क्या ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोपरि’ का सिद्धांत औरों पर भी लागू होगा योर ऑनर!

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उच्चतम न्यायालय ने अर्णब गोस्वामी की अंतरिम जमानत पर रिहाई को न्यायोचित ठहराते हुए कहा है कि आपराधिक कानून नागरिकों के चयनात्मक उत्पीड़न के लिए एक उपकरण नहीं बनना चाहिए। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने आज विस्तृत फैसला सुनाया और टिप्पणी की कि एक दिन के लिए स्वतंत्रता से वंचित रखना एक दिन से भी बहुत अधिक है।

कहने और सुनने में तो यह सिद्धांत बहुत कर्णप्रिय है योर ऑनर, पर लाख टके का सवाल यह है कि ऐसा केवल अर्णब गोस्वामी के मामले में ही देखने को मिला, जबकि केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन, कश्मीर के पत्रकार, भीमा कोरेगांव मामले में जेल में बंद बुद्धिजीवियों और सरकार की आलोचना करने या कमियां दिखाने पर राजद्रोह जैसे औपनेवेशिक कानून में जेल में बंद किए जाने वालों के मामले में इसके उल्टा होता है और उच्चतम न्यायालय से भी समय से न्याय नहीं मिलता।     

पीठ ने अर्णब गोस्वामी को आत्महत्या के लिए उकसाने के दो साल पुराने एक मामले में दी गई अंतरिम जमानत की मियाद शुक्रवार को बढ़ा दी। पीठ ने मामले की मेरिट पर भी टिप्पणी करते हुए कहा कि महाराष्ट्र पुलिस की ओर से दर्ज एफआईआर का प्रथम दृष्टया मूल्यांकन अर्णब के खिलाफ आरोप स्थापित नहीं करता है।

अब इस पर भी सवाल है कि जिन पत्रकारों पर राजद्रोह जैसी धाराएं लगाकर गिरफ्तारियां की गई हैं क्या उनके भी मामलों में उच्चतम न्यायालय एफआईआर का प्रथम दृष्टया मूल्यांकन करेगा और उनकी पर्सनल लिबर्टी का सम्मान करेगा? पीठ ने कहा कि प्राथमिकी पर एक प्रथम दृष्टया मूल्यांकन कर राय बनाने में विफल बॉम्बे हाई कोर्ट ने स्वतंत्रता के रक्षक के रूप में अपने संवैधानिक कर्तव्य और कार्य को नहीं निभाया।

हाई कोर्ट के पास अनुच्छेद 226 को लागू करने वाली याचिका में अंतरिम आदेश द्वारा नागरिक की रक्षा करने की शक्ति है। पीठ ने कहा कि न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि आपराधिक कानून के उचित प्रवर्तन में बाधा न हो, यह सुनिश्चित करने हुए सार्वजनिक हित को सुरक्षित रखें। जिला अदालतों, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय का कर्तव्य है कि वे यह सुनिश्चित करें कि आपराधिक कानून नागरिकों के चयनात्मक उत्पीड़न के लिए एक हथियार न बनें।

नागरिकों को मौलिक अधिकारों की गारंटी देने में अदालतों की भूमिका को उचित ठहराते हुए, पीठ ने कहा कि हमारी अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे नागरिकों की स्वतंत्रता से वंचित होने के खिलाफ रक्षा की पहली पंक्ति बने रहें। पीठ ने राजस्थान राज्य, जयपुर बनाम बालचंद में दिए गए फैसले पर भरोसा किया और कहा कि मामले में, न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने हमें याद दिलाया कि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली का मूल नियम बेल है, जेल नहीं है। जमानत का उपाय न्याय प्रणाली में मानवता की एक पूर्ण अभिव्यक्ति है। हमने उस मामले में अपनी पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है जहां नागरिक ने अदालत का दरवाजा खटखटाया है।

पीठ ने जस्टिस वीके कृष्ण अय्यर द्वारा स्थापित ‘जमानत नियम है और जेल अपवाद है’ पर विस्तार से बताते हुए कहा है कि उच्च न्यायालयों पर बोझ पड़ता है। विफलता की संभावना बहुत बड़ी है और आरोपी अंडर ट्रायल के रूप में नष्ट हो जाता है।

पीठ ने यह भी कहा कि न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आपराधिक कानून नागरिकों का चुनिंदा तरीके से उत्पीड़न करने के लिए हथियार न बने। पीठ ने अर्णब गोस्वामी को 11 नवंबर को जमानत दे दी थी। पीठ ने कहा कि अगर किसी की निजी स्वतंत्रता का हनन हुआ हो तो वह न्याय पर आघात होगा। पीठ ने कहा, ‘उन नागरिकों के लिए इस अदालत के दरवाजे बंद नहीं किए जा सकते, जिन्होंने प्रथम दृष्टया यह दिखाया है कि राज्य ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया।’ साथ ही कहा कि एक दिन के लिए भी किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीनना गलत है।

पीठ ने कहा कि जमानत पर 2018 के आत्महत्या मामले में जर्नलिस्ट अर्णब गोस्वामी की अंतरिम जमानत तब तक जारी रहेगी, जब तक बॉम्बे हाई कोर्ट उनकी याचिका पर फैसला नहीं दे देता। अंतरिम जमानत अगले चार हफ्ते के लिए होगी। यह उसी दिन से होगी, जब बॉम्बे हाई कोर्ट ने खुदकुशी मामले में जमानत याचिका पर सुनवाई शुरू की।

पीठ ने कहा कि हाई कोर्ट्स, जिला अदालतों को राज्य द्वारा बनाए आपराधिक कानूनों का दुरुपयोग से बचना चाहिए। अदालत के दरवाजे एक ऐसे नागरिकों के लिए बंद नहीं किए जा सकते, जिसके खिलाफ प्रथम दृष्टया राज्य द्वारा अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने के संकेत हों।पीठ ने कहा कि किसी व्यक्ति को एक दिन के लिए भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करना बहुत ज्यादा है। जमानत अर्जी से निपटने में देरी की संस्थागत समस्याओं को दूर करने के लिए अदालतों की जरूरत है।

पीठ ने 11 नवंबर को अंतरिम जमानत देते हुए कहा था कि अगर उनकी निजी स्वतंत्रता को बाधित किया गया तो यह अन्याय होगा। कोर्ट ने इस बात पर चिंता जताई थी कि राज्य सरकार कुछ लोगों को सिर्फ इस आधार पर कैसे निशाना बना सकती है कि वह उसके आदर्शों या राय से सहमत नहीं हैं। इस मामले में दो अन्य नीतीश सारदा और फिरोज मुहम्मद शेख को भी पचास-पचास हजार रुपये के निजी मुचलके पर जमानत दे दी थी। जमानत देते हुए कोर्ट ने कहा था कि अगर राज्य सरकारें लोगों को निशाना बनाती हैं तो उन्हें इस बात का अहसास होना चाहिए कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च अदालत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

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