भारत की 60 प्रतिशत लड़कियां खून की कमी का शिकार हैं

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नेशनल फेमली हेल्थ सर्वे-5 (2019-21) की रिपोर्ट अनुसार देश की 59.1 प्रतिशत किशारवय लड़कियां (18 वर्ष से कम उम्र की) खून की कमी का शिकार हैं। नेशनल फेमली सर्वे-4 की रिपोर्ट बताती है कि स्कूल जाने वाली 41.9 प्रतिशत लड़कियों का वजन उनकी लंबाई और उम्र के हिसाब से बहुत कम है। ये दोनों तथ्य इस बात की ताकीद करते हैं कि भारत की किशोरवय लड़कियों के बड़ा हिस्सा कुपोषण का शिकार है। इसकी साफ-साफ वजह यह है कि इन लड़कियों को पर्याप्त और संतुलित पोषण नहीं मिल रहा है। 

लड़कियों में खून की कमी और कुपोषण का सीधा असर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। इसका सीधा असर उनके पढ़ाई-लिखाई पर पड़ता है। उनका अकादमिक करियर इससे गहरे स्तर प्रभावित होता है। उनकी भविष्य की संभावनाएं इससे प्रभावित होती हैं। वे गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाती हैं। जब ये मां बनती हैं, तो इससे कई जटिलताएं पैदा होती हैं। कुछ मामलों में उनकी मौत भी हो जाती है।

इस तरह के गंभीर कुपोषण तमाम बीमारियों को जन्म देते हैं। जिनके इलाज खर्ज में परिवार के परिवार तबाह हो जाते हैं। ऐसी किशोरियां जब मां बनती हैं, तो गर्भ में बच्चे को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता है, जिससे बच्चे के विकलांग पैदा होने, कम वजन का होने जैसी कई संभावनाएं रहती हैं। यह सबकुछ गरीबी का एक दुश्चक्र पैदा करता है, जिससे निकलने की संभावना बहुत कम होती जाती है।

खून की कमी और कुपोषण की शिकार ये किशोरवय लड़कियां आर्थिक तौर पर गरीब और मेहनतकश परिवारों की होती हैं। सामाजिक समूह के तौर पर ये ज्यादातर आदिवासी, दलित, ओबीसी और मुस्लिम परिवारों की होती हैं। शहर देहात के आधार पर देंखे तो इनकी बड़ी संख्या ग्रामीण समाज से आने वाली लड़कियों की है।

भारतीय समाज अपनी पीढ़ थपथपाने में बहुत माहिर है। जब से नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं, तब से वे देश को विश्व गुरु बनाने का स्वप्न दिखा रहे हैं। जब वे सत्ता में आए तो उन्होंने ऐसा आभास दिया था कि वे चुटकियों में सारी समस्या का समाधान कर देंगे।

दूसरी तरफ तथ्य बता रहे हैं कि हम अपनी 60 प्रतिशत किशोर बच्चियों को ठीक से जरूरी खुराक भी नहीं दे पा रहे हैं। एक ऐसी खुराक जो उन्हें ऐसा पोषण दे सके कि वे कुपोषित न रहें, खून की कमी का शिकार न हों। 

दरअसल भारतीय राज्य और समाज बड़पोलेपन में ज्यादा विश्वास रखता है। वह अपने लोगों के पोषण जैसे बुनियादी मामले से भी सरोकार नहीं रखता है। वह ज्यादा से ज्यादा यह सोचता है कि किसी तरह लोगों का पेट भर सके। ऐसा नहीं है कि देश के पास साधन नहीं हैं कि वह अपनी बेटियों को पोषणयुक्त खुराक दे सके। असल बात सरोकार और प्राथमिकता की है। बेटियां न तो परिवारों की, ना ही समाज की और सबसे बढ़कर राज्य के सरोकार का विषय नहीं हैं।

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