Saturday, April 27, 2024

ग्रांउड से चुनाव: दंतेवाड़ा का एक ऐसा स्कूल जहां पहुंचने की सड़क नहीं, सिर्फ पगडंडियों का सहारा

दंतेवाड़ा। छत्तीसगढ़ में इस समय विधानसभा की गहमा गहमी चल रही है। लोग सरकार के बारे में अपनी राय दे रहे हैं, कोई सरकार से खुश है तो कोई नाराज। ‘जनचौक’ की टीम इस वक्त छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में जाकर लोगों की राय जानने की कोशिश कर रही है। दंतेवाड़ा जिले में हमें ऐसे ही एक सरकारी स्कूल में जाने का मौका मिला। जो एकदम पहाड़ी की छोर पर बना है। जिसे दो बार नक्सलियों ने ढहा दिया था लेकिन वह दोबारा बना और आज यहां बच्चे पढ़ रहे हैं। चुनावी गहमा-गहमी के बीच ‘जनचौक’ की टीम मासापारा स्थित इस स्कूल को देखने पहुंची।

दंतेवाड़ा से हम बाइक पर एक लोकल छात्र और स्थानीय पत्रकार के साथ स्कूल के लिए निकले। बस्तर की सड़कें सिर्फ शहर तक ही ठीक हैं। बाद में आगे की सड़कें टूटी हैं, वो सिर्फ पर पिच से साथ बनाई गई हैं। दंतेवाड़ा से आगे की तरफ हम निकले तो पहाड़ी के दोनों तरफ बड़े-बड़े पेड़, पहाड़ी और शंखिनी नदी दिख रही थी।

स्कूल जिला मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर दूर है। इसके बाद हम मुख्य सड़क से ग्राम पंचायत धुरली गए। जहां लोकल पत्रकार लुभम निर्मल ने आगे हमारी मदद की।

धुरली ग्राम पंयाचत भवन की सड़क के विपरीत दिशा में नक्सलियों के पूर्व कमाडंर और कॉमरेडों का स्मृति स्थल बना हुआ है। सड़क से दाहिनी ओर मुड़कर ही हमें मासापारा गांव जाना था।

दाहिनी ओर जैसे ही गांव के लिए मुड़े एनएमडीसी का महिलाओं के लिए एक छोटा कार्यालय बना हुआ था और उसके सामने लाल रंग का एक झंडा लगा था, जिस पर हसुआ हथौड़े का चिन्ह छापा था।

इसके साथ ही कुछ दूर तक अधमरी सी पक्की सड़क थी। सड़क के दोनों ओर खेत थे जिसमें महिलाएं धान काट रही थीं। कुछ दूर जाने के बाद यह सड़क भी हमारा साथ छोड़ देती है। यहां से शुरू होता है अंदर जाने का असली संघर्ष। हमारे पास बाइक तो थी लेकिन वह अंदर नहीं जा पा रही थी।

छोटी-छोटी पगडंडियां बनी हुई थीं। लगभग ढाई किलोमीटर का रास्ता ऐसा ही था। जहां खेतों की मेड़ और पगडंडियों के सहारे रास्ता तय कर हम धुरली ग्राम पंचायत के मासापारा गांव पहुंचे।

गांव में कुछ बच्चे गाय और अन्य को चरा रहे थे। खेत में कुछ बुजुर्ग बैठे थे। ये सभी लोग हमें बड़े ही अचभ्मे के साथ देख रहे थे। जैसे ही हम एक छोटे से भवननुमा स्कूल के पास पहुंचे। एक बुर्जुग हमारे पास आए और पूछा क्या काम है।

सोमरू लखमा की उम्र 60 के आसपास की होगी। वह इस गांव के बारे में बात करते हैं और हमें अपने घर चलने के लिए कहते हैं। वह स्कूल के कुछ बच्चों को भी बुलाकर लाते हैं। चूंकि स्कूल में दशहरे की छुट्टियां चल रही हैं इसलिए स्कूल में ताला लगा हुआ था। इस स्कूल में दो गांव के कुल 31 बच्चे पहले से चौथी कक्षा में पढ़ते हैं।

देखते ही देखते कुछ और लोग भी इकट्ठा हो जाते हैं। वहीं पापा लखमा आते हैं। वो कहते हैं कि “इस स्कूल को बहुत पहले नक्सलियों ने तोड़ दिया था।” वह गांव के बारे में बात करते हुए वहां की स्थिति को बताते हुए कहते हैं कि “पूरे गांव में एक ही सौर ऊर्जा वाली बोरिंग हैं वहीं से पीने का पानी आता है।”

इतनी देर में सोमरू लखमा स्कूल के दो तीन बच्चों को बुला कर लाते हैं और कहते हैं, कि ‘धान कटाई का समय है इसलिए कुछ बच्चे अपने माता-पिता के साथ वहां गए हैं तो कुछ जंगल की तरफ गए हैं।’

हमने सोमरू से गांव की स्थिति और स्कूल के बारे में बात की। हमने पूछा कि इस स्कूल को जब तोड़ा गया तो क्या आप यहां थे? वह कहते हैं कि “मैं उस वक्त हैदराबाद में काम करता था।” बमुश्किल हिंदी में बोलते हुए वो बताते हैं कि “मेरा एक ही बेटा था कुछ समय पहले ही उसका देहांत हो गया है। अब उसके बच्चे और बहू हैं, उनको देखने के लिए यहां आ गया हूं। क्या करूं बुजुर्ग हूं इनको छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकता। स्कूल के टूटने का किस्सा तो नहीं देखा लेकिन स्कूल को बनते जरूर देखा है।”

गांव के बुजुर्ग सोमरू लखमा।

वो कहते हैं कि “कोरोना के बाद साल 2021 से यह स्कूल संचालित है। जिसके बाद से हमारे बच्चे यहां आते हैं। मेरे दो पोते भी यहीं पढ़ते हैं। स्कूल टूटने के बाद बच्चों को स्कूल के लिए पैदल पांच किलोमीटर दूर जाना पड़ता था। लेकिन यहां स्कूल फिर बन जाने के बाद हमें राहत मिल गई है।”

अक्सर हम सुनते हैं कि स्कूल में शिक्षक नहीं आते हैं। मैंने इस बात पर सोमरू और गांव के ही एक शख्स से पूछा कि क्या यहां शिक्षक स्कूल रोज आते हैं? इस पर इन दोनों ने तुरंत हामी भरते हुए कहा कि रोज आते हैं, बरसात में जब रास्ता नहीं रहता है तब भी वो हमारे बच्चों को शिक्षा देने आते हैं।

इस स्कूल को साल 2008 और 2015 में दो बार माओवादियों ने बम से उड़ा दिया था। लेकिन इस स्कूल के कंक्रीट ने हार न मानते हुए दोबारा से अपने आप को खड़ा कर दिया है।

टीम के साथ गए पत्रकार ने बताया कि किसी वक्त इस गांव में माओवादियों का दबदबा था। गांव के लोग भी संगठन के सदस्य थे। इनमें से ही कुछ लोगों ने इसे बम से उड़ाने में मदद की थी। बाद में इन्हीं लोगों ने इसे बनाने की पैरवी भी की।

इस गांव के ही तीन युवा, जो माओवाद को छोड़कर सामान्य जीवन जी रहे हैं। वह इसमें शामिल थे। मैंने इन लोगों से मिलने की इच्छा जाहिर की।

गांव में पता किया तो दो गांव में मौजूद नहीं थे। सिर्फ एक ही व्यक्ति था। सुरक्षा कारणों से उसका नाम लिखने के लिए मना कर दिया गया। हमने उनसे इसके बारे में बात करने चाही। लेकिन उन्होंने कैमरे के सामने कुछ भी बोलने से मना कर दिया।

स्कूल के सामने बच्चों के साथ सोमरू लखमा।

हमलोग उसके घर गए। मिट्टी के घर की एंट्री प्वांइट पर बकरे का मांस सूखने को रखा हुआ था। मैंने पूछा! आप बात क्यों नहीं करना चाह रहें? वह बोले “मैं अकेला इसके बारे में कुछ नहीं बोलूंगा। अगर बाकी दो लोग रहेंगे तो मैं कुछ बोलूंगा।”

हालांकि बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि “स्कूल तो फिलहाल बन गया है। बच्चे स्कूल भी जाते हैं लेकिन हमारी जिदंगी में कोई बदलाव नहीं आया है। सरेंडर करते वक्त कहा गया था कि मुआवजा दिया जाएगा, जिससे हम अपनी जिदंगी को दोबारा से शुरू कर पाएंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इतने साल हो गए हैं, हमें किसी ने एक रुपये तक नहीं दिया है। अब बस मजदूरी कर रहे हैं और अपना जीवन चला रहे हैं।”

गांव का पिछला हिस्सा पूरा बैलाडीला की पहाड़ियों से घिरा हुआ था। दशहरे की छुट्टी होने के कारण हमें स्कूल के शिक्षक नहीं मिल पाए। हमने किसी तरह उनसे संपर्क कर मिलने की कोशिश की।

मासापारा प्राथमिक शाला में दो शिक्षक हैं। राज्य में चुनाव के मद्देनजर इनकी ड्यूटी तहसील में लगी थी। सहायक शिक्षक केवल सिंह ध्रुव और मुकराम भोगामी से दो दिन बाद मुलाकात हुई।

गांव वालों का कहना था कि शिक्षक रोज स्कूल आते हैं इसलिए उनसे बिना सड़क वाले स्कूल तक पहुंचने के संघर्ष को जानना बहुत जरूरी था।

केवल सिंह ने बताया कि “शिक्षक होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि इन बच्चों को शिक्षा दें। हम ऐसा कर भी रहे हैं स्थिति कैसी भी हो कोशिश यही रहती हैं कि स्कूल पहुंचें।”

केवल सिंह ने हमें बताया कि “बाइक लेकर जाना संभव नहीं है इसलिए हम भगवान भरोसे अपनी बाइक को सुबह दस बजे सड़क किनारे छोड़कर जाते हैं और शाम को चार बजे के बाद लेते हैं।”

सहायक शिक्षक केवल सिंह।

वो कहते हैं कि “लगभग ढाई किलोमीटर के रास्ते में सिर्फ पगडंडियां हैं। पैदल चलने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। मुझे यहां आते हुए दो साल हो गए हैं। गर्मी और सर्दी में तो किसी तरह आ जाते हैं लेकिन बरसात में बहुत दिक्कत होती है। मिट्टी दलदली हो जाती है। ऊपर से सांप का भी डर रहता है।”

एक किस्सा बताते हुए केवल सिंह कहते हैं कि “इस साल बरसात के समय मैं एक दिन स्कूल के लिए जल्दी-जल्दी आ रहा था। अचानक मेरे सामने एक जहरीला सांप फन निकालकर खड़ा था। मैं एकदम डर गया। वह मेरी ओर आ रहा था। रास्ता तो है नहीं पगडंडियों में, मैं एकदम फंस गया था। यहां सबसे ज्यादा सांप बिच्छू का ही डर है।”

मैंने पूछा कि आपने कभी यहां सड़क की मांग की है। इस पर उनका जवाब था नहीं। केवल सिंह ने कहा कि स्कूल में 31 बच्चे हैं।

जब हम स्कूल गए तो देखा कि स्कूल तो बना है लेकिन वहां कोई भी बाथरूम नहीं है। हमने केवल सिंह से पूछा क्या स्कूल में कोई बाथरुम नहीं है? इसका जवाब मिला हां। मैंने पूछा फिर बच्चे और आपलोग कहां जाते हैं? बोले- ‘क्या करें दुनिया भर का जंगल है, सांप बिच्छु से डर लगता है फिर भी इसके अलावा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है’।

स्कूल के प्रधानाध्यापक फिलहाल दो तीन महीने पहले ही यहां आए हैं। थोड़े उम्र दराज हैं। उनका कहना था कि सड़क बनाने की बात तो चल रही थी लेकिन गांव के लोगों के खेत बीच में आ रहे हैं और लोग इसे देना नहीं चाहते हैं, शायद इसलिए सड़क की व्यवस्था नहीं हो पा रही है।

हमलोग तो किसी तरह यहां आ रहे हैं क्योंकि जहां सड़क नहीं पहुंच पाई वहां शिक्षा पहुंच गई है, यह बहुत बड़ी बात है। हमारे लिए यह गर्व की बात है कि हम आदिवसी बच्चों को दुर्गम स्थिति में पढ़ा रहे हैं और सबसे अच्छी बात यह है कि बच्चे भी इसमें रुचि ले रहे हैं।

(पूनम मसीह की रिपोर्ट।)

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