शाहीन बाग की हर गली में बाग दिखता है। हर गली-मोहल्ले से एक झुंड निकलता है। हाथ में तिरंगा झंडा लिए हुए। कुछ बच्चे अपने चेहरे पर तिरंगा बनाए हुए और नारे लगाते हुए। इन बच्चों के नारे बड़ों से अलग थोड़े बचकाने पर जोशीले थे। कोई भी नारा लगाते हुए उन्हें डर नहीं है कि वो पीएम या होम मिनिस्टर के खिलाफ नारे लगा रहे हैं। डर नाम की चिड़िया उन्हें छू भी नहीं गई है।
नारे लगाते समय वो इतने जोशीले होते हैं कि लगातार कई मिनट तक बोलते रहते हैं झूम-झूमकर, “हमें चाहिए आजादी, एनआरसी से आजादी, सीएए से आजादी”, वो कहते हैं, “जामिया तेरे खून से इनकलाब आएगा, जेएनयू तेरे खून से इनकलाब आएगा”, इसके अलावा, “दादा लड़े थे गोरों से, हम लड़ेंगे चोरों से”।

ये नारे तो हम गलियों में सुनते हुए जा रहे थे, जब हम मंच तक पहुंचते हैं तो वहां पर यंग जेनरेशन तो है ही, बड़े-बुजुर्ग भी बढ़चढ़ कर इस आंदोलन में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं। इस आंदोलन की कुछ बुजुर्ग महिलाओं को मंच के लोग दादी कहकर संबोधित करते हैं। एक दादी का वीडियो भी वायरल हुआ है। इतनी ठंड में दादी जिस तरह मंच पर मौजूद हैं और बोल रही हैं और बच्चे जिस तरह नारे लगा रहे हैं, इससे लगता है कि इस आंदोलन को तो सफल होना ही है।
मैंने जिंदगी में पहली बार एक ही जगह पर इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम कम्यूनिटी की महिलाएं एक साथ देखी हैं। जिन महिलाओँ के छोटे-छोटे बच्चे हैं, वो भी इस धरने में अपने बच्चों को लेकर बैठी हैं। शाहीन बाग का आंदोलन एक अलग तरह का अनुभव दे रहा है।
मुसलिम महिलाएं परदे में रहती हैं, इस बात की गवाही एक दादी भी मंच से दे रही थीं, हमारे घर की बहू-बेटियां घर से बाहर भी नहीं निकलतीं पर एक महीना से ऊपर हो गया और ये औरतें रोज आकर इस आंदोलन में अपना समय दे रही हैं। सरकार को बुरा-भला कहते हुए कहती हैं कि हम औरतों पर आरोप लगाया जा रहा है कि 500-500 रुपये देकर हमें बुलाया गया है, ये निहायत बेशर्मी भरी बातें हैं।
इस आंदोलन की एक यह भी कामयाबी है कि इसमें हर वर्ग के लोग हैं और धर्म के लोग हैं। सिख भाइयों ने दो-दो जगह लंगर लगाया है, इस निवेदन के साथ कि जिनका घर नजदीक है वे खाना न खाएं बल्कि जो दूर से आए हैं और धरने पर बैठे हैं वो खाएं। एक सज्जन है एक गाड़ी में रोज भरकर खाने-पीने की चीजें ले आते हैं और वहां बैठे लोगों में वितरित करते हैं। आम जनता नहीं जानती कि वो कौन हैं, लेकिन यह उनकी रोज की ड्यूटी है कि वे खाना बनाकर गाड़ी में ले आते हैं, बांटते हैं और चले जाते हैं।
हमने देखा, शाहीन बाग के आसपास के लोग, जिसकी जितनी क्षमता है, मदद कर रहे हैं। हमने देखा यंग लोगों को जो हाथ मे बिस्किट का पैकेट लेकर चले आ रहे थे। कुछ ने बिस्कुट बांटे, कुछ ने पानी और कुछ ने समोसे बांटे। इस आंदोलन का नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं। उनका कोई एक नेता नहीं है। सभी नेता हैं और सभी आम हैं।
ग़ज़ब का है ये आंदोलन। विरोध के साथ-साथ विरोध कैसे करना है ये भी सीखने को मिल रहा है वहां पर। इसी बीच वहां पर एक लाइब्रेरी भी खुल गई है। उसका नाम है ‘फातिमा शेख सावित्री बाई फूले लाइब्रेरी’। ये लाइब्रेरी न कि सिर्फ खुली है बल्कि लोग वहां पर पढ़ते हुए भी दिख रहे हैं। वहां पर जिस तरह से आए दिन नुक्कड़ नाटक, ग़ज़ल, कविता, कहानियां पढ़ी, सुनी और दिखई जा रहे हैं, उससे यह साबित होता है कि सभी लोग इस आंदोलन में अपना पूरा सहयोग देना चाह रहे हैं। जो जिस क्षेत्र में समर्थ है, उसी तरह से योगदान कर रहा है।
वहां पर कुछ लड़कियों से बात की। जेबा कहती हैं, “मेरा पूरा परिवार इस आंदोलन में है। मेरी बहन, मेरे भाई, मेरे माता-पिता और मैं…” ये जामिया की स्टूडेंट हैं और वो ये भी बताती हैं कि हर रोज एक से दो घंटे हम जामिया में कैंडल मार्च करते हैं और फिर यहां आ जाते हैं। उन्होंने हमारे कहने पर एक कविता भी सुनाई। इस पूरे आंदोलन वाले इलाके को गीता दी के दोस्त सईद अयूब भाई ने घुमा-घुमाकर दिखाया। उन्होंने हमें दिखाया कि कहां पर कौन से बैनर लगे हैं, मशाल जल रही हैं, एक पोस्टर में डिटेन करने वाली जेल बनी है, जिसमें गांधी, अंबेडकर, भगत सिंह को कैद दिखाया गया है।
इतने बड़े आंदोलन में कहीं एंबुलेंस की कोई व्यवस्था नहीं, प्रशासन का कोई सहयोग नहीं और कहीं पुलिस ड्यूटी करती हुई नहीं दिखेगी। वहां पर कोई पुलिस के डंडे का डर नहीं है, लेकिन आम जनता और वालंटियर ने खुद से ही रेस्क्यू के लिए रास्ता बना रखा है। इस आंदोलन की बड़ी उपलब्धि ये है कि किसी बड़े नेता का हाथ नहीं है। आम लोगों ने मिलकर ही इस आंदोलन को खास बना दिया है।
शालिनी श्रीनेत
(लेखिका ‘मेरा रंग फाउंडेशन ट्रस्ट’ की संस्थापक और संचालक हैं तथा महिला अधिकारों के लिए काम करती हैं।)
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