सिंदूर के नाम पर वोट की राजनीति क्यों? 

पहली बार लग रहा है कि शासक दल घबराया हुआ है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि ऊंट किस करवट बैठेगा, क्योंकि पहलगाम के बाद जो युद्धोन्माद का माहौल बनाया गया था, अचानक अमेरिका प्रायोजित सीज़फायर के चलते फुस हो गया, जैसे कि किसी बड़े गुब्बारे में सुई चुभो दी गयी हो. जनता का एक बड़ा हिस्सा समझ ही नहीं पाया कि परस्पर विरोधी बातों में से कौन सी सही है और कौन सी केवल प्रचार। क्या भारत और पाकिस्तान ने आपस में बात करके मामले को सुलझा लिया, या कि ट्रम्प का हस्तक्षेप निर्णायक रहा? 

क्या ‘दुश्मन के घर में घुसकर’ आतंकवादियों के 28 ठिकाने नेस्तनाबूत कर दिये गये? क्या पाकिस्तान के 11 एयर बेसेज़ नष्ट हो गये? क्या पाकिस्तान के नागरिक इलाकों पर हमला हुआ? क्या भारत के हवाई विमान गिराए गये? क्या न्यूक्लियर युद्ध का खतरा उमड़ रहा था? यह सब पता लगाना बेहद मुश्किल है, क्योंकि युद्ध के माहौल में हर देश को अपने शौर्य की गाथाएं बढ़ा-चढ़ाकर लिखनी होती हैं, और दुश्मन का मनोबल गिराना होता है। इसलिये इन बातों पर चर्चा करना समय की बर्बादी है। हम कभी सच्चाई जान नहीं पायेंगे।

पर कुछ बातें साफ हैं- यह कि पहलगाम में सुरक्षा व्यवस्था लचर नहीं, पूरी तरह गायब थी; और इसे सरकार ने सर्वदलीय बैठक में स्वीकारा भी!

शांति की बात करना और सवाल उठाना अपराध?

इसलिये, जिस समय गोदी मीडिया युद्धोन्माद भड़काकर टीआरपी बटोर रही थी, भारत और पाकिस्तान की नारीवादियों ने शांति के लिये ज़बर्दस्त पहल की थी। उन्होंने अपने बयान में कहा, “जब सिंदूर एक युद्ध घोष बन जाता है, तो यह दर्द को मिटाकर उसे हथियार बना देता है, और महिला को शरीर में तब्दील देता है जिस पर विजय, हिंसा और बलात्कार की पुरुषवादी राष्ट्रवादी कल्पनाएं आरोपित की जाती हैं।…”हम युद्ध अर्थव्यवस्था की निंदा करते हैं, जो हिंसा और विनाश पर पनपती है, और गहरे पैठे पितृसत्तात्मक संरचनाओं की भी, जो इसे ईंधन देती हैं। युद्ध कभी भी समाधान नहीं हो सकता। हम हिंसा को बनाए रखने वाली शक्ति संरचनाओं को खत्म करने की मांग करते हैं। युद्ध का तर्क, जो राष्ट्रवाद, विषाक्त पुरुषत्व और औपनिवेशिक युग की सीमाओं में निहित है, को अस्वीकार किया जाना चाहिए।” 

यह बयान युद्ध और पितृसत्तात्मक संरचनाओं के खिलाफ एक मजबूत संदेश देता है, और शांति और समानता की मांग करता है। यह हिम्मत बहुत बड़ी बात है, क्योंकि राजनीतिक दलों में भाकपा (माले) को छोड़कर कोई भी बड़ी राजनीतिक ताकत इतनी भी हिम्मत नहीं कर पा रही थी कि शांति की बात कर सके; और शांति के लिये कूटनीतिक पहल की वकालत करे। एक तरफ से सभी दल सरकारी नैरेटिव के पक्ष में गोलबंद हो गये…..शायद इस डर से कि उन पर “देशद्रोही” का मुलम्मा न चिपक जाये। दूसरी ओर मामला यहां तक पहुंच गया कि जब सैनिक अभियान को आपरेशन सिंदूर का नाम दे दिया गया, जिसकी घोषणा दो महिलाओं, कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह के माध्यम से करायी गयी। 

तत्काल कोई आवाज़ नहीं उठी कि आतंकवाद-विरोधी अभियान महिलाओं के नाम से क्यों चलाया जा रहा था? क्यों एक हिंसक राष्ट्रवादी अभियान को शांतिप्रिय नारियों पर थोपा जा रहा है? क्या लोगों को इस तरह गोलबंद करना आसान होता? यह तो समय ही बतायेगा। फिर घर-घर सिंदूर भेजने की घोषणा हुई; इस बार कांग्रेस पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने प्रेस वार्ता करके अपना कड़ा विरोध दर्ज़ किया। दूसरी ओर जिन महिलाओं ने, जैसे नेहा सिंह राठौर, प्रो. माद्री काकोटी और व्यंगकार शमिता यादव उर्फ द ‘रैंटिंग गोला’ने सवाल उठाया, या अशोका विश्वविद्यालय के प्रो. अली खान महमूदाबाद ने टिप्पणी की, तो उन पर तुरंत एफआईआर कर कार्यवाही शुरू कर दी गयी। आखिर इतना भय क्यों? क्या लोकतंत्र में सवाल उठाना अपराध है?

यह कौन सा महिला सशक्तिकरण?

हम समझना चाहेंगे कि इस बार युद्ध के पूरे अभियान को एक नारीवादी चेहरा क्यों दिया जा रहा है, और वहीं से सिंदूर और नारी सशक्तिकरण को लेकर एक नैरेटिव क्यों गढ़ा जाने लगा है? क्या बाकी सारी रणनीतियां फेल हो गयीं? सबसे पहले लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की नव-विवाहिता पत्नी हिमांशी नरवाल की एक तस्वीर, जिसमें वह लाल चूड़ियां पहने अपने पति के शव के पास शोकाकुल अवस्था में बैठी थीं, वायरल हो गयी; फिर सभी समाचार चैनेल उसके ज़रिये लोगों में बदले की भावना जगाने लगे, उन्हें उकसाने लगे। यह एक अत्यंत संवेदनहीन कृत्य था, जिसमें हिमांशी की निजता का ज़रा भी ख्याल नहीं रखा गया। 

पर वही हिमांशी जब कहने लगीं कि वह नहीं चाहतीं कि मुसलमानों और कश्मीरियों पर हमला हों; वह सिर्फ न्याय चाहती हैं और उन लोगों को सज़ा, जो हत्यारे हैं, तो हिमांशी के खिलाफ चरित्र हनन का अभियान शुरू हो गया। यह इसलिये कि किसी महिला का उपयोग करना तो आसान है, पर जब वह दक्षिणपंथी नैरेटिव में फिट होने से इंकार कर देती है, उसकी उपस्थिति खटकने लगती है। इसी तरह मध्य प्रदेश सरकार का एक मंत्री विजय शाह जब कर्नल कुरैशी को “आतंकियों की बहन” कहता है, उसके खिलाफ शासक दल और उसका महिला आयोग कोई कार्यवाही नहीं करते। 

अब तक भी शाह मंत्री पद पर काबिज हैं। हमें आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि हम पहले भी देख चुके हैं कि महिला पहलवानों के विरुद्ध और बृजभूषण शरण सिंह के बचाव में किस तरह एड़ी चोटी का दम लगाया गया था। यही बात हमने आईआईटी बीएचयू की छात्रा के मामले या कुलदीप सिंह सेंगर तथा बिल्किस बानो मामले के अपराधियों के केस में देखा था। आखिर, यह महिला 

सशक्तिकरण का कौन सा मॉडल है? 

अलग-अलग तरीकों से हिंदू महिलाओं का इस्तेमाल

प्रधानमंत्री ने भोपाल में महारानी अहिल्याबाई होल्कर की 300वीं जयंती पर उनके कार्य का महिमामंडन किया- शायद इसलिये कि वह धनगर अति पिछड़ी जाति की थीं और सोशल इंजीनियरिंग के काम आ सकती हैं। पर भाषण का केंद्रीय विषय था आपरेशन सिंदूर। उन्होंने कहा, “भारत संस्कृति और संस्कारों का देश है। और ये सिंदूर हमारी परंपराओं में नारी शक्ति का प्रतीक है। राम भक्ति में रंगे हनुमानजी भी सिंदूर को ही धारण किए हैं। शक्ति पूजा में सिंदूर अर्पण करते हैं। यही सिंदूर अब भारत के शौर्य का प्रतीक बना है। साथियों, पहलगाम में आतंकियों ने सिर्फ भारतीयों का ही खून नहीं बहाया, उन्होंने हमारी संस्कृति पर भी प्रहार किया। उन्होंने हमारे समाज को बांटने की कोशिश की है। 

सबसे बड़ी बात आतंकियों ने भारत की नारी शक्ति को चुनौती दी है। ये चुनौती आतंकियों और उनके आकाओं के लिए काल बन गई है।“ अब सवाल उठता है कि भारत की पहचान तो उसकी गंगा-जमुनी तहज़ीब से है, उसकी सहिष्णुता और वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत से है। पर आज जिस “संस्कृति” की बात की जा रही है, वह ‘हिंदुत्ववादी, मनुवादी पितृसत्तात्मक संस्कृति’ है, जो भारत के विभिन्न समुदायों के बीच दरार और आपसी नफरत पैदा करने की बात कर रही है। हर कोई जानता है कि आतंकवादियों का कोई धर्म, कोई जाति नहीं होती। पर पहलगाम हमले के बाद पूरे देश में भारतीय, विशेषकर कश्मीरी मुसलमानों पर जगह-जगह हमले होने लगे। 

गृह मंत्रालय इस पर मौन धारण किये रहा, और भाजपा नेता और गोदी मीडिया लगातार मुस्लिम-विरोधी प्रचार में लगे रहे…यहां तक कि सोशल मीडिया में अगर कोई शांति की बात करता, उसे देशद्रोही और पाकिस्तानी एजेण्ट का नाम से नवाज़ा जाता और पाकिस्तान जाने को कहा जाता। 

जब कहा जाता है कि “सिंदूर हमारी परंपराओं में नारी शक्ति का प्रतीक है…..सिंदूर अब भारत के शौर्य का प्रतीक बना है” तो हमारे दिमाग में प्रश्न उठता है- सिंदूर आखिर कितनी प्रतिशत महिलाओं के लिये विवाह का प्रतीक चिन्ह है? वह हिंदू औरतों के एक हिस्से के लिये प्रतीक ज़रूर है, पर सिख, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, आदिवासी, दक्षिण भारतीय, नास्तिक या गैर-परम्परावादी, और नारीवादी  महिलाओं के लिये कभी भी वैवाहिक अनुष्ठान का हिस्सा नहीं रहा। क्या ये औरतें हमारे देश का हिस्सा नहीं हैं? क्या उनका जीवन शौर्य-रहित है? वे इस अभियान से कैसे जुड़ेंगी? क्या यह उन्हें विभाजनकारी नहीं लगेगा? क्या एकल, परित्यक्ता, विधवा महिलाएं, या एलजीबीटीक्यू लोग इस समाज का हिस्सा नहीं हैं?

सिंदूर वाले नैरेटिव के ज़रिये उन्हें अलगाव में क्यों डाला जा रहा है। कई महिला आंदोलन की प्रवक्ताओं का तो शुरू से यह मत रहा कि यह चिन्ह पितृसत्तात्मक विचारधारा का हिस्सा है, जिसमें औरत को पुरुष की सम्पत्ति का हिस्सा माना जाता है। जो भी हो, यदि कोई औरत सिंदूर का उपयोग करना चाहती है, तो यह उसकी व्यक्तिगत पसंद का मामला हो सकता है- जो उसके पति और उसके बीच के सम्बंध का प्रतीक होगा; पर यह तो हास्यास्पद होगा कि इसे लेकर कोई देश-व्यापी अभियान चलाया जाए। और, जहां तक आतंकियों के नारी शक्ति को चुनौती देने की बात है, बल्कि उन्होंने हमारी सुरक्षा व्यवस्था को चुनौती दी है; महिलायें सिर्फ भुक्तभोगी रही हैं! अब तो आपरेशन सिंदूर पर निबंध प्रतियोगिता आयोजित करायी जा रही है, जिसमें पुरस्कार और 15 अगस्त समारोह में पास देने की बात हो रही है! शिक्षा के राजनीतिकरण से बचना होगा।

ठीक ऐसी ही योजना बनायी गयी थी कि 9 जून से घर-घर सिंदूर वितरण का अभियान शुरू होगा। पर उसके शुरू होने से पहले उसका मखौल बन गया, जब सोशल मीडिया वीडियोज़ में औरतें गुस्से में सवाल करते हुए दिखीं कि कोई गैर-पुरुष उन्हें सिंदूर कैसे दे सकते हैं? ममता बनर्जी ने तो यहां तक कह डाला कि “पीएम पहले अपनी मिसेज़ को सिंदूर दें”! एक समाचार विश्लेषक, जो जाति से पंडित हैं, ने पूछा, “आखिर यह क्यों कहा जा रहा है कि हनुमान जी का और मां काली का भी सिंदूर से शृंगार होता है? 

हिंदू धार्मिक लोग तक समझ रहे हैं कि यह उनकी आस्था का मामला है, जिसे आज वोट की राजनीति के लिये इस्तेमाल किया जा रहा है। क्या देश के प्रधान का इन प्रतीकों को इस तरह हल्का बनाना शोभा देता है?” बैक लैश के डर से 2 दिन बाद ही घर-घर सिंदूर अभियान को यह कहकर वापस ले लिया गया कि वह झूठा प्रचार था….ऐसी कोई योजना थी ही नहीं। फिर भी, सिंदूर की कहानी खत्म नहीं हुई है। महिला संगठनों और आंदोलनकर्ताओं को भगवा ब्रान्ड के महिला सशक्तिकरण का मुकाबला करना होगा। वरना साध्वी ऋतम्भरा जैसी नफरत भड़काने वाली महिलाएं पद्मश्री से नवाज़ी जायेंगी और गुलफिशां जैसी होनहार बेटी जेल के सींखचों में तड़पती रहेंगी।

(कुमुदिनी पति लेखिका और एक्टिविस्ट हैं।)

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