वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने कहा है कि न्यायपालिका में गिरावट का श्रेय पूरी तरह से वर्ष 2014 में भाजपा सरकार के सत्ता में आने को नहीं दिया जा सकता है। गिरावट तो वर्ष 1992 में कॉलेजियम प्रणाली के आने से ही शुरू हो गई थी और इस तरह जो न्यायाधीश नियुक्त हुए वे योग्य नहीं थे। कॉलेजियम प्रणाली लागू करके न्यायपालिका ने उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति हड़प ली। दवे ने न्यायमूर्ति होसबेट सुरेश स्मारक व्याख्यान को संबोधित करते हुए यह बातें कहीं।
दवे ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा प्रणाली के खिलाफ अपनी आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा कि कॉलेजियम प्रणाली अपारदर्शी है और “दे और ले” पर काम करती है। दवे ने कहा कि कॉलेजियम प्रणाली देने और लेने पर काम करती है। न्यायाधीशों द्वारा एक दूसरे की पीठ को खरोंचने का काम किया जाता है। हम इसकी आलोचना भी नहीं कर सकते हैं अन्यथा हमें जवाबदेह और अवमानना में रखा जाएगा।
दवे ने कहा कि कॉलेजियम प्रणाली एक क्लब या गुट की तरह काम करती है। यह देखते हुए कि कॉलेजियम में प्रत्येक न्यायाधीश अपनी सिफारिशों के सेट के साथ आता है, कॉलेजियम प्रणाली अपारदर्शी है और लगभग अलोकतांत्रिक है। जिन न्यायाधीशों को नियुक्त किया जा रहा है, वे योग्यता में सभी बराबर नहीं हैं। बेशक कुछ अच्छे न्यायाधीश भी नियुक्त किए गए हैं, लेकिन देश भर में कॉलेजियम द्वारा प्रशासनिक शक्तियों का दुरुपयोग किया जा रहा है।
दवे ने कहा कि जब संविधान निर्माताओं ने संविधान का मसौदा तैयार किया, तो उन्होंने तीन स्तंभों की स्वतंत्रता और शक्तियों को अलग करने की कल्पना की थी। हालांकि, वे उस स्थिति की कल्पना नहीं कर पाए थे, जिसका भारत अभी सामना कर रहा है, जहां कार्यकारी दबाव न्यायिक नियुक्तियों के मामले में न्यायपालिका पर हावी हो सकता है। इस पृष्ठभूमि में दवे ने कहा कि उनकी राय में, कॉलेजियम प्रणाली को समाप्त किया जाना चाहिए।
दवे ने कहा कि जब बेंच और बार मिलकर काम करते हैं, तब एक मजबूत न्यायिक व्यवस्था सुनिश्चित हो जाती है। दवे ने उस समस्याग्रस्त प्रवृत्ति को रेखांकित किया जहां बार के सदस्य न्यायाधीशों या न्यायालयों के खिलाफ आवाज नहीं उठाते हैं। बार और बेंच दोनों के कारण न्यायपालिका काम करती है, लेकिन आज बार कहां है? वे टीवी पर आते हैं, लेकिन क्या वे कभी न्यायपालिका के खिलाफ बोलते हैं? बार के गिरे हुए मानकों के बारे में चिंतित होना बहुत जायज है।
न्यायपालिका की जवाबदेही के साथ-साथ आचरण में भी गिरावट को रेखांकित करते हुए दवे ने पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई पर लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों का भी उल्लेख किया और कहा कि शिकायतकर्ता की बाद में पुनर्बहाली उसके आरोपों में सत्यता की ओर इशारा करती है।
दुष्यंत दवे ने कहा कि नागरिक के रूप में हमने अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना और पूछने का साहस खो दिया है। परोपकार घर से आरंभ होता है। किसी को भी हिंसक नहीं होना चाहिए, लेकिन हमें संवैधानिक निकायों पर दबाव डालना चाहिए। नैतिक दबाव से के सिस्टम में सुधार आता है। आज देश में कानून का शासन लगभग अनुपस्थित दिख रहा है। दुष्यंत दवे ने विस्तार से बताया कि कैसे ‘कानून का नियम’ हमारे देश से विलक्षण रूप से अनुपस्थित हो गया है।
दवे ने कहा कि यह अवधारणा केवल समृद्ध और शक्तिशाली के लिए लागू है। भारत में प्रतिभा की कमी नहीं है और हम किसी से पीछे नहीं हैं, लेकिन हम तभी आगे बढ़ सकते हैं जब हम उचित व्यक्तियों द्वारा निर्देशित हों। दवे ने कहा कि सिर्फ बार ही नहीं, भारत के लोगों की सामूहिक अंतरात्मा को हिलाने की जरूरत है, क्योंकि लोग अपने अधिकारों के लिए या सही या गलत के लिए खड़े होना भूल गए हैं।
जस्टिस होसबेट सुरेश को मरणोपरांत डॉ. असगर अली इंजीनियर आजीवन उपलब्धि पुरस्कार, 2020 से सम्मानित किया गया। इसके तहत न्यायमूर्ति सुरेश की बेटियों ने उनकी ओर से स्मृति चिन्ह और नकद पुरस्कार स्वीकार किया। इस कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ अधिवक्ता मिहिर देसाई और कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ ने किया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)