेस के संपूर्ण इतिहास में ऐसी पुरजोर मांग उठाने वाले वह पहले नेता बन गये। सिर्फ मंडल आयोग ही नहीं, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जमाने के काका कालेलकर आयोग ने भी जातिवार जनगणना कराने की जरूरत पर जोर दिया था। पर नेहरू से लेकर वाजपेयी तक; कांग्रेस या भाजपा की अगुवाई वाली किसी सरकार ने जातिवार जनगणना कराना उचित नहीं समझा।
सन् 2011 की राष्ट्रीय जनगणना में जातिवार गिनती कराने के अपने वायदे से कांग्रेस साफ मुकर गयी थी। इस मामले में यूपीए सरकार के तत्कालीन वरिष्ठ मंत्री प्रणव मुखर्जी और पी चिदम्बरम की सबसे प्रमुख भूमिका रही। वे मन से जातिवार जनगणना को मानने को कभी तैयार नहीं हुए। दोनों प्रभावशाली मंत्रियों ने मनमोहन सिंह सरकार को जातिवार जनगणना कराने से रोक दिया। स्वयं डाॅक्टर मनमोहन सिंह की भी इसमें ज्यादा रुचि नहीं थी।
वायदे के बावजूद 2011 में जब जातिवार जनगणना नहीं हुई तो यूपीए गठबंधन में शामिल ओबीसी और दलित नेताओं के दबाव के बाद मनमोहन सिंह सरकार ने 2012-13 के बीच एक जातिवार सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण(जो राष्ट्रीय जनगणना का हिस्सा नहीं था) कराया, जिसकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं हो सकी! यह रिपोर्ट इतनी वाहियात बताई गयी कि इसके आंकड़े सार्वजनिक करने से समाज में और समस्याएं पैदा होतीं।
हाल तक मोदी सरकार भी जातिवार जनगणना का मुखर विरोध करती रही। इसे न तो आर एस एस चाहता था और न ही भाजपा। कुछ महीने पहले ही प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वह तो सिर्फ चार ही जातियों को मानते हैं: गरीब, युवा, महिला और किसान! इसी तरह उनकी कैबिनेट के एक वरिष्ठ मंत्री नितिन गडकरी कहा करते थे कि जो जाति की बात करेगा; उसे वह कसकर लात मारेंगे! आर एस एस के संचालक तो शुरू से कहते आ रहे हैं कि वे सबको हिन्दू मानते हैं। जातिवार जनगणना का विचार गलत है।
पर 30 अप्रैल, 2025 को उसी मोदी सरकार ने जातिवार जनगणना कराने का फैसला लेकर सबको चकित कर दिया। वह भी यह फैसला ऐसे दौर में लिया गया, जब भाजपा समर्थकों के बड़े हिस्से और टीवीपूरम् में युद्धोन्माद छाया हुआ था।
यह बात सही है कि हाल के दो-तीन वर्षों में देश की राजनीति और हमारे समाज में जातिवार जनगणना के पक्ष में व्यापक सहमति उभरी थी। पर भाजपा और सरकार ने इस मांग को लगातार खारिज किया था। संसद में सरकार ने यहां तक कहा कि जातिवार जनगणना कराने से समाज में जातिवाद फैलेगा। बंगाल की सत्ताधारी पार्टी-TMC भी इसके पक्ष में नहीं थी। इंडिया एलायंस की एक बैठक में ममता बनर्जी ने राहुल गांधी के इस खास एजेंडे पर अपनी असहमति जताई थी।
लेकिन आर एस एस लगातार इस मुद्दे पर समाज के अंदर चल रहे मंथन का जायजा ले रहा था। इसका पहला संकेत तब मिला, जब उसने कुछ महीने पहले पहली बार जातिवार जनगणना की मांग पर अपने विचारों में कुछ मुलायमियत दिखाई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रवक्ता ने पहली बार ‘अगर-मगर’ के साथ जातिवार जनगणना कराने पर अपनी सहमति का संकेत दिया था। साफ लगा था कि समाज में बढते दबाव के चलते संघ के नेतृत्व ने उक्त बयान दिया।
केरल के पाल्लकाड में आयोजित अपने सम्मेलन के बाद संघ नेतृत्व ने 2 सितम्बर, 2024 को यह महत्वपूर्ण बयान जारी किया। हालांकि संघ के बयान में स्पष्टता कम थी, असमंजस ज्यादा था। दिलचस्प है कि अभी हाल ही में संघ प्रमुख मोहन भागवत दिल्ली में थे और भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से उनकी चर्चा भी हुई थी। माना जा रहा था कि संघ प्रमुख ने भाजपा नेतृत्व से भारत-पाकिस्तान टकराव के संदर्भ में कुछ चर्चा की होगी! पर अब तो यह साफ लग रहा है कि भारत-पाक टकराव के उत्तेजक माहौल को कुछ शिथिल और हल्का करने की रणनीति पर संघ सर संचालक ने भाजपा नेतृत्व से चर्चा की होगी।
संभवत: जातिवार जनगणना के फैसले के ऐलान के लिए इसे माकूल मौका माना गया होगा। ऐसे दौर में जब पहलगाम आतंकी हमले से उत्पन्न परिस्थितियों में देश का राजनीतिक परिदृश्य बिल्कुल बदला हुआ सा था और समाज व सियासत में युद्धोन्माद को बढ़ावा दिया जा रहा था; अचानक सरकार ने अपने फैसले का ऐलान कर दिया।
यह फैसला जितना चौंकाने वाला है, राजनीतिक रूप से उतना ही दिलचस्प है! निश्चय ही देश के राजनीतिक परिदृश्य पर इसका प्रभाव दिखेगा! सबसे पहले तो बिहार विधान सभा के चुनाव में भाजपा इसका भरपूर फायदा उठाने की कोशिश करेगी। बिहार में लंबे समय से जातिवार जनगणना की मांग उठती रही है। इस मकसद को हासिल करने के लिए कुछ साल पहले जेडी-यू और राजद की महागठबंधन सरकार ने प्रांतीय स्तर पर एक जातिवार सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण कराया था, जिसकी एक भी सिफारिश आज तक लागू नहीं की जा सकी।
आरक्षण का दायरा बढ़ाने जैसी सिफारिशों को मौजूदा सत्ताधारी गठबंधन में शामिल भारतीय जनता पार्टी ने बिल्कुल पसंद नहीं किया। नीतीश कुमार की सरकार ने केंद्र से अनुरोध किया था कि आरक्षण सम्बन्धी उसके नये फार्मूले को संविधान की नौवीं सूची में शामिल किया जाय पर मोदी सरकार ने नीतीश की मांग अनसुनी कर दी।
अब उसी मोदी सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर जाति-वार जनगणना कराने का फैसला किया है। निश्चय ही यह एक महत्वपूर्ण फैसला है; बशर्ते इसे स्पष्टता और ईमानदारी के साथ अंजाम तक पहुंचाया जाय! 1931 के बाद देश में पहली बार राष्ट्रीय जनगणना के साथ लोगों की जातिवार गिनती होगी! इसमें बिहार के जातिवार सर्वेक्षण की तरह देश की सभी जातियों की गिनती को अनिवार्य किया जाना चाहिए। पर याद रहे, इसमें हजारों-हजार उपजातियों की जाति के तौर पर गिनती करके जनगणना के आंकड़ों को बेमतलब बनाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।
विपक्ष के नेता राहुल गांधी का यह कहना सही है कि जनगणना का कार्यक्रम समयबद्ध होना चाहिए। बिहार के जातिवार सर्वेक्षण के नतीजों की तरह इसे कागजी, नुमाइशी या आंकडों की किताब भर नहीं होना चाहिए। इसके आंकड़ों के अध्ययन के बाद वंचित समूहों और जातियों के कल्याणार्थ ठोस फैसले लिये जाने चाहिए। तभी जातिवार जनगणना का मकसद पूरा होगा।
इससे समता और सामाजिक-आर्थिक न्याय के संवैधानिक मूल्यों को सुदृढ़ किया जा सकेगा। सामाजिक आर्थिक न्याय के मामले में भारतीय जनता पार्टी के अनुदार विचार और पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए यह सवाल उठना लाजिमी है कि 2025 में घोषित जातिवार राष्ट्रीय जनगणना के भावी आंकड़ों का उसकी सरकार क्या सामाजिक न्याय और ‘सकारात्मक कार्रवाई’ के लिए इस्तेमाल करेगी?
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं)
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