प्रसार भारती और पीटीआई के दफ्तर।

प्रसार भारती पीटीआई को धमका क्यों रही है ?

अभी आपातकाल की 45वीं बरसी को दो-तीन दिन भी नहीं बीते जब हमारे ‘नेशनल ब्राडकास्टर’ प्रसार भारती ने इस देश की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी पीटीआई (प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया) को धमकी भरा पत्र भेजकर ‘अघोषित आपातकाल’ का व्यावहारिक एहसास करा दिया है। पीटीआई का ‘गुनाह’ सिर्फ इतना भर है कि उसने लद्दाख में चीन की घुसपैठ, गलवान घाटी और आस-पास के इलाकों में वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय हिस्से की तरफ कब्जा जमाने और वहां भारतीय सेना की बिहार रेजीमेंट के 20 जवानों की शहादत आदि की पृष्ठभूमि में अपने पत्रकारीय दायित्वों का निर्वाह करते हुए नई दिल्ली में चीन के राजदूत सुन वेईडोंग (Sun Weidong) और चीन की राजधानी बीजिंग में भारत के राजदूत विक्रम मिस्री के इंटरव्यू प्रसारित कर दिए। इसमें कुछ भी गलत नहीं था लेकिन दोनों इंटरव्यू से लद्दाख में चीन की घुसपैठ को लेकर भारत सरकार और खासतौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावे खंडित हो रहे थे।

इसको लेकर सत्ता के गलियारों में खलबली मची और पीटीआई के दुनिया भर में 400 से अधिक बड़े ग्राहकों में से सबसे बड़ा कहे जाने वाले प्रसार भारती ने शनिवार को पीटीआई के मार्केटिंग विभाग को पत्र लिखकर कहा कि लद्दाख प्रकरण में पीटीआई का रवैया और खासतौर से उसके इंटरव्यूज देश द्रोह की तरह के हैं। पीटीआई की देश विरोधी रिपोर्टिंग के कारण उसके साथ अपने संबंध जारी रख पाना संभव नहीं लगता। पुनर्विचार संभव है। गौरतलब है कि भारत सरकार से वित्त पोषित प्रसार भारती से पीटीआई को प्रति वर्ष करोड़ों रुपये का भुगतान होता है। जाहिर सी बात है कि प्रसार भारती और उसके पीठ पीछे सक्रिय लोग पीटीआई से प्रसारित होने वाले समाचारों को मनमुआफिक देखना चाहते हैं।

इसी तरह की कोशिश तो आपातकाल में इंदिरा गांधी और उनकी सरकार ने भी की थी। सत्तर के दशक के मध्यार्ध में खासतौर से 1974 के जेपी आंदोलन, इलाहाबाद हाईकोर्ट के श्रीमती गांधी के चुनाव को रद्द करने के फैसले के बाद मीडिया, समाचार एजेंसियों की कवरेज, श्रीमती गांधी को पद त्याग करने के सुझाव स्वरूप लिखे गये संपादकीय आदि को लेकर श्रीमती गांधी और उनके दरबारी बहुत नाखुश थे। उस समय देश में चार बड़ी समाचार एजेंसियां थीं- पीटीआई, यूएनआई, हिन्दुस्तान समाचार और समाचार भारती। चारों एजेंसियां एक दूसरे से होड़ में अलग-अलग समाचार जारी करती थीं। तत्कालीन सत्ता को लगा कि चारों एजेंसियों को एक में विलीन कर देने से सूचना-संवाद को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है।

शुरू में कोई इसके लिए तैयार नहीं हुआ। तब इसके लिए समाचार एजेंसियों पर दबाव बनाया गया। उस समय प्रसार भारती तो था नहीं लेकिन तब भी आकाशवाणी और दूरदर्शन तथा सरकारी विभाग समाचार एजेंसियों के सबसे बड़े ग्राहक (सब्सक्राइबर) थे। सरकार की तरफ से न सिर्फ एजेंसियों की सेवा लेना बंद करने बल्कि उनके पुराने बकायों का भुगतान रोक कर उन्हें आर्थिक रूप से पंगु बना देने की धमकियां दी गईं। उसके बाद ही चारों एजेंसियों को आपस में विलीन कर एक एजेंसी ‘समाचार’ बनाई गई थी। इसके साथ ही पूरे आपातकाल के दौरान प्रेस पर सेंसर शिप के जरिए अंकुश लगाने आदि की बातें हुई थीं जिस पर अलग से लिखा जा सकता है।  

अभी भी तो यही हो रहा है। यानी कहने को आपातकाल नहीं है लेकिन काम सारे वही हो रहे हैं! पीटीआई (यूएनआई और हिन्दुस्तान समाचार का हाल पहले से बुरा है) को आर्थिक रूप से पंगु बनाकर एक तरफ तो उसे भी ‘हिज मास्टर्स वायस’ बनाया जा सकता है, अन्यथा उसकी जगह सरकार की किसी और ‘हिज मास्टर्स वायस’ समाचार एजेंसी को मजबूत बनाने की कोशिश हो सकती है।

लेकिन ताजा संदर्भ में प्रसार भारती की धमकी से यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अब यह सरकार या उसके द्वारा वित्त पोषित प्रसार भारती के लोग तय करेंगे कि अखबार, समाचार एजेंसी और टीवी चैनल किसका इंटरव्यू करेंगे और किसका नहीं। इसके आगे अब यह भी ये लोग ही तय करेंगे कि कौन सा समाचार छपेगा या प्रसारित होगा और कौन नहीं। इस मामले पर भारत सरकार (प्रेस इन्फार्मेशन ब्यूरो) से मान्यता प्राप्त पत्रकारों के संगठन ‘प्रेस एसोसिएशन’ और ‘इंडियन वूमेन प्रेस कार्प्स’ ने भी बयान जारी किया है।

दोनों संगठनों ने कहा है कि पीटीआई के प्रति प्रसार भारती के रवैये से उन्हें गहरी निराशा हुई है। जबकि सच्चाई यह है कि पीटीआई केवल अपना कर्तव्य निभा रही थी। एक ऐसे समय में जबकि चीनी भारतीय क्षेत्र में घुस आए हैं तो एक पत्रकार के तौर पर यह उसकी जिम्मेदारी हो जाती है कि वह दूसरे पक्ष से और इस मामले में चीनी सरकार के प्रतिनिधि से पूछे कि ऐसा क्यों हो रहा है।

यह साक्षात्कार सभी के लिए एक खबर था। क्योंकि पहला किसी चीनी अधिकारी ने आधिकारिक रुप से इस बात को स्वीकार किया कि उसके पक्ष से भी जान का नुकसान हुआ है। यह विडंबनापूर्ण है कि इमरजेंसी की 45वीं बरसी मनाने के चंद घंटे बाद ही पीटीआई के साथ यह घटना घटी। हालिया पीटीआई की कवरेज को राष्ट्रीय हितों और भारत की भौगोलिक अखंडता को दरकिनार करने वाला बताए जाने से ऐसा लगता है कि अधिकारी एक स्वतंत्र, वस्तुपरक और निष्पक्ष मीडिया की प्रशंसा करने में नाकाम रहे हैं जो किसी भी लोकतंत्र के लिए मर्मस्थल होता है।

(लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के सदस्य हैं। आप आपातकाल के दौरान जेल में भी बंद थे। )

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