Tuesday, March 19, 2024

प्रताप भानु मेहता का लेख: क्या भारत भाजपा की निरंकुशता का प्रतिरोध कर पाएगा?

भारत का राजनीतिक सिस्टम निरंकुशता की ओर घूम रहा है। विपक्षी नेताओं को निशाना बनाया जाना, बलपूर्वक राहुल गांधी को अयोग्य करार देना, सिविल सोसाइटी और रिसर्च संगठनों के पीछे पड़ जाना, जानकारी की सेंसरशिप, विरोध प्रदर्शनों पर सेंसरशिप। ये सब मिलकर एक ऐसे सिस्टम को प्रोत्साहित कर रहे है जहां, निरंकुश सरकार का सिर्फ एक ही मकसद होता है, डर पैदा करना।

ये कार्रवाई बेहद खतरनाक संकेत दे रही हैं। इसलिए नहीं कि ये या वो लीडर टारगेट बनाया जा रहा है। ये खतरनाक इसलिए है कि सत्ताधारी बीजेपी सरकार इस बात के संकेत दे रही है कि वो विपक्ष को बर्दाश्त नहीं करेगी।

आशंका ये भी कि किसी भी परिस्थिति में वो आसानी से सत्ता का हस्तांतरण भी नहीं करने देंगे। इन तथ्यों से सिर्फ एक बात ही उजागर होती है, उन्हें सत्ता का घोर लालच है। इसके साथ ही इस सत्ता को बनाए रखने के लिए किसी भी साधन का इस्तेमाल करने की प्रबल आकंक्षा। ना तो जिस तरह की सत्ता बीजेपी चाहती है वो और ना ही जिस तरह के साधन वो इसे हासिल करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, उनमें से किसी को भी अपनी सीमाएं नहीं पता है। ये निरंकुशता की सबसे उम्दा पहचान है।

किसी भी लोकतंत्र में सत्ता के सहज हस्तातंरण की कुछ शर्तें होती हैं। विपक्ष की आवाज़ को निर्मम तरीके से दबाना और आज़ादियों का गला घोंटना इन शर्तों को खत्म करते हैं। पहली बात तो ये है कि प्रोफेशनल राजनेता एक दूसरे को एक ही प्रोफेशन के सदस्य की तरह देखते हैं ना कि उन दुश्मनों की तरह जिन्हें हर हाल में अपने रास्ते से हटा देना है।

एक बार कोई सरकार ऐसा करने लग जाती है, तो शायद उसे ये लगने लग जाता है कि वो सत्ता गंवा सकती है। उसे इस सिद्धांत की भी परवाह नहीं रहती कि लोकतंत्र सरकारें बदले जाने का खेल है, सत्ता हस्तांतरण एक रूटीन की ही तरह है।

क्या आप सोच सकते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह इस संभावना पर शांति से मनन करेंगे कि उन्हें भी विपक्ष में बैठना पड़ सकता है, खासतौर से जिस तरह का अहंकारी व्यवहार उन्होंने विपक्षियों और आलोचकों के प्रति दिखाया है।

मुद्दा ये नहीं है कि सरकार लोकप्रिय है कि नहीं, हो सकता है कि वो हों। निरंकुशता लोकतंत्र की सौतेली संतान हो सकती है, प्लेटो ने ऐसा कहा है। जिस तरह से बीजेपी सत्ता की आक्रामकता को दिखा रही है, ऐसे में वो खुद को इस तर्क की जकड़न में पाएंगे जो कि एक निष्पक्ष और जायज़ लड़ाई के पक्ष में ना हो।

उनकी संस्थागत कल्पनाशीलता डरी हुई है, और हर उस झरोखे को बंद कर देना चाहती है जहां से रोशनी आ रही हो। कोई डरा हुआ सिस्टम ही उन छोटे थिंकटैंक और सिविल सोसाइटी के संगठनों को टारगेट बनाएगा जो कि सिर्फ सोशल सर्विस करेंगे ।

कोई डरा हुआ सिस्टम ही विपक्ष के सांसद को अयोग्य ठहराए जाने को लेकर राजनीतिक मंच सजाएगा। ये वही डर है जो कि निष्पक्ष चुनाव की संभावनाओं को लेकर डर पैदा कर रहा है। डर हर तरह के दबाव का बीज होता है और हम इसे पूरी तरह से देख पा रहे हैं।

जो राजनीतिक दल अपने को बहुसंख्यक राष्ट्रीय पहचान के अगुवा की तरह दिखाते हैं, उनके लिए सत्ता का त्याग करना मुश्किल होता है। नॉर्मल पॉलिटिक्स में किसी भी बहस के दो कई पक्ष होते हैं और हम ये कह सकते हैं कि हर कोई अपनी समझ से अच्छी तरह काम कर रहे हैं, तब भी जब हम असहमत हों।

लेकिन जब वैचारिक प्रोजेक्ट पूरी तरह से एकतरफा सांप्रदायिक हो और वो राष्ट्रीयता का वेष धरे तो हर विरोध को राजद्रोह की तरह लिया जाता है। बीजेपी चुनावी नियमों का उस वक्त पूरी तरह से पालन करने की कोशिश करेगी, जब वो सत्ता के केंद्र में ना हो या फिर वो चुनावी रूप से पूरी तरह खुद को सुरक्षित महसूस कर रही हो। लेकिन एक बार इस तरह की व्यवस्था में बदलाव आ जाए, पार्टी सोचेगी कि ये उसकी ऐतिहासिक नियति है कि वो राष्ट्रीय पहचान की अगुवा की तरह काम करे, फिर चाहे हालात कैसे भी हों।

उसकी अपनी कल्पनाशीलता में इस तरह की राष्ट्रीयता हर किसी बात को जायज़ ठहराती है। कानून के मामले में स्वच्छंदता से लेकर हिंसा तक। इनके पास रक्षक बनने की, हिंसा और घृणा को राजनीति और राज्य के फैब्रिक में लाने की क्षमता है।

पर इस सिस्टम और कल्चर को खत्म करना आसान नहीं। दरअसल ये उस तैयारी का भी हिस्सा है जिसके जरिए सत्ता पर  गैर राजनीतिक पकड़ हासिल की जाती है। जो पार्टियां हिंसा के ढाचों को आत्मसात कर लेती हैं वो तब तक सत्ता का हाथ नहीं छोड़ती जब तक उनको पूरी तरह खारिज नहीं किया जाता।

पर निरंकुशता का तर्क इससे आगे जाता है। मसला सिर्फ विपक्ष की कमज़ोरी का नहीं है। अयोग्यता के मसले पर ही देखें तो कांग्रेस के राजनीतिक रिफ्लेक्स के अलावा उसके सदस्यों की वो भावना जिसके तहत सबकुछ रिस्क पर रखा जाता है, ऐसा दिखता नहीं है।

इसके अलावा कांग्रेस की ओर से लोगों को सड़कों पर लाने की इच्छाशक्ति नहीं दिख रही। विपक्षी एकता भी एक कल्पना जैसी दिख रही है, जो कि हाल फिलहाल सच से ज्यादा सिर्फ परफॉरमेंस में ही विश्वास रखती है। हालांकि भारतीयों में निरंकुशता की मानसिकता काफी अंदर पैठी है। इसलिए प्रतिरोध थोड़ा मुश्किल लगता है। भारत में दूसरे कई मुद्दों पर विरोध करने की क्षमता है, लेकिन सवाल ये है कि क्या भारत अधिनायकवाद का प्रतिरोध करना चाहता है?

एक उदाहरण देखते हैं, इंडिया के इलीट को देखकर लगता है कि उनके मन में सत्ता में बैठे लोगों का डर चला गया है। ये डर निजी विश्वास और सार्वजनिक तौर पर व्यक्त किए गए उदगारों में दिखता है। यहां सरकार को लेकर समर्थन इतना ज्यादा गहरा बैठा है कि सांप्रदायिक गतिविधियों और अधिनायकवादी तरीकों को लेकर निजी तौर पर भी आलोचना बहुत ही कम देख रही है ।

किसी ऐसे पीड़ित से पूछिए जो कि राज्य के गुस्से का शिकार हुआ है, वो लोग इस पूरी हिंसा के भुक्तभोगी हैं या फिर प्रशासनिक और कानूनी हरासमेंट के निशाने पर रहे हैं। यहां निजी तौर रूप से दिखाया गया समर्थन एकाएक गायब हो जाएगा, जैसे ही राज्य इसमें प्रवेश करेगा। ये या तो एक गहरे बैठी कायरता या फिर अधिनायकवाद को नॉर्मलाइज़ करने का ही संकेत है।

एक सफल निरंकुश सरकार का गुण है कि वो उन लोगों में एक असत्य को लेकर एक सेंस भर देता है जो उसे समर्थन करते हैं। इसका अर्थ ये है कि कोई भी सबूत उनके इस समर्थन को कम नहीं कर सकता। इस दुनिया में  भारत में बेरोजगारी  कम है। इसकी संस्थाएं ठीक ठाक हैं। भारत दुनिया के लीडरशिप की ऊंचाई पर पहुंच चुका है। उसने चीन से कोई जमीन नहीं हारी है। दरअसल इस तरह के ‘अनरियल्टी सेंटर्स’ के केंद्र में खुद प्रधानमंत्री है। उनके हाथ में दबाव की ये राजनीति शुद्धिकरण का एक एक्ट, अभिमान की आकांक्षा और उनकी राष्ट्र के नाम किए कार्यों के इर्द- गिर्द सिमटाया जाता है।

संस्थागत तौरपर और मानसिक तौर पर भी हम निरंकुशता को अपना रहे हैं। तब भी जबकि इसकी हिंसा आपको नहीं दिखााई दे रही हो। एक डरी हुई सत्ता अपनी हदों से बाहर जाएगी। लेकिन इस का अंतिम पड़ाव क्या है? दरअसल इस पड़ाव का बिंदु लगातार और ऊपर जा रहा है। सांप्रदायिकता फैलाएगी, कोई प्रतिक्रिया नहीं। जानकारी का पिरामिड गिर गया, कोई प्रतिक्रिया नहीं। न्यायिक हृदय ने धड़कना बंद कर दिया, कोई प्रतिक्रिया नहीं। विपक्ष को नाजायज़ तरीके से पराजित किया जा रहा है,कोई प्रतिक्रिया नहीं।

निरंकुशता का तर्क ऐसा है कि अत्याचार करने वाले स्वतंत्र हैं जबकि न्याय और आजादी ज़ंजीरों में है और हम दूसरी ओर निगाह लगाए ताक रहे हैं। 

( प्रताप भानु मेहता का लेख द इंडियन एक्सप्रेस से साभार लिया गया है। अनुवाद- अल्पयू सिंह)

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