ग्रेटर टिपरालैंड पर लिखित आश्वासन तब समर्थन-प्रद्योत देबबर्मा

Estimated read time 1 min read

नई दिल्ली। त्रिपुरा में विधानसभा चुनावों के लिए 16 फरवरी को मतदान होगा। सत्तारूढ़ बीजेपी गठबंधन को फिर से सत्ता में वापसी की उम्मीद है। लेकिन कांग्रेस-वाम मोर्चा गठबंधन उसे कड़ी चुनौती दे रही है। इसके अलावा त्रिपुरा शाही परिवार के वंशज प्रद्योत देबबर्मा के नेतृत्व वाली टिपरामोथा की उपस्थिति ने इस चुनाव को त्रिकोणीय बना दिया है। आदिवासी क्षेत्रों में टिपरामोथा की लोकप्रियता काफी बढ़ी है, जो प्रद्योत देबबर्मा की चुनावी रैलियों में आने वाली भीड़ में दिखाई देती है। बीजेपी और सीपीएम एक दूसरे पर टिपरामोथा से मिलीभगत का आरोप लगा रहे हैं।

टिपरामोथा के प्रमुख त्रिपुरा राजघराने के वंशज प्रद्योत बिक्रम माणिक्य देबबर्मा ने ग्रेटर टिपरालैंड पर लिखित आश्वासन के बिना किसी भी पार्टी का समर्थन नहीं करने के अपने रुख पर अड़े हुए हैं।

ऐसे में त्रिपुरा विधानसभा चुनाव बहुत दिलचस्प हो गया है। टिपरामोथा ने चुनावी समीकरण को बदलकर बीजेपी, कांग्रेस और सीपीएम को उलझन में डाल दिया है। आरोप-प्रत्यारोप के बीच प्रद्योत देबबर्मा का दावा है कि त्रिपुरा के लोगों ने अपना मन बना लिया है और वे वर्तमान सरकार से खुश नहीं हैं, चाहे वह आदिवासी हों या बंगाली।

त्रिशंकु विधानसभा के सवाल पर प्रद्योत कहते हैं कि, “मुझे उम्मीद है कि कांग्रेस-माकपा या बीजेपी गठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा। खंडित जनादेश की संभावना है, क्योंकि राज्य के कई हिस्सों में अन्य स्थापित पार्टियां पूरी तरह से खत्म हो चुकी हैं।”

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह त्रिपुरा की चुनावी रैलियों में टिपरामोथा पर आरोप लगा रहे हैं कि उसका कम्युनिस्टों के साथ अंदरखाने गठबंधन है। अमित शाह के इस आरोप का जवाब देते हुए प्रद्योत देबबर्मा ने कहा कि अमित शाह के भाषण लेखक ने अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है। उनका भाषण लिखने वाला कोई भी हो, उसे बर्खास्त किया जाना चाहिए।

उनका कहना है कि कम्युनिस्ट पार्टी हमारे (शाही) परिवार के खिलाफ रही है। इसलिए यह कहना कि हम कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन में हैं, कम से कम हमारे लिए अप्रिय और चौंकाने वाली बात है। फिर भी अमित शाह हाल ही में बहुत सारे बयान दे रहे हैं और मैं इसके लिए उन्हें दोष नहीं देता, क्योंकि वह दिल्ली में बहुत व्यस्त हैं और त्रिपुरा वहां से बहुत दूर है। दिल्ली से त्रिपुरा के बारे में प्रतिक्रिया देना सही नहीं है। वह तो यह भी कहते हैं कि राज्य का बहुत विकास हो रहा है, रोजगार सृजन हो रहा है, राज्य बहुत अच्छी तरह से प्रगति कर रहा है, यह सब त्रिपुरा की वास्तविक स्थिति से मेल नहीं खाता है।

त्रिपुरा में टिपरामोथा या कहें शाही परिवार एक समीकरण है। अभी हाल तक कांग्रेस और शाही परिवार एक साथ थे। वाम दल शुरू से ही कांग्रेस के साथ ही शाही परिवार का भी विरोधी रहा है। लेकिन अब दोनों साथ हैं।

राज्य में दोनों दलों पर एक नजर डाली जाए तो 1977, 1989 और 2003 में कांग्रेस और माकपा एक साथ थे। प्रद्योत देबबर्मा कहते हैं कि कांग्रेस पश्चिम बंगाल या त्रिपुरा जैसे राज्यों में वामपंथियों के साथ गठबंधन करने को लेकर गंभीर नहीं रही। लेकिन राष्ट्रीय दल अक्सर अपने समर्पित कार्यकर्ताओं की भलाई के बजाय अपने तात्कालिक राजनीतिक हितों के अनुरूप निर्णय लेते हैं। जैसे- भारी वैचारिक मतभेदों के बावजूद भाजपा ने (जम्मू-कश्मीर में) पीडीपी के साथ गठबंधन किया। कांग्रेस अभी भी शिवसेना (महाराष्ट्र में) के साथ गठबंधन में है, जो उनके विचारों के बिल्कुल विपरीत है। क्या आपको लगता है कि लेफ्ट वोट कांग्रेस को ट्रांसफर हो जाएंगे, या कांग्रेस वोट लेफ्ट को?

मुझे लगता है कि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट का वोट कांग्रेस को गया, लेकिन कांग्रेस का वोट लेफ्ट को नहीं गया। और जो भी हो, आज भाजपा में 80 प्रतिशत लोग कांग्रेस से हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस का वोट कम्युनिस्टों को जाता है या नहीं।

ग्रेटर टिप्रालैंड की मांग क्या राज्य के विभाजन की बात नहीं करता है, के सवाल पर प्रद्योत कहते हैं कि हम राजनीतिक अलगाव चाहते हैं, और अगर यह बिना किसी भौगोलिक विभाजन के हासिल किया जा सकता है, तो कोई समस्या नहीं है।

दरअसल, टिपरामोथा राज्य में आर्थिक मामलों के प्रबंधन, भूमि अधिकार, प्रवर्तन अधिकार, भूमि जोत प्रणाली, भाषा और धन के पुनर्वितरण के मामले में राज्य सरकार से पूर्ण स्वतंत्रता चाहता है।

त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में क्या आप वाम-कांग्रेस गठबंधन को बाहरी समर्थन देने के लिए तैयार हैं, क्योंकि बीजेपी ने आपकी मांग मानने की किसी भी संभावना से इनकार किया है, के सवाल पर प्रद्योत कहते हैं कि यदि हम अपने दम पर सरकार में आ सकते हैं, तब यह एक काल्पनिक प्रश्न है। दूसरी बात, बीजेपी ने किसी भी बात से इनकार नहीं किया है। बीजेपी यह नहीं कह सकती क्योंकि संविधान कहता है कि संभावना है।

बीजेपी ने कृषि कानूनों पर किसी तरह की बातचीत से भी इनकार किया था। लेकिन उन्हें घुटने टेक कर उन कानूनों को रद्द करना पड़ा। इसलिए बीजेपी केवल एक प्रति-आंदोलन की भाषा समझती है और जब वे देखते हैं कि आंदोलनकारियों को अपने बाहुबल या प्रचार मशीन से झुकाया नहीं जा सकता तो वे अंततः आगे आकर घुटने टेक देते हैं। इतिहास ने दिखाया है।

+ There are no comments

Add yours

प्रदीप सिंह https://www.janchowk.com

दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय और जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।

You May Also Like

More From Author