नोएडा। मेरा रंग फाउंडेशन ने ‘जेंडर की पाठशाला’ श्रृंखला की पहली कार्यशाला ‘बैक टू बेसिक्स’ का आयोजन शनिवार को शीरोज़ हैंगआउट कैफे में किया। इस कार्यक्रम में शिक्षाविदों, पत्रकारों, छात्रों, व्यवसायियों, कलाकारों और गृहिणियों सहित समाज के विभिन्न वर्गों के लोग शामिल हुए। छांव फाउंडेशन की एसिड अटैक सर्वाइवर्स की भागीदारी ने इस चर्चा को और भी खास बना दिया। इस कार्यशाला का उद्देश्य जेंडर और फेमिनिज़्म से जुड़ी बुनियादी समझ विकसित करना और इससे जुड़े सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी पहलुओं पर चर्चा करना था।
जेंडर समानता पर संवाद क्यों जरूरी?
कार्यशाला की शुरुआत मेरा रंग फाउंडेशन की संस्थापक शालिनी श्रीनेत के उद्घाटन भाषण से हुई। उन्होंने कहा, “हम अक्सर जेंडर, फेमिनिज़्म और महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, लेकिन इनके सही मायने और समाज पर इनके असर को कितना समझते हैं, यह सोचने की जरूरत है।” उन्होंने इस तरह की वर्कशॉप को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि यह एक ऐसा मंच है जहां लोग खुलकर सवाल पूछ सकते हैं और विचार साझा कर सकते हैं।
सुजाता ने समझाया फेमिनिज़्म का इतिहास
इस कार्यशाला में दिल्ली विश्वविद्यालय की जानी-मानी स्त्रीवादी आलोचक प्रो. सुजाता और गलगोटिया यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. शुभ्रांगना पुंडीर विशेषज्ञ वक्ता के रूप में शामिल हुईं। कार्यक्रम की शुरुआत में डॉ. शुभ्रांगना ने प्रतिभागियों से पूछा – “आप फेमिनिज़्म को कैसे परिभाषित करेंगे?” इस पर सभी ने अपने-अपने विचार रखे। किसी ने इसे महिलाओं के अधिकारों से जोड़ा, तो किसी ने इसे बराबरी का आंदोलन बताया। प्रतिभागियों की प्रतिक्रियाओं के आधार पर प्रो. सुजाता ने नारीवादी विचारधारा के ऐतिहासिक और सैद्धांतिक पहलुओं को समझाया।

उन्होंने बताया कि कैसे फेमिनिज़्म अलग-अलग दौर में विकसित हुआ और किस तरह मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद और उत्तर-आधुनिक सोच ने इसे प्रभावित किया। उन्होंने सोफिया तोलस्तोया से लेकर प्रभा खेतान जैसी महिलाओं के योगदान पर भी रोशनी डाली और यह समझाया कि महिलाओं के अधिकारों की यह लड़ाई सिर्फ महिलाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे समाज से जुड़ी हुई है।
ग्रुप डिस्कशन: संवाद और नया नजरिया
लंच के बाद प्रतिभागियों को छोटे समूहों में बांटा गया, ताकि वे अलग-अलग विषयों पर चर्चा कर सकें। हर समूह को एक विषय दिया गया, जिस पर उन्हें मिलकर विचार करना था और अपनी राय सबके सामने रखनी थी। इन चर्चाओं में कई अहम मुद्दे सामने आए, जिनमें भारतीय समाज में लैंगिक भेदभाव की जड़ें और उसका असर प्रमुख रहा, जहां प्रतिभागियों ने पारंपरिक सामाजिक संरचनाओं और उनके प्रभावों पर बात की।
इसके अलावा, कामकाजी महिलाओं की चुनौतियों और उनकी आर्थिक स्वतंत्रता के महत्व पर चर्चा हुई, जिसमें खासतौर पर कार्यस्थल पर असमान वेतन, लैंगिक भेदभाव और घरेलू जिम्मेदारियों के संतुलन जैसे विषय शामिल थे। पितृसत्ता और कानून के संदर्भ में महिलाओं के अधिकारों की सीमाओं को भी विस्तार से समझा गया, जिसमें यह देखा गया कि कैसे कानूनी प्रावधान मौजूद होने के बावजूद कई बार सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाएं उनके प्रभावी क्रियान्वयन में रुकावट बनती हैं। साथ ही, फेमिनिज़्म और समावेशिता के संदर्भ में LGBTQ+ समुदाय के अधिकारों पर भी गंभीर विमर्श हुआ, जिसमें लैंगिक पहचान, सामाजिक स्वीकृति और कानूनी सुरक्षा जैसे विषयों पर विचार किया गया।

इस चर्चा का मकसद यह था कि प्रतिभागी सिर्फ सुनें नहीं, बल्कि खुद भी विचार करें और अपनी बात को स्पष्ट रूप से सामने रखें।
जेंडर विमर्श : आगे की राह
कार्यक्रम के समापन पर प्रो. सुजाता ने पूरी चर्चा को सारांश रूप में प्रस्तुत किया और प्रतिभागियों के सवालों के जवाब दिए। उन्होंने कहा, “फेमिनिज़्म सिर्फ महिलाओं के अधिकारों की बात नहीं करता, यह पूरे समाज में बराबरी और न्याय की बात करता है।” इसके बाद मेवाड़ इंस्टीट्यूट की डायरेक्टर डॉ. अल्का अग्रवाल ने सभी प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र वितरित किए और कहा, “कोई भी बदलाव संवाद से शुरू होता है। हमें अपने आसपास के समाज में बराबरी और न्याय की सोच को बढ़ावा देना होगा और चाहे कैसी भी परिस्थिति हो हम स्त्रियों को आगे बढ़ना है, हार नहीं माननी है।”
‘जेंडर की पाठशाला’ की यह पहली कार्यशाला एक सकारात्मक शुरुआत रही, जिसमें विविध विषयों पर सार्थक चर्चा हुई। शालिनी ने बताया कि आने वाले सत्रों में जेंडर समानता, महिला अधिकार और सामाजिक बदलाव जैसे विषयों पर और गहराई से विमर्श किया जाएगा।
(प्रेस विज्ञप्ति पर आधारित।)
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