योगेन्द्र यादव को खेद प्रकट करना चाहिए

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मुझे स्वयं को योगेन्द्र यादव का प्रशंसक स्वीकारने में तनिक भी हिचक नहीं है। भारत की संसदीय राजनीति में वे एक आदर्श व्यवहार स्थापित करते लगते हैं और सामयिक मुद्दे पर उनकी नपी-तुली टिप्पणी कई बार अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के बौद्धिक स्तर की होती है। किसान संघर्ष समिति के एक अग्रणी नेता के रूप में उन्होंने परिपक्व रणनीतिक समझ का प्रदर्शन किया है। या कहें, अब तक किया था। फिलहाल किसान संघर्ष समिति के सामूहिक नेतृत्व ने उन्हें एक महीने के लिए निलंबित कर दिया है, क्योंकि वे लखीमपुर खीरी में किसान हत्यारे गिरोह के मारे हुओं के घर भी शोक संवेदना के लिए जा पहुंचे थे। योगेन्द्र यादव ने इसे मानवीयता के आधार पर सही ठहराया है लेकिन, दरअसल, इसे, वर्ग चेतना से अलग, भ्रांत चेतना का व्यक्तिवादी प्रदर्शन कहा जाना चाहिए।

वर्ग-चेतना वह दशा है जिसमें सम्बंधित समूह स्वयं को विशेष वर्ग का सदस्य मानता है। मार्क्स ने इस वर्ग-चेतना को ‘क्लास इन इटसेल्फ़’ और ‘क्लास फ़ार इटसेल्फ़’ की श्रेणियों में विभक्त किया है। इसमें पहली श्रेणी वह दशा है जिसमें कोई सामाजिक समूह एक साझी आर्थिक स्थिति का अंग होता है और वह उस स्थिति को स्वीकार करके चलता है। वर्तमान किसान आन्दोलन प्रायः इस अवस्था में चलाया जाता रहा है और देर-सबेर इसका अंत इसी सीमा में संपन्न किसी समझौते के रूप में होगा। हालाँकि, तब भी इसका भारतीय लोकतंत्र के वर्गीय/सेक्युलर विकास में खास ऐतिहासिक महत्त्व रहेगा। गाँधी या अम्बेडकर के आन्दोलन जैसा तो नहीं लेकिन जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और अन्ना हजारे आन्दोलनों से कहीं बढ़ कर।

यथा स्थिति से सम्पूर्ण प्रतिरोध न कर पाने में भ्रांत चेतना का बड़ा योगदान होता है, जबकि क्लास फ़ार इटसेल्फ़ वर्ग चेतना की वह दशा है जिसमें सामाजिक समूह किसी अन्य भ्रांत चेतना से मुक्त होकर वास्तविक वर्ग-चेतना का विकास करता है और वह अपने ऐतिहासिक शोषण के बारे में सजग हो जाता है। मार्क्स के अनुसार यह परिवर्तन विशेष भौतिक परिस्थितियों के अधीन होता है। पूँजीवाद के कारण उत्पादन पद्धति सामूहिक हो जाती है और इस सामूहिकता के कारण व्यक्तिवाद का विचार सर्वहारा की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता। लेकिन भ्रांत चेतना की अवस्था में प्रतिरोधी नेतृत्व के भीतर भी व्यक्तिवादी प्रदर्शन लक्षित होगा ही। सामूहिक नेतृत्व में चलाया जा रहा किसान आन्दोलन भी इस समीकरण से अछूता नहीं रह पाया है।

योगेन्द्र यादव ने अपने कृत्य को मीडिया में सही ठहराया है। इसके लिए उन्होंने महाभारत में युद्धोपरांत दुश्मन खेमे का हालचाल लेने की प्रथा और गुरु गोविन्द सिंह के मशकी भाई कन्हैया का उदाहरण दिया है जो रणभूमि में मित्र या शत्रु का भेदभाव किये बिना घायलों को पानी पिलाते थे। वैसे तो आज के भी युद्ध नियम घायल, बंदी या मृत दुश्मन के प्रति मानवीय व्यवहार की बात करते हैं, लेकिन क्या लखीमपुर खीरी की तुलना एक युद्धस्थल से की जायेगी?

अहिंसा के पर्यायवाची बन चुके गाँधी के हत्यारे को फांसी हुयी तो क्या देश का गांधीवादी नेतृत्व गोडसे के घर शोक प्रकट करने गया? अगर कहीं गोडसे की मौके पर ही भीड़ ने लिंचिंग कर दी होती तो क्या नेहरु, पटेल, जयप्रकाश, लोहिया इत्यादि उसके घर सार्वजनिक मातमपुरसी के लिए जाते? फांसी और लिंचिंग का पुरजोर विरोधी होना एक अलग बात है, जिसे फांसी पर चढ़ाए गए या लिंच हुए हत्यारों के प्रति सार्वजनिक शोक प्रदर्शन से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। कुछ तत्व गोडसे की बरसी बड़े सम्मान से मनाते हैं; हो सकता है कल लखीमपुर के हत्यारों की भी बरसी मनाने लगें तो क्या मानवीयता के हवाले से उसमें शामिल होना ठीक हो जायेगा?

जब-तब व्यक्तिगत मानदंड लागू करने से किसान आन्दोलन की सामूहिकता पर पहले भी चोट हुयी है। इसे लेकर कई बार सफाई भी देने की नौबत आयी है। लेकिन योगेन्द्र यादव का मामला अलग है। उनका बौद्धिक कद ही बड़ा नहीं है, किसान आन्दोलन के सामूहिक नेतृत्व में उनकी सर्वसम्मत उपस्थिति का विशेष महत्व भी है। उन्हें, आन्दोलन के लोकतांत्रिक चरित्र की मजबूती के लिए, अपनी असावधानी पर सार्वजनिक रूप से खेद प्रकट करना चाहिए।
(विकास नारायण राय हैदराबाद पुलिस एकैडमी के निदेशक रह चुके हैं।)

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