अफसर और राजनयिक तो आ गए अफगानिस्तान में फंसे 2000 भारतीयों का क्या होगा?

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17 अगस्त, 2021 को 148 लोगों को लेकर जब एयर इंडिया का विमान जामनगर उतरा तो उसकी तस्वीरें और वीडियो को बार-बार दिखा कर दलाल मीडिया ने आम जनता में ये मेसेज देने की कोशिश की कि नरेंद्र मोदी सरकार ने कोई बहुत बड़ा तीर मार लिया है। जबकि केंद्र सरकार ने जिन 148 लोगों को सुरक्षित बाहर निकाला उनमें अधिकतर भारतीय दूतावास में काम करने वाले अधिकारियों, स्टाफ, सुरक्षाकर्मियों को वापस लाया गया है। जबकि अफ़ग़ानिस्तान के अन्य हिस्सों में फंसे भारतीयों और काबुल में फंसे कई फैक्ट्री वर्कर और अन्य लोगों द्वारा बीते दिन सरकार से गुहार लगाई गई थी। गौरतलब है हिमाचल, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड, बंगाल, उत्तराखंड और दिल्ली समेत अन्य कई इलाकों से लोग अफ़ग़ानिस्तान में काम के मकसद से वहां पर गए हुए थे।

समाचार एजेंसी ANI के मुताबिक, विदेश मंत्रालय द्वारा अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों के लिए हेल्पलाइन नंबर, ई-मेल आईडी आदि जारी किए गए थे। जिसके माध्यम से क़रीब 1650 भारतीयों ने वतन वापसी के लिए काबुल स्थित भारतीय दूतावास में मदद की गुहार लगाई है। ये संख्या अभी और बढ़ भी सकती है।

भारत में नरेंद्र मोदी सरकार की अफ़ग़ानिस्तान के बदलते घटनाक्रमों के अनुमान और तार्किक, रणनीतिक और कूटनीतिक प्रतिक्रिया को लेकर सवाल खड़े हुए हैं।

एक राजनयिक ने ‘द टेलिग्राफ़’ से कहा, “हमने अपने राजनयिकों, अधिकारियों और नागरिकों को पहले ही अफ़ग़ानिस्तान से बाहर क्यों नहीं निकाला? हर कोई जानता था कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से बाहर जा रहा है और तालिबान वापस आ रहा है, हम क्या सोच रहे थे? हमने वो क्यों नहीं किया जो हमें करना चाहिए था। हमें तालिबान के ट्रैफ़िक कंट्रोलर्स की दया पर ऐसे आख़िरी समय में निकलने की ज़रूरत क्यों पड़ी? और जो भारतीय अब भी अफ़ग़ानिस्तान में फंसे हुए हैं उनके लिए हम क्या करने जा रहे हैं?”

राजनयिक ने द टेलीग्राफ अख़बार से कहा कि पिछले कुछ दिनों में भारत की विदेश नीति की इतनी ख़राब स्थिति चिंता पैदा करने वाली है।

राजनयिक ने आगे कहा, “हमें अपने पड़ोस में अचानक ही एक गंभीर रणनीतिक झटका मिला है और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमने जो होने वाला है उससे अपनी आंखें मूंद ली थीं। हमने अमेरिका को स्थिति का ग़लत आकलन करने दिया और हमें अपने राष्ट्रीय हित में क्या करना चाहिए था उसे नज़रअंदाज़ किया। अमेरिकी जा रहे थे, हम पीछे छूट रहे थे।”

अफ़ग़ानिस्तान में पूर्व राजदूत विवेक काटजू इस पर और खुलकर कहते हैं, “मैं पिछले कई सालों से बोल रहा हूं कि हमें तालिबान के साथ बात करनी चाहिए। इसकी ज़रूरत और तब बढ़ गई जब सभी को ये अंदाज़ा हो गया कि तालिबान का कब्ज़ा होने वाला है। अमेरिकी उनसे बात कर रहे थे तो हम क्यों नहीं? दूसरों ने भी ये सलाह दी थी, लेकिन मौजूदा विदेशी नीति निर्माताओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया।” दरअसल अफ़ग़ानिस्तान पर भारत सरकार का स्टैंड क्या है? अभी तक यही स्पष्ट नहीं हो सका है।

क्या पूरा खुफिया विभाग देश के नागरिकों की जासूसी में लगा दिया गया था

मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से लगातार देश का खुफिया विभाग समय रहते चेताने में नाकाम हुआ है। पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता परिवर्तन हो गया और सरकार और खुफिया विभाग के कानों तक पर जूँ नहीं रेंगा कि हमारे जो लोग वहां हैं उन्हें समय रहते बुला लिया जाता। 

और सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान मामला ही क्यों? पिछले साल चीन लद्दाख में डेप्सांग, गोगरा हॉट स्प्रिंग और पेंगोंग झील तक चढ़ आया और भारत सरकार को कानों कान ख़बर न हुयी। पुलवामा में आतंकियों ने 47 जवानों को शहीद कर दिया, उरी और पठानकोट में सेना के मुख्यालय में आतंकी घुसकर चले आये और सरकार और उसकी खुफियां एजेंसियां सोती रहीं।

आखिर मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद लगातार हमारी खुफिया एजेंसियां फेल क्यों होने लगीं। क्या सरकार ने सारी खुफिया एजेंसियों को उनके मुख्य काम से हटाकर देश के नागरिकों की जासूसी करने में लगा दिया गया।

पेगासस जासूसी सिर्फ़ नागरिकों के दमन उत्पीड़न के लिए है। राष्ट्र की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता से जहां सचमुच ख़तरा है, वहां भारत के खुफिया तंत्र की पहुंच है ही नहीं। शर्मनाक है कि हम नहीं जानते कि भारत सरकार की अफ़ग़ानिस्तान नीति अमेरिकी नीति से अलग क्या है।

तिस पर तुर्रा ये कि पेगासस जासूसी मामले की स्वतंत्र जांच कराने की मांग से संबंधित याचिकाओं पर केंद्र सरकार सुप्रीमकोर्ट में दलील देती है कि हलफ़नामे में सूचना की जानकारी देने से राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा जुड़ा है।

(जनचौक ब्यूरो की रिपोर्ट।)

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